डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह === अन्तराल
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कविताएँ
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1 गन्तव्य की ओर
2 साधना
3 स्नेह-सुधा-जल ...
4 जीवन-पथ के राही से
6 दीप
7 मनुज-जीवन
8 धोखा हुआ
9 साधना का मर्म
10 जीवन-तरु
11 रे मन !
12 आँसुओं का मोल
13 बहने देना ...
15 विनाश
16 विकास
17 जागरण
18 रस-संचार
19 वरदान
20 परिवर्तन
21 पतझर और बसंत
22 प्रभात की चाह
23 प्रभात
24 री हवा !
25 रात
26 ढलती रात
27 मेघों से
28 घटाएँ
29 जल-वृष्टि
30 दीपक
31 एकाकीपन
32 साथी से
33 गाओ गीत
34 तुम
35 तुम्हारी माँग का कुंकुम
36 प्रतिदान
37 तुम्हारी याद
38 याद
39 साथ न दोगी ?
40 प्रतीक्षा में
41 परिणाम
42 उन्मेष
43 कामना
44 जीवन का अभिनय
45 नहीं है ...
46 सत्य
47 वेदना
48 अभी नहीं
49 जल्दी करो
50 जीवन-धारा
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(1) गन्तव्य की ओर
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ध्येय पहुँचने की तैयारी !
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कितना बीहड़ दुर्गम रे पथ,
उलझ-उलझ जाता जीवन-रथ,
पर, रोक नहीं सकती मेरी गति को कोई भी लाचारी !
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माना झंझा मुझको घेरे,
पर, चरण कहाँ डगमग मेरे ?
किंचित न कभी विपदाओं के सम्मुख मैंने हिम्मत हारी !
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इस जीवन में कितनी हलचल,
बिखरा मिलता है गरल-गरल,
साधन हीना, संबल हीना, पर संघर्ष किये हैं भारी !
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इस पथ पर चलना बड़ा कठिन,
इस पथ पर जलना बड़ा कठिन,
जो इस पथ पर टिक पाया, वह केवल जीने का अधिकारी !
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1945
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(2) साधना
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आशा में घोर निराशा को आज बदलना सीख रहा हूँ !
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दुख की निर्मम बदली में यह दीप जलेगा कब तक मेरा,
मौन बनी सूनी कुटिया में प्यार पलेगा कब तक मेरा ?
आते हैं उन्मत्त बवंडर, पागल बन तूफ़ान भयंकर,
रोक सका क्या ? बुझने का क्षण और टलेगा कब तक मेरा ?
तीव्र झकोरों में झंझा के पल-पल जलना सीख रहा हूँ !
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कितने ही अरमान दबाए, नव-जीवन की प्यास लिये हूँ,
भूला-भटका, अनजाना-सा आँसू का इतिहास लिये हूँ,
अपने छोटे-से जीवन में अविचल साहस-धैर्य बँधाए,
मिटी हुई अभिलाषाओं में मिलने का विश्वास लिये हूँ,
शून्य डगर पर मैं जीवन की गिर-गिर चलना सीख रहा हूँ!
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मत बोलो मैं आज अकेला स्वर्ग बसाने को जाता हूँ,
मौन-साधना से अंतर को आज जगाने को जाता हूँ,
रज-कण से ले उन्नत भूधर तक सुन कंपति हो जाएंगे;
अपने आहत मन को फिर से आज उठाने को जाता हूँ,
निर्मम जग के भारी संघर्षों में पलना सीख रहा हूँ !
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मत समझो मुझमें ज्वालाओं का भीषण विस्फोट नहीं है,
तूफ़ानों के बीच भँवर में आँचल तक की ओट नहीं है,
मत समझो, अगणित उच्छ्वासों का भी मूल्य नहीं कुछ मेरा
कौन जानता ? इस अंतर में असफलता की चोट नहीं है,
दुर्गम-बीहड़ जीवन-पथ के कंटक दलना सीख रहा हूँ !
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1944
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(3) स्नेह-सुधा-जल....
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स्नेह-सुधा-जल बरसा दूंगा, टूटी-फूटी दीवारों में !
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मैं सुन्दर विश्व सजा दूंगा,
मैं सुखमय स्वर्ग बसा दूंगा,
जीवन-संगीत सुना दूंगा,
हृद्-पीड़क शत-शत बंधन में, जकड़े युग के प्राचीरों में !
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नृत्य मनोहर रुनझुन-रुनझुन,
गुंजित कर संसृति का कण-कण,
प्राणों में भर जीवन-धड़कन,
सरगम का मधु-स्वर भर दूंगा काली-काली ज़ंजीरों में !
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जन-उर में द्रोह उठा दूंगा,
यौवन का तेज जगा दूंगा,
उन्नति की राह बता दूंगा,
मूक अभावों के जीवन में, घोर निराशा में, हारों में !
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1949
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(4) जीवन-पथ के राही से
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बंधनों में, हार में रोना नहीं, रोना नहीं !
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राह है यह ज़िन्दगी की एक पल रुकना न होगा,
देख सीमाहीन पथ को बीच में थकना न होगा,
ज्वार उठता हो उदधि में, मृत्यु-मुख में प्राण जाएँ,
गाज गिरती हो अवनि पर या दहलती हों दिशाएँ,
पर, हृदय-साहस कभी खोना नहीं, खोना नहीं !
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हो अँधेरी रात चाहे, घोर गर्जन हो प्रलय का,
घेर ले झंझा भयानक, नृत्य हो चाहे अनय का,
मानकर चलना कि साथी हैं सभी झोंके भयंकर
ले चलेंगे पार फर-फर व्योम-पथ से जो उड़ा कर,
एक पल भी भय-ग्रसित होना नहीं, होना नहीं !
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1949
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(5) संघर्ष
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छाया सघन अँधेरा पथ पर
लगता एकाकीपन दूभर,
झ×झा के उन्मत्त प्रहारों से
होता प्रखर विध्वंसक स्वर,
नव बल संचित हो प्राणों में
संघर्ष प्रकृति से नया-नया !
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मंज़िल है बेहद दूर अभी
और अपरिचित मार्ग पड़ा है,
लक्ष्य ओर प्रेरित चरणों का
गतिमय संयम बड़ा कड़ा है,
राह विषम, प्रति निमिष मनुज का
संघर्ष प्रकृति से नया-नया !
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शून्य गगन में प्रलय-बाढ़ से
घिरते जाते बादल के दल,
प्रत्यावर्तन दुर्बलता है
चलना ही है जीवन केवल,
घन गर्जन, चपला नर्तन है
संघर्ष प्रकृति से नया-नया !
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1945
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(6) दीप
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दीप, तुम्हें तो जलना होगा !
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नभ के अगणित टिमटिम तारे,
जग के कितने जीवन-प्यारे,
बारी-बारी से सो जाएंगे,
सपनों का संसार बसाए
दीप, तुम्हें पर जलना होगा !
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तूफ़ान मचेगा जब जग में,
गहरा तम छाएगा मग में,
जब हिल-हिल जाएंगे भूधर,
डोल उठेगा भूतल सारा
दीप, तुम्हें तब जलना होगा !
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1945
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(7) मनुज-जीवन
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क्या यही है मनुज-जीवन ?
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मन दुखी है इसलिए तुम
मौन-स्वर में रो रहे हो,
हो रहे बेचैन इतने
आश सारी खो रहे हो,
पर, कभी मिलता सरस सुख, हँस लिया करते उसी क्षण !
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हाथ अपने यदि चलाते
तो चलाते बंधनों में,
है नहीं तेज़ी तनिक भी
अब मनुज-उर-धड़कनों में
सत्य, शिव, सुन्दर कहाँ ? जीवन लिए है घोर उलझन !
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कर न सकता न्याय कोई
स्वार्थ में जकड़ा हुआ जग,
बढ़ रहीं अगणित व्यथाएँ,
है मधुर जीवन न प्रतिपग,
हो गया है आदमी का आज तो पाषाण का मन !
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1946
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(8) धोखा हुआ
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धोखा हुआ, धोखा हुआ !
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मैं राह चलता गिर पड़ा,
था बीच में पत्थर पड़ा,
यह सोच कर बढ़ता गया —
‘चलते रहो, चलते रहो !’
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
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बदली गगन में छा गयी,
आँधी प्रलय की आ गयी,
अंधे नयन को कर दिये,
यह सोचना, ‘लड़ते रहो !’
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
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अब भावना से उठ रहा,
कर सत्य का अनुभव कहा —
‘धरती बनाओ फिर चलो !’
आवेश के आधीन था
धोखा हुआ, धोखा हुआ !
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1944
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(9) साधना का मर्म
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क्या चले कुछ दूर पथ पर, मन! सतत-आवेश भरकर,
क्या तपे हो अग्नि में तुम मौन, कुन्दन-से निखर कर ?
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कब मिटे हो तुम जगत में शांतिमय जीवन बसाने ?
कब बढ़े हो गहन तम में दूर का आलोक पाने ?
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हैं कहाँ देखे अभी इस विश्व में तूफ़ान निर्मम ?
कब किये हैं पार तुमने पंथ बिन पाथेय दुर्गम ?
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है सहा मरुभूमि का कब शीत-गर्मी-ताप भीषण ?
कब हुए हैं तिक्त अनुभव, कब हुआ दुख-ग्रस्त जीवन ?
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श्रम-कणों की धार फूटी क्या कभी इस फूल-तन से ?
आपदाएँ हैं सहीं क्या स्वस्थ निर्भय शांत मन से ?
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ये चरण डगमग हिलेंगे जब कहोगे, ‘सह रहे हैं !’
दुःख के कटु दुर्दिनों में, जब कहोगे, ‘रह रहे हैं !’
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जान जाओगे तभी तुम साधना का मर्म क्या है !
हो सतत संघर्ष का युग, फिर मनुज का धर्म क्या है !
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1944
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(10) जीवन-तरु
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ये मुरझा कर टूट रहे हैं, मेरे जीवन-तरु के पल्लव !
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दुख की उष्ण हवाओं ने आ सोख लिया सब प्राणों का रस,
कोमल दृढ़तर सब अंगों को हाय, शिथिल कर डाला बरबस,
रुधिर प्रवाहित करने वाली गतिहीन पड़ीं तन की नस-नस,
रह जाते अरमान अधूरे, अर्द्ध-डगर पर ही तरस-तरस,
उर में अभिलाषाएँ अगणित रह जातीं क़ैद वहीं वेबस,
मेरे जीवन का नंदन वन है पतझर-सा सूखा तहस-नहस,
भीषण रूप बना मरघट का, है मौन खगों का मधु-कलरव !
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बिन विकसे खोयी कितनी ही सुरभित कलियाँ, कोमल किसलय,
डाली-डाली सूख रही है, पर सहता जाता मौन हृदय,
प्राण प्रकम्पित करने वाले स्वर में मन की कोयल गाती,
सूखी-सरि के निर्जन तट पर करुणा का संगीत बहाती,
आँसू की धाराएँ मिलकर गंगा-यमुना-सी लहरातीं,
पूरी गति से बाढ़ उमड़कर उर-घाटी में आ चढ़ जाती,
पर, आज बहाए ले जाती काँटों का दुखदायी वैभव !
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1945
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(11) रे मन
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रे मन !
बीती गाथाओं की स्मृति पर
तुम अश्रु बहाना मत पल भर,
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जीवन में आहें भरना मत
इससे दुर्बलता आती है,
धूल उदासी की छाती है,
बन जाता जीवन शुष्क-विजन !
रे मन !
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रे मन !
मूक रुदन के गीत न गाना,
भूल निराशा ओर न जाना,
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तूफ़ानों में दीपक से तुम
हँस-हँस तिल-तिल जलते रहना,
आघात सभी सहते रहना,
तभी तुम्हारा सार्थक जीवन !
रे मन !
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1944
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(12) आँसुओं का मोल
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मूल्य मेरे आँसुओं का
कब जगत पहचान पाया ?
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देखता ही तो रहा वह
आँसुओं की धार अपलक,
दो नयन निर्मम लिए बस
स्नेह से हों रिक्त दीपक,
वेदना के स्वर मिलाकर
किस मनुज ने गान गाया ?
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कौन है जो सिसकियों का,
मूक आहों का, मरण का,
पंथ सहचर ज़िन्दगी का
मिल गया हो ठीक मन का,
कौन है जिसने हृदय की
उलझनों से त्राण पाया ?
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1946
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(13) बहने देना....
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बहने देना आँसू मेरे किन्तु, स्नेह-उपहार न देना !
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पथ पर जब मैं रुक-रुक जाऊँ,
प्रति पग पर जब झुक-झुक जाऊँ,
तूफ़ानों से लड़ते-लड़ते
झंझा में फँस कर थक जाऊँ,
गिर-गिर चलने देना मुझको, क्षण भर भी आधार न देना !
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ज्वार उठे सागर में चाहे,
नौका फँसे भँवर में चाहे,
देख घिरी घनघोर घटाएँ
धड़कन हो अंतर में चाहे,
बढ़ने देना मुझको आगे, हाथों में पतवार न देना !
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अंधकार-मय जीवन-पथ पर,
कुश-कंटक मय जीवन-पथ पर,
संबल-हीन अकेला केवल,
अपना अन्तस्तल ज्योतित कर,
मैं उठता-गिरता जाऊंगा, सुलभ-ज्योति संसार न देना !
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1945
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(14) चुनौती
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आज विश्व की महाशक्ति को मुझे चुनौती दे देने दो !
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मानव-पथ पर,
युद्ध निरन्तर,
चारों ओर मचा कोलाहल
जाता जिससे आकाश दहल
मिटा सबेरा,
घिरा अँधेरा,
मुझको अपने उर-साहस की, आज परीक्षा ले लेने दो !
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लहरें आयीं,
विप्लव लायीं,
तूफ़ान उठे सागर-तल में,
बिजली कड़की बादल-दल में,
पतवार नष्ट,
संबल विनष्ट,
अंधकार-मय भीषण क्षण में जीवन-नौका को खेने दो !
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1945
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(15) विनाश
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मैं मिटता जाता हूँ प्रतिपल !
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तारे छिप जाते अम्बर में,
लहरें मिट जातीं सागर में,
वीणा के स्वर लय हो जाते
बहते मारुत के सर-सर में
काल-धार में एक दिवस मैं भी लय हो जाऊंगा चंचल !
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कुसुमों का दो-दिन का यौवन,
दो-दिन का भ्रमरों का गायन,
जब दो-दिन में ही सीमित है
उनकी इच्छाओं की धड़कन,
दो-दिन में मेरी भी काया नश्वर हो जाएगी दुर्बल !
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दिन छिपता उड़ती धूलि गगन,
निशि ढलती जाती है प्रतिक्षण,
युग बीत रहे अपनी गति से,
होता रहता जग-परिवर्तन,
मैं भी जीवन-पथ पर चलता जाता लेकर अंतर-हलचल
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1946
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(16) विकास
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मैं खिलता जाता हूँ प्रतिपल !
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तरुवर की डालों पर कलियाँ,
नभ में झिलमिल तारावलियाँ,
धीरे-धीरे आ खिल जातीं लेकर जीवन की ज्योति नवल !
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सूखी सरिता छल-छल जल भर,
बूँदें मरुथल टप-टप पाकर,
जब जीवन पा जाता कण-कण, मैं भी भर लेता उर में बल !
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भर कर मीठा हास जगत में,
आया नव मधुमास जगत में,
मेरे स्वर भी बोल उठे, जब कूक उठी पेड़ों पर कोयल !
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1946
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(17) जागरण
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आज जीवन में सफलता की मुझे आहट मिली है !
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आज तो आराधना का
इस हृदय की साधना का
फल मिलेगा, बल मिलेगा,
आज तो पतझार में अगणित नयी कलियाँ खिली हैं !
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उठ रही हैं मुक्त लहरें,
भाव रोदन के न ठहरें,
पास यह गन्तव्य आया
हार का बंदी नहीं, जीत मुझसे आ हिली है !
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मिट चुकी है रात काली,
छा रही है आज लाली,
हो रहा कलरव मनोहर
जागरण-बेला यही है, प्राण ने पहचान ली है !
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1947
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(18) रस-संचार
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आज रस-संचार !
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अश्रु के ले सिंधु को
दुःख उर से खो गया,
यह युगों के बोझ का
भार हलका हो गया,
गीत मन ने गा लिया
गूँजती झंकार ! / आज रस-संचार !
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धूप जीवन की गयी
शांत प्राणों की जलन,
बादलों की छाँह में
मिल गया शीतल पवन,
पे्रम प्रिय का पा गया
मौन कर स्वीकार ! / आज रस-संचार !
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लय निमिष में हो गये
कष्ट सब दिन-रात के
हो गया अंतर हरा
वाटिका-सम-पात के,
सुख चिरंतन पा गया
स्वर्ग कर साकार ! / आज रस-संचार!
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1949
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(19) वरदान
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खुल गये आबद्ध अन्तर-द्वार !
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सिंधु करता जब गरज अतिहास ;
नाचती थी मृत्यु आकर पास,
आँधियों की गोद में जब हो रहा था —
अब गिरा, हा ! अब गिरा, तब
हाथ में दृढ़ आ गया पतवार !
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याचना करता रहा हैरान
पंथ पर विक्षुब्ध मन म्रियमाण,
नग्न भूखी ज़िन्दगी साकार हो जब
ले रही थी साँस अंतिम
मिल गये तब विश्व के अधिकार !
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डूबते से जा रहे थे प्राण ;
शुष्क निर्जन था सकल उद्यान
पीत-पत्तों को गँवा कर डालियाँ जब
लुट गयीं तब, दूर से आ
चली पड़ी मधुमय बसंत-बयार !
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1946
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(20) परिवर्तन
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जग के उर में किसने डाली आज नये फूलों की माला,
खाली प्याली में किसने रे भर-भर कर छलका दी हाला !
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सूखे तरु-तरु, पल्लव-पल्लव में फिर से आयी अरुणाई,
कण-कण झूम उठा चंचल हो, चमक दिशाएँ भी मुसकाईं !
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है बनी सुहागिन धरा-वधू जिसके अंग-अंग में शुचिता,
कोमल नव-पंखुरि-सी सुन्दर मनहर शीतल जिसकी मृदुता!
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झूम रही है जगती सारी उमड़ी सरिता-सी दीवानी,
खेल रहा है मानों टकरा पथ के पाषाणों से पानी !
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जग का उपवन स्वर्ण अलंकृत, बीती बोझिल युग-रात घनी,
नभ के परदे पर यौवन की नव लाली उतरी स्नेह-सनी !
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नव-संसृति में आया जीवन, अणु-अणु में है कंपन सिहरन,
चंचल लहरों से डोल उठा जगती-सरि का सोया तन-मन!
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गुंजित नभ-भू आँगन, होता चिड़ियों का मीठा कलरव,
परिवर्तन की मधु बेला में सबने रूप धरा है नव-नव !
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1947
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(21) पतझर और बंसत
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उड़ रही है धूल !
उड़ रही है, धूल !
डालियों में आज
खिल रहे हैं फूल !
खिल रहे हैं फूल !
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झर रहे हैं पात,
भर रहे हैं पात,
आज दोनों बात !
आ रहा ऋतुराज
सृष्टि का करता हुआ
फिर से नया ही साज !
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पिघला बर्फ़
नदियों के बढ़े हैं कूल !
उड़ रही है धूल !
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1949
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(21) प्रभात की चाह
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बोले जीवन के मधुबन में
कोयल का स्वर, कोयल का स्वर !
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लद जाएँ कुसुमों से डाली,
अम्बर में फूट पड़े लाली,
बह चले सुरभिमय मंद पवन,
छा जाए जग में हरियाली,
गा दे गीत खगों की टोली
नीरव जीवन-सरिता तट पर !
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रजनी मौन भरे जीवन से,
भ्रमरों के गुनगुन गुंजन से,
जग कोलाहलमय हो जाए,
छूट पड़े जीवन बंधन से,
डोल उठे संसृति का अणु-अणु
प्राणों में शक्ति नयी पाकर !
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जागे सोया मानव-जीवन,
बदले जग का जीवन-दर्शन,
निर्धनता, व्यथा मिटे सारी,
हो नवल विश्व, नूतन जन-मन,
मिट जाए सपनों की दुनिया,
लहराए जागृति का सागर !
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1949
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(23) प्रभात
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विहग सुनसान में, तरु पर, प्रभाती-गान जीवन का
सुखद, उन्मुक्त स्वर से, एक लय में गा रहा है क्यों ?
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सितारे छिप गये सारे, अँधेरा मिट गया सत्वर,
उषा-साम्राज्य का अनुचर दिखाई दे रहा दिनकर,
गगन में मौन एकाकी, गयी है ज्योति पड़ फीकी,
छिपाता मुख जगत से चाँद उड़ता जा रहा है क्यों ?
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अलस तंद्रा भरी चुपचाप थी दुनिया अभी सोयी,
मनुज सब स्वप्न में डूबे सचाई रूप की खोयी,
जगा जन-जन, जगा हर मन, मुखर वातावरण प्रतिपल
नया संदेश, जीवन जागरण-क्षण पा रहा है क्यों ?
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1949
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(24) री हवा !
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री हवा !
गीत गाती आ,
सनसनाती आ ;
डालियाँ झकझोरती
रज को उड़ाती आ !
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मोहक गंध से भर
प्राण पुरवैया
दूर उस पर्वत-शिखा से
कूदती आ जा !
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ओ हवा !
उन्मादिनी यौवन भरी
नूतन हरी इन पत्तियों को
चूमती आ जा !
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गुनगुनाती आ,
मेघ के टुकड़े लुटाती आ !
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मत्त बेसुध मन
मत्त बेसुध तन !
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खिलखिलाती, रसमयी,
जीवनमयी
उर-तार झंकृत
नृत्य करती आ !
री हवा !
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1949
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(25) रात
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चाँदनी छिटकी हुई बेछोर,
नाचता है उल्लसित मन-मोर,
नींद आँखों से उलझकर हो गयी है दूर !
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प्राण ने सुखमय नया संसार,
आज पलकों में किया साकार,
मूक नयनों का तभी यह बढ़ गया है नूर !
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है बड़ी मोहक रुपहली रात,
दूर पूरब से बहा है वात,
व्योम में छाया हुआ निशि का नशा भरपूर !
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प्राणमय कितना निशा का गान,
सुन जिसे रहता नहीं है ध्यान,
है छिपा कोई कहीं पर सृष्टि-भेद ज़रूर !
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1949
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(26) ढलती रात
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स्वर्ग का ऐश्वर्य
धरती पर सहज बिखरा हुआ,
आकाश-पथ की चाँदनी की धूल से
निखरा हुआ !
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जगमगाती रात
ठहरे पात,
निर्जन में अकेली मूक
जीवन की पहेली-सी
रुकी-सी रात !
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अंतर-तृप्ति की छाया
बनी प्रतिमा सलज्जा, मुग्ध सोयी रात
मानों सब गयी अपना कहीं पर हार !
धुँधली-सी गयीं बन गूढ़ रेखाएँ
बतातीं हो गयी हैं पूर्ण इच्छाएँ,
अरी ! शीतल सकुचती रात !
मत कर साधना ऐसी
न हो नव भोर,
सपनों की न टूटे
रजत-राका-रश्मियों की डोर !
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री पगली ! वही तो दे सकेगा
शक्ति, प्राणों में नया उत्साह, गति, कंपन !
मचा यों शोर —
हो नव भोर !
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1949
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(27) मेघों से
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दौड़ते आकाश-पथ से
जा रहे किस देश को घन ?
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देख जिनको कर रही सज्जा प्रकृति-बाला,
देख जिनको आज छलकी पड़ रही हाला,
जो लगाए आश, उनको
छोड़कर क्यों जा रहे घन ?
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हर तृषित की प्यास को तुमको बुझाना है,
हर भ्रमित को राह भी तुमको सुझाना है,
पर, बिना बरसे अरे तुम
जा रहे किस देश का घन ?
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यों तुम्हारा देर से आना नहीं अच्छा,
फिर गरज कर, क्रोध में जाना नहीं अच्छा,
एक पल रुक कर बताओ
जा रहे किस देश को घन ?
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1949
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(28) घटाएँ
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छा गये सारे गगन पर
नव घने घन मिल मनोहर,
दे रहे हैं त्रस्त भू को
आज तो शत-शत दुआएँ !
देख लो, कितनी अँधेरी हैं घटाएँ !
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कर रहा है व्योम गर्जन
मंद्र ध्वनि से, वाद्य-सा बन,
चाहता देना सुना जो
आज सारी स्वर-कलाएँ !
देख लो, ये व्योम-चेरी हैं घटाएँ !
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अरुक बरसो बिन्दु जल के
तीव्र गति से, ना कि हलके,
विश्व भर में वृष्टि कर दो
दूर हों सारी बलाएँ !
देख लो, कितनी घनेरी हैं घटाएँ !
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1949
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(29) जल-वृष्टि
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पानी बरसा, पानी बरसा !
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देख रहे थे आसमान को
जब प्यासी आँखों से जन-जन,
सिर पर ज्वाला का बोझ लिए
जब साँसें भरते थे तरु-गण,
शांत हुए, जैसे ही टप-टप
पानी बरसा, पानी बरसा !
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लरज-लरज कर बिजली चमकी
घुमड़-घुमड़ कर गरजे नव-घन,
भीग गया रे दूर क्षितिज तक
नंगी शुष्क धरा का कण-कण
जगती को नव-जीवन देने
पानी बरसा, पानी बरसा !
.
इस जल में नूतन जग की
रचना का सफल प्रयास छिपा;
इस जल में त्रस्त मनुजता का
सुन्दर निश्छल मधु-हास छिपा,
नवयुग का नव-संदेश लिए
पानी बरसा, पानी बरसा !
.
1947
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(30) दीपक
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मूक जीवन के अँधेरे में, प्रखर अपलक
जल रहा है यह तुम्हारी आश का दीपक !
.
ज्योति में जिसके नयी ही आज लाली है
स्नेह में डूबी हुई मानों दिवाली है !
.
दीखता कोमल सुगन्धित फूल-सा नव-तन,
चूम जाता है जिसे आ बार-बार पवन !
.
याद-सा जलता रहे नूतन सबेरे तक,
यह तुम्हारे प्यार के विश्वास का दीपक !
.
1948
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(31) एकाकीपन
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यह आज अकेलेपन पर तो
मन अकुला-अकुला आता है !
.
सुनसान थका देता मन को,
एकांत शिथिल करता तन को,
अब और नहीं एकाकीपन
जीवन के साथ रहे प्रतिक्षण,
यह उलझा-उलझा-सा यौवन
अब तो भार बना जाता है !
.
कब तक सूनी राह रहेगी ?
कब तक प्यासी चाह रहेगी ?
इतनी काली सघन निशा में
चलना कब तक एक दिशा में ?
यह रुका हुआ जीवन, उर में
भाव निराशा के लाता है !
.
1949
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(32) साथी से
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मिले हो आज जीवन की डगर पर
किंतु आगे साथ मेरा सह सकोगे क्या ?
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अभी जीवन-निशा पहला प्रहर, तारे
गगन में आ, अनेकों आ, रहे हैं छा,
सघनतम आवरण छाया, नहीं दिखती
सफलता की प्रभाती की कहीं रेखा,
नहीं दिखता कहीं भी लक्ष्य का लघु
चिद्द, आँखों को यहाँ पर फाड़ कर देखा !
.
निराशा से बचा लोगे, सतत-गति,
लक्ष्य-उन्मुख प्रेरणा-स्वर कह सकोगे क्या ?
.
नहीं संदेह, प्राणों को यहाँ पाथेय,
साधन-हीन हो चलना असंभव है,
नहीं संदेह, दीपक को बिना लघु
स्नेह-बाती के कहीं जलना असंभव है,
नहीं संदेह, आँधी में भयावह
नाश का सामान हो पलना असंभव है !
.
तुम्हारे प्यार के बल पर चला हूँ,
पर, भला आगे सदय तुम रह सकोगे क्या ?
.
नहीं तो चल रहा हूँ मौन, जीवन-पंथ
पर आगे अकेला ही, अकेला ही,
नहीं तो चढ़ रहा हूँ पर्वतों को
आज मैं भागे अकेला ही, अकेला ही,
चला हूँ चीरता सागर-लहरियाँ
बाहुओं के बल, घिरी जब नाश बेला ही !
.
अभय वरदान देकर, मूक मन से
कह सकोगे यों, ‘नहीं तुम बह सकोगे !’ क्या ?
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1949
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(33) गाओ गीत
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तुम कहते, ‘गाओ आज गीत !
है पर्व मिलन का शुभ पुनीत !’
.
जीवन में सुखमय लहरों का
कंपन बरबस भर देते हो,
और तभी आ चपके-चुपके
उर धन-राशि चुरा लेते हो,
खो जाते भाव उदासी के
तुम दुःख भुला देते अतीत !
.
तुम मधु-पूरित शीतल निर्झर
हो मेरी जीवन-सरिता के,
छा जाते हो प्रतिपल मेरे
प्राणों के स्वर में कविता के,
मूक पराजय की बेला में
मैं जाता तुमको देख जीत !
.
1949
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(34) तुम
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तुम मेरे जीवन-तरु के
हो कोमल-कोमल किसलय !
.
तुमसे मेरे यौवन की
होती है पहचान प्रखर,
तुमसे मुरझाए मुख का
जाता है सौन्दर्य निखर,
देते मेरे जीने का
हिल-हिल मिल-मिल कर परिचय !
.
आँधी-पानी में, माना
मैं जड़ से हिल जाता हूँ,
पर, प्रतिपल अंतरतम से
गीत तुम्हारा गाता हूँ,
सतत तुम्हारे ही बल पर
लड़ता रहता बन निर्भय !
.
1949
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(35) तुम्हारी माँग का कुंकुम !
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उड़ रहा है आज यह कैसे
तुम्हारी माँग का कुंकुम !
.
बहुत ही पास से मैंने तुम्हें देखा
न थी मुख पर कहीं उल्लास की रेखा,
न जाने क्यों रहीं केवल खड़ीं तुम पद-जड़ित गुमसुम!
.
मिला है जब तुम्हें यह गीतमय जीवन
बताओ क्यों हुआ विक्षुब्ध फिर तन-मन ?
न जाने किस भविष्यत् के विचारों से व्यथित हो तुम !
.
बुझा-सा हो रहा मुख-चंद्र चमकीला,
कि है प्रतिश्वास भारी, रंग-तन पीला,
न जाने आज क्यों हर वाटिका में जीर्ण-शीर्ण कुसुम !
.
1949
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(36) प्रतिदान
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तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का
प्रतिदान कैसे दूँ !
अनोखे इस सरल मधु-प्यार का
प्रतिदान कैसे दूँ !
.
विश्वास था इतना —
न दुर्बल हो सकूंगा मैं,
विश्वास था इतना
न मन-बल खो थकूंगा मैं !
पर, रुका हूँ,
सोचता हूँ
एक मंज़िल पर —
कि कैसे बन सकूँ मैं अंग, साथी
इस तुम्हारे मोह के संसार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
.
स्नेह पाया था ;
कहानी बन गयी !
अवश निशानी बन गयी !
अफ़सोस है गहरा
कि उसका गीत ही अब गा रहा हूँ,
और अपने को
विवश-निरुपाय कितना पा रहा हूँ !
और ही पथ आज मेरे सामने
जिस पर निरंतर जा रहा हूँ !
सोचता हूँ —
साथ कैसे दूँ तुम्हारे राग में
जो बज रहा है ज़िन्दगी के तार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
.
उन्माद भावुकता सभी तो
आज मुझसे दूर हैं,
स्वर्णिम-सुबह की रश्मियाँ सब
श्याम-घन के आवरण में
बद्ध हो मजबूर हैं !
औ’ युग-विरोधी आँधियाँ हैं;
पर, तुम्हारी याद कर
इन आँधियों के बीच भी
पुरज़ोर रह-रह सोचता हूँ —
किस तरह दूंगा तुम्हें
वह अंश जीवन का
मिला है जो तुम्हें
सच्चे हृदय के स्नेह के अधिकार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
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1949
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(37) तुम्हारी याद
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बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है !
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आज यह बेहद पुरानी बात की
ध्यान में फिर बन रही तसवीर क्यों ?
आज फिर से उस विदा की रात-सा
आ रहा है नयन में यह नीर क्यों ?
सिर्फ़ जब उन्माद मेरे साथ है !
.
कह रही है हूक भर यह चातकी
‘प्रेम का यह पंथ है कितना कठिन,
विश्व बाधक देख पाता है नहीं
शेष रहती भूल जाने की जलन !’
बस, यही फ़रियाद मेरे साथ है !
.
पर, तुम्हारी याद जीवन-साध की
वह अमिट रेखा बनी सिन्दूर की ;
आज जिसके सामने किंचित् नहीं
प्राण को चिंता तुम्हारे दूर की,
देखने को चाँद मेरे साथ है !
.
1949
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(38) याद
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आज बरसों की पुरानी आ रही है याद !
.
सामने जितना पुराना पेड़ है
उतनी पुरानी बात,
हो रही थी जिस दिवस आकाश से
रिमझिम सतत बरसात,
छिप गया था श्यामवर्णी बादलों में चाँद !
.
तुम खड़ी छत पर, अँधेरे में सिहर
कर गा रही थीं गीत,
पास आया था तभी मैं भी ; मिले
थे स्नेह से दो मीत ;
आज नयनों में उसी का शेष है उन्माद !
.
1949
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(39) साथ न दोगी ?
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जब जगती में कंटक-पथ पर
प्रतिक्षण-प्रतिपल चलना होगा,
स्नेह न होगा जीवन में जब ;
फिर भी तिल-तिल जलना होगा,
घोर निराशा की बदली में
बंदी बनकर पलना होगा,
जीवन की मूक पराजय में
घुट-घुट कर जब घुलना होगा,
क्या उस धुँधले क्षण में तुम
भी बोलो, मेरा साथ न दोगी ?
.
जब नभ में आँधी-पानी के
आएंगे तूफ़ान भयंकर,
महाप्रलय का गर्जन लेकर
डोल उठेगा पागल सागर,
विचलित होंगे सभी चराचर,
हिल जाएंगे जल-थल-अम्बर,
कोलाहल में खो जाएंगे
मेरे प्राणों के सारे स्वर,
जीवन और मरण की सीमा
पर, क्या बढ़कर हाथ न दोगी ?
.
1949
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(40) प्रतीक्षा में
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प्रतीक्षा में सितारे खो गये !
.
बितायी थी अकेली रात जिनको गिन,
बने थे धड़कनों के जो सबल संबल,
किरन पूरब दिशा से ला रही अब दिन ;
निराशा और आशा का उड़ा आँचल,
निरंतर आँसुओं की धार से
छायी गगन की कालिमा को धो गये !
.
नयन पथ पर बिछे, निशि भर रहे जगते
सरल उर-स्नेह से जलता रहा दीपक,
जलन पूरित सभी भावी निमिष लगते ;
युगों से कर रहा मन साधना अपलक,
हृदय में आ प्रिये ! उठते सतत
अच्छे-बुरे ये भाव रह-रह कर नये !
.
क्षितिज की ओर फैले पंथ से चल कर
कभी हँसते हुए तुम पास आओगे,
बना विश्वास, जीवन के अरे सहचर !
नहीं तुम इस तरह मुझको भुलाओगे,
पपीहे ! कह वियोगी के सभी
अब तो अभागे कल्प पूरे हो गये !
.
1949
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(41) परिणाम
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यह युगों की साधना का
आज क्या परिणाम है ?
.
मैं तुम्हारे रूप का साधक
जोहता शोभा सदा अपलक,
पर, गया मिट सुख-सबेरा
ज़िन्दगी की शाम है !
.
स्वप्न में तुमको बुलाया था,
कक्ष अंतर का सजाया था
पर, युगों से स्नेह-निर्झर
बह रहा अविराम है !
.
श्रवण आहट पर टिके मेरे,
नयन-युग पथ पर झुके मेरे,
पर, नहीं आभास तक का
आज किंचित नाम है !
.
1949
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(42) उन्मेष
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आज मन बेचैन है !
वह कौन है
जो कर रहा अविराम आकर्षित,
अधिक चंचल
कि मारुत भी पिछड़ता जा रहा है ?
कौन-से विश्वास की ज्वाला समायी है
कि जिससे हर पिरामिड-भाव अंतर के
पिघलते जा रहे हैं ?
कि जिसके हेतु तूने
प्राण की सब शक्ति
सब पुरुषार्थ
निर्भय रख दिया है दाँव पर !
.
अंतर, भुजा का बल,
शिराओं का धधकता रक्त निर्मल
आज आँधी बन
विफलता के सभी बादल
गगन से दूर अविरल कर
सुनहली नव-किरण
लाना यहाँ पर चाहता है !
कौन-सा ज्योतित सबेरा
आज आशा की लकीरें
मन-पटल पर कर रहा अंकित ?
नवल-निर्माण के हित
दे रहा जो प्रेरणा ?
यह राह —
जिस पर दृष्टि केन्द्रित;
है बड़ी, फैली हुई मरुथल सहारा-सी,
कि जिस पर हैं
कहीं टीले गरम जलहीन रेतीले,
कहीं फैले हुए मैदान
मृग-मन को भ्रमित करते हुए।
जिन पर दिखाई दे रहे हैं
हड्डियों के ढेर
गीले शव
कि जिनकी जीभ बाहर होंठ को छू
चाटती ही रह गयी है !
पर, बोल तो मन —
कौन-सा है स्वप्न ऐसा
जो जगत में कर रहे साकार ?
जिसके हित नहीं रे
आज तक स्वीकार
असफलता, निराशा-भार !
.
1949
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(43) कामना
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कामना मेरी !
.
गगन-सी बन,
विकल सिहरन,
प्राण में रह कर समायी री नहीं पाती
सघन नव-बादलों-सी कल्पना मेरी !
.
सरल दीपक,
चमक अपलक,
वंदना के स्वर हृदय में आज तो बंदी !
सजी है पूर्ण जीवन-अर्चना मेरी !
.
जलन खोयी,
अमृत धोयी,
जल रही अविरल अकम्पित लौ हृदय की यह
सतत उद्देश्य-लक्षित साधना मेरी !
.
1949
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(44) जीवन का अभिनय
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संसार समझ कब पाया
मेरे जीवन का अभिनय !
.
मेरे जीवन की धरती पर
ऊबड़-खाबड़ पथ
सर-सरिता, गिरि-वन,
मैदान-पठार बने;
मरुथल, दलदल;
सुख-दुख का क्रम,
उत्थान-पतन
मुसकान-रुदन
है हार-विजय ?
.
मेरे जीवन के अम्बर में
आँधी झंझा,
हिम का वर्षण,
पानी की बूँदों की रिमझिम,
गर्जन-स्वर है, विद्युत कंपन ;
क्षण देदीप्य अमर सविता-चंदा जैसे,
उल्काएँ भी नश्वर !
सुन्दर और असुन्दर,
शिव और अशिव
भावों का संचय !
.
1945
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(45) नहीं है ...
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नहीं है रोशनी यह वह
जिसे बादल जलाता है !
.
नहीं वैसी चमक तड़पन,
नहीं वैसी भरी सिहरन
नहीं उन्माद है वैसा
जिसे यौवन सजाता है !
.
नहीं बल आँधियों का यह,
नहीं स्वर दृढ़-हियों का यह
नहीं वह गीत जीवन का
जिसे आकाश गाता है !
.
1944
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(46) सत्य
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दीप जलता है नहीं, यह
स्नेह का सागर रहा जल !
.
ज्ञान, संस्कृति, मनुज-दर्शन,
ध्येय, जन, साहित्य, जीवन
सब बदलते जा रहे, अविराम गति से पग मिला कर,
युग नहीं चलते कभी भी
आदमी केवल रहे चल !
.
रात-दिन अविश्रांत नर्तन,
ग्रीष्म-वर्षा, फिर शिशिर-क्षण,
एक के उपरांत आकर, हैं सदा करते युगान्तर,
शून्य में अविचल प्रभाकर,
भूमि ही गतिशील प्रतिपल !
.
ज़िन्दगी क्या ? एक हलचल,
मूक-जड़ता में रही पल,
है शिथिल, उत्साह दुर्दम, वेग गति, रुक-रुक, सरल,दृढ़,
मुक्त बहता है न जीवन ;
सिर्फ़ बहती धार चंचल !
.
1946
------------------------------
(47) वेदना
------------------------------
घाव पुराने पीड़ा के
जाने-अनजाने में सबके
आज हरे गीले सूजे !
रह-रहकर बह जाती असह्य लहर,
मानो बिजली का तीव्र करेंट ठहर
मांस मौन तड़पा देता !
नाली के कीड़ों जैसा इधर-उधर
जग के सारे ओर-छोर घेरे,
हृदय विदारक
नाशक
मूक अभावों की
धूल भरी अंधी
आँधी बहती जाती !
मर्माहत यौवन चीख रहा
रोक भुजाओं से असफल !
आज निराशा के बादल
छाये नभ में उमड़-घुमड़ ;
जीवन में,
जन-जन-मन में हलचल !
आज युगों के घाव हरे !
हर उर में
दुख-दर्द भरे !
.
1949
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(48) अभी नहीं....
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अभी नहीं तूफ़ान उठा है !
.
कुहराम नहीं
काँपी न मही
टूटे न अभी नभ के तारे,
प्रतिद्वन्द्वी स्वर न थके हारे
अभी नहीं जन-जन के मन में
मुक्ति इष्ट का भाव जगा है !
.
संघर्ष अथक
नव-ज्योति चमक
फूटी न कहीं अंदर-बाहर,
किंचित उमड़ा न हृदय-सागर,
अभी नहीं नव-रवि की किरणें
वसुधा पर तम विजन घना है !
.
सुनसान डगर
बीहड़ मर्मर
तरुवर सूखे जर्जर लुण्ठित,
संसृति का कण-कण अपमानित,
अभी नहीं सबके जीने का
पीड़ित जग ने मंत्र सुना है !
.
बदले दुनिया,
गुज़रें सदियाँ
क्रूर दमन की, बर्बरता की,
मानव-मन की दुर्बलता की,
अभी न नव जग में माता ने
नव शिशु का रुदन सुना है !
.
1949
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(49) जल्दी करो !
------------------------------
जल्दी करो, जल्दी करो !
.
तूफ़ान सिर पर आ गया
भीषण प्रलय-तम छा गया,
मृत ध्वंस का अभिनय हुआ,
पथ से विपथ सब हो गया,
दृढ़ ओट की चिन्ता अरे
जल्दी करो, जल्दी करो !
.
नभ-स्पर्श करने उठ रहीं
लहरें प्रखर बस में नहीं,
यह नाव डगमग हो रही
पतवार दे धोखा गयी
बस, पास का तट देख लो
जल्दी करो, जल्दी करो !
.
ज्वालामुखी है फट रहा,
भूकम्प से थल कट रहा,
जल-मग्न जनपद हो रहे,
जी तोड़ भगती बस्तियाँ,
नव शक्ति का संचय अथक
जल्दी करो, जल्दी करो !
.
1944
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(50) जीवन-धारा
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जीवन द्रोह अभिनव गीत
सुनकर मत बनो भयभीत
यह अरोहमय नूतन सृजन-संगीत !
.
जड़वत्
शैल-गति-निर्माण जैसी रीति की
सहगामिनी-धारा
मनुजता की सृजनशीला नहीं है !
(कौन कहता, ‘व्योम यह नीला नहीं है !’)
बढ़ रहा हो ढाल पर रुक-रुक
धरा-केन्द्रिय-बल अभिभूत
फैला ग्लेशियर गंगोत्री के पार,
करता लघु सृजन-संहार ;
लघु-लघु रूप का परिणाम
जीवन-द्रोह का झरना नहीं है !
.
लोकरुचि मेरे समय की दिव्य है,
कोई मलिनवदना नहीं है !
.
छा रही युग-भित्ति पर
जगमग अरुणिमा री !
बड़े विश्वास की
गरिमा अनोखी री !
.
1949
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रचना-काल : सन् 1944-1949
प्रकाशन-वर्ष : सन् 1954
प्रकाशक : युवक साहित्यकार संघ, धार, म. प्र.
सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 1] ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 1] में।
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