शनिवार, 24 अप्रैल 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ---- "जूझते हुए"

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ---- "जूझते हुए"
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कविताएँ
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1 कश-म-कश
2 कचनार
3 प्रियकर
4 संसर्ग
5 संस्पर्श
6 आमने-सामने
7 जन्म-दिन
8 सहपंथा
9 विफल
10 निस्संग
11 इन्तज़ार
12 निष्कर्ष
13 विक्षेप
14 गन्तव्य-बोध
15 विराम
16 सामर्थ्य-भर
17 स्थिति
18 आदमी
19 उत्तर
20 प्रतिरोध
21 पतन
22 विचित्र
23 त्रासदी
24 कुफ्र
25 आह्नान
26 विश्वस्त
27 अनाहत
28 जनवादी
29 एकजुट
30 संक्रमण
31 मज़दूरों का गीत
32 श्रमजित्
33 वर्षान्त पर
34 विसंगति
35 प्रजातंत्र
36 लालसा
37 भोर
38 अ-तटस्थ
39 एबसर्ड कविता
40 श्रद्धांजलि
41 सर्वहारा का वक्तव्य
42 अभूतपूर्व
43 आश्वास
44 मुक्त-कंठ
45 संधान

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(1) कश-म-कश
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बरसों से नहीं देखा —
सूर्योदय
सूर्यास्त
चाँद-तारों से भरा आकाश,
नहीं देखा
बरसों से नहीं देखा !

कलियों को चटकते,
फूलों को महकते
डालियों पर झूमते,
तितलियों-मधुमक्खियों को
चूमते !
बरसों से नहीं देखा !

मेह में न्हाया न बरसों से
पुर-जोश कोई गीत भी गाया
न बरसों से!

न देखे
एक क्षण भी
मेहँदी से महमहाते हाथ गदराए,
महावर से रँगे
झनकारते
दो - पैर
भरमाए !
न देखे
आह, बरसों से !
कुछ इस क़दर
उलझा रहा
ज़िन्दगी की कश-म-कश में —
देखना
महसूसना
जैसे तनिक भी
था न वश में !

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(2) कचनार
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पहली बार
मेरे द्वार
रह-रह
गह-गह
कुछ ऐसा फूला कचनार
गदराई हर डार !

इतना लहका
इतना दहका
अन्तर की गहराई तक
पैठ गया कचनार !

जामुन रंग नहाया
मेरे गैरिक मन पर छाया
छज्जों और मुँडेरों पर
जम कर बैठ गया कचनार !

पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से
जैसे उमड़ा प्यार !
अनगिन इच्छाओं का संसार !
पहली बार
ऐसा अद्भुत उपहार !

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(3) प्रियकर
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इस बहार में
गुलाब !
क्यों उदास ?
बार-बार ले रहे उसाँस।
है विकीर्ण
क्यों नहीं
विलास की सुवास ?

ओ गुलाब !
आज मत रहो उदास
इर क़दर उदास !
दो मिठास प्राण को
हुलास मन / उदार बन !

पुनीत प्यार से
सुधा विहार से
रहो प्रमोद-सिक्त
पास-पास !
पूर्ण जब विकास
मत रहो उदास !

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(4) संसर्ग
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जब से
हुई पहचान
मूक अधरों पर
अयास बिछल रहे
कल गान !

देखा
एकाग्र पहली बार —
बढ़ गया विश्वास,
मन पंख पसार
छूना चाहता आकाश !

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(5) संस्पर्श
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ओ पवित्रा !
मृदुल शीतल उँगलियों से
छू दिया तुमने
माथ मेरा —
मुश्किलें
उस क्षण
गया सब भूल !

खिल गये उर में
हज़ार-हज़ार टटके फूल !

खो गये पथ के
अनेकानेक शूल-बबूल !

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(6) आमने-सामने
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जी भर
आज बोलेंगे,
परस्पर अंक में आबद्ध
सारी रात बोलेंगे,
जी भर
बात बालेंगे !

विश्वास की
सम-भूमि पर हम
एक-धर्मा
हीनता की ग्रंथियाँ
संदेह के निर्मोक खोलेंगे,
सहज निर्व्याज खोलेंगे !

जी भर
आज जी लेंगे,
सुधा के पात्र पी लेंगे !

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(7) जन्म-दिन
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जीवन-पुस्तिका का
एक पृष्ठ और
पूरा हुआ।
एक बरस
और जिया !

शुक्र है
मौत ने नहीं छुआ !
आँधियों के
बीच भी
जलता रहा दिया !

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(8) सहपंथा
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पार कर आये
बीहड़
ज़िन्दगी की राह
लम्बी राह,
साथ-साथ।

पगडंडियाँ
या राज-मार्ग प्रशस्त,
खाइयाँ
या पर्वतों की घूमती ऊँचाइयाँ,
पार कर आये
साथ-साथ!
ज़िन्दगी की राह !

एक पल भी
की न आह-कराह !
दीनता से दूर,
हीनता से दूर,
कितने ही रहे मजबूर!
नहीं कोई
शिकन आयी माथ !
पार कर आये
भयानक राह,
ज़िन्दगी की राह
साथ-साथ!

आँधियों की धूल से
या
चरण चुभते शूल से —
रुके नहीं !
तपती धूप से,
गहरे उतरते
घन अँधेरे कूप से
थके नहीं !

तर-बतर
करते रहे
तय सफ़र,
थामे हाथ
बाँधे हाथ
साथ-साथ।
पार कर आये
अजन-बी
ज़िन्दगी की राह
लम्बी राह !

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(9) विफल
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लहरों-सी उफ़नती
उर-उमंगें सो गयीं,
चहचहाती डाल सन्ध्या की
अचानक
मूक-बहरी हो गयी !
प्रतीक्षा-रत
सजग आँखें
विवश चुप-चुप
रो गयीं !
निशि
हिम-कणों से सृष्टि
सारी धो गयी !

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(10) निस्संग
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ठंडी रात,
सन्नाटा !
जब-तब कहीं कोई
थरथरा उठता पेड़,
रह-रह
सनसना उठती
हवा ।
अथवा
चीख पड़ता
दर्द में
चकवा।

न कोई बात ।
गहरी
बहुत गहरी
एक ख़ामोशी,
अपूर अटूट बेहोशी
शिथिल
आविद्ध।
कुंठित मन
सिहरता तन
विकल
दयनीय पक्षाघात।
सन्नाटा !
न कोई बात,
ठंडी रात !

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(11) इन्तज़ार
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रात
ठंडी और लम्बी —
जागते
कब तक रहेंगे ?

रात
गीली ओस-भीगी,
शीत का अभिशाप
कितना और...
चुप-चुप सहेंगे ?

थरथराता गात,
कुहरे में
झुके हैं पात,
अपनी
वेदना को और....
कब तक कहेंगे ?

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(12) निष्कर्ष
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ज़िन्दगी — वीरान मरघट-सी,
ज़िन्दगी — अभिशप्त बोझिल और एकाकी महावट-सी !
ज़िन्दगी — मनहूसियत का दूसरा है नाम,
ज़िन्दगी — जन्मान्तरों के अशुभ पापों का दुखद परिणाम !
ज़िन्दगी — दोपहर की चिलचिलाती धूप का अहसास,
ज़िन्दगी — कंठ-चुभती सूचियों का बोध तीखी प्यास !
ज़िन्दगी — ठहराव, साधन-हीन, रिसता घाव
ज़िन्दगी — अनचहा संन्यास, मात्र तनाव !

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(13) विक्षेप
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मन के राज्य में
देखे स्वप्न जो रंगीन,
मांसल कल्पनाओं में रहे जो लीन,
मिथ्या वासना अतिचार —
समझा किये
सुख-स्वर्ग का संसार।
पृथ्वी का महत् वरदान,
सम्भव कामनाओं का
चरम सोपान।

जन्म सार्थकता —
सतत उपभोग-मादकता।
अमित रस-सृष्टि —
जीवन-दृष्टि।

किन्तु
जगत् यथार्थ
कितना भिन्न !
सपनों में रचाया लोक
रेशम-सी नरम चिकनी
बुनावट कल्पनाओं की
तनिक में छिन्न !

कोई
भाग्यशाली
शक्तिशाली
कुछ क्षणों को
कर सका साकार
औचट
या कि कर अपहार !
औरों के लिए
केवल
विसंगति
आत्म-रति।

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(14) गन्तव्य-बोध
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हमने
उस दिन
ब्राह्म-मुहूर्त में
बड़े उत्साह से
अपनी यात्रा .....अविच्छिन्न यात्रा
शुरू की थी,
यह सोच कर
कि मंज़िल पर पहुँचेंगे
निश्चित पहुँचेंगे।

हमने
उस दिन
रात के धुँधियारे में
बड़े विश्वास से
अपनी यात्रा ..... निरन्तर यात्रा
शुरू की थी,
यह सोच कर
कि साहिल पर पहुँचेंगे
संशयहीन...पहुँचेंगे।

ऊबड़-खाबड़ राह से
गुज़रते हुए,
गहरे-गहरे गड्ढ़ों की
थाह लेते हुए
हम अपनी यात्रा पर
निश्चल मन से —
चल पड़े थे।

माना कि
जगह-जगह
अनेक व्यवधान अड़े थे
खड़े थे,
टूटन थी
फिसलन थी।

हमारी गति को
आँधियों ने रोका,
बार-बार
वज्रवाही बादलों ने टोका !
पर, हम रुके नहीं,
वैपरीत्य के सम्मुख
झुके नहीं।

क्रमशः
हमारा पथ प्रशस्त हुआ;
और हम
एक दिन
धड़कते दिल से
पड़ाव पर पहुँचे !

थक कर चूर
शिथिल
मजबूर
जड़ता-बद्ध।

क्रमशः
अहसास जगता है:
मंज़िल अंत नहीं,
आधार है
प्रवेश-द्वार है
जीवन की रंगभूमि है —
कर्मभूमि है !

उसे स्वप्न-भूमि समझने की
भूल क्यों की ?

इससे तो बेहतर था
उसी बिन्दु पर बने रहना
जहाँ से यात्रा शुरू की थी।

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(15) विराम
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कर चुकी ज़िन्दगी
दूरियाँ तय !

चीखती / हाँफ़ती
ज़िन्दगी कर चुकी
अनगिनत
ऊध्र्व ऊँचाइयाँ
ग़ार गहराइयाँ तय !

थम गया
भोर का / शाम का
गूँजता शोर,
गत उम्र की राह पर
थम गया !
आह बन
शून्य में हो गया लय !
कर चुकी ज़िन्दगी
मंज़िलें तय !

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(16) सामर्थ्य-भर
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जीवन —
मात्रा एक यात्रा है,
अनन्त राह पर
अन्तहीन यात्रा है !

विश्रांति-हेतु
क्षण-भर रुकना
आगे बढ़ने का
केवल उपक्रम है।
मंज़िल दूर,
बहुत दूर,
समय कम,
बेहद कम है !

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(17) स्थिति
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समेटे सिमटता नहीं
बिखराव !
नहीं है दिशा का पता
भटकाव !
जटिल से जटिलतर हुआ
उलझाव !
हुआ कम न, बढ़ता गया
अलगाव !

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(18) आदमी
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आज
जंगल के
भयावह हिंस्र आदमखोर पशुओं से
सुरक्षित
आदमी।

ऋतुओं के
विनाशक तेवरों से
है न किंचित्
भीत, आशंकित व चिन्तित
आदमी।

प्रकृति के
नाना प्रकोपों से
स्वयं को,
अन्य जीवों को
बचाना जानता है
आदमी।

शून्य की
ऊँचाइयों पर
जा पहुँचना
है सरल उसको।
सिन्धु की
गहराइयों की
थाह लेना
है सहल उसको।

किन्तु अचरज !
आदमी है
आदमी से आज
सर्वाधिक अरक्षित,
आदमी के ही
मनोविज्ञान से
बिल्कुल अपरिचित।

भयभीत
घातों से
परस्पर।
रक्ताक्ष
आहत
क्रुद्ध
ज़हरी व्यंग्य बातों से
परस्पर।

टूट जाता आदमी —
आदमी के
क्रूर
मर्मान्तक प्रहारों से,
लूट लेता आदमी —
आदमी को
छल-भरे
भावों-विचारों से।

आदमी —
आदमी से आज
कोसों दूर है,
आत्मीयता से हीन
बजता खोखला
हर क़दम
सिर्फ़ ग़रूर है।

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(19) उत्तर
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नहीं किंचित् बनूंगा
दीन,
या
ग़मगीन।
क्षति स्वीकारता हूँ !

धूर्त —
गुप-चुप
रच रहे षड्यंत्र,
बैठे हैं लगाए घात,
कैसे कर लिया
तुमने
अनोखा फ़ैसला
सुन
एकतरफ़ा बात ?

तुमसे
है नहीं अनुनय-विनय
धिक्कारता हूँ !
यों कभी भी
हो न सकता हीन !
क्षति स्वीकारता हूँ !

अपने
चाटुकारों की
विगर्हित क्षुद्र
इच्छा-पूर्ति के हित,
कर दिया तुमने
क्षणिक अधिकार से वंचित ?
तुम्हारे
मसख़रे निर्लज्ज
गंदे खल घिनौने
रूप को
दुत्कारता हूँ !

जान लो
अच्छी तरह पहचान लो —
होता नहीं इससे
तनिक भी क्षीण !
क्षति स्वीकारता हूँ !

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(20) प्रतिरोध
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विकास-राह रुद्ध ;
जाति-युद्ध।

वंश-दर्प
बन गया कराल काल-सर्प।
दंश
तीव्र दंश,
सृष्टि के महान् जीव का
अथाह भ्रंश।

क्षुद्र संकुचित हृदय
उगल रहा ज़हर
कि ढा रहा क़हर !

मनुष्यता लहू-लुहान,
जातुधान गा रहा —
असार द्वेष-युक्त
जाति-गान।
क्रूर
गर्व-चूर,
सभ्यता-विहीन
आत्म-लीन ।

बढ़ो, बढ़ो !
पशुत्व के अधीन
इस मनुष्य के
उगे विषाण
और धारदार दाँत
तोड़ने !
अमानवीय
जात-पाँत तोड़ने,
समाज और व्यक्ति को
सशक्त एक सूत्रा में
अटूट जोड़ने।

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(21) पतन
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देश में
विशाल रूप में
उमड़ रहा
उफ़न रहा —
जाति-द्वेष : धर्म-द्वेष
वर्ण-भेद : जन्म-भेद
मैल ! मैल ! मैल !
गर्द ! गर्द ! गर्द !

तीव्र मानसिक तनाव
शत्राु-भाव।

है विषाक्त हर दिशा,
निगल रही विवेक को
अशुभ गहन घृणा-निशा।

सतर्क और भीत
व्यक्ति-व्यक्ति से।
हो रहा प्रतीत —
लौट आ रहा
अतीत !

हिंस्र जंगली,
ब-ख़ूब
चल रही
समाज में
तथाकथित कुलीन
जाति-दर्प धाँधली।

मनुष्य :
जाति-धर्म-वर्ण-जन्म से विभक्त
दब रहा निरीह
मिट रहा अशक्त।
शर्म ! शर्म ! शर्म !
निंद्य ! निंद्य ! निंद्य !

मन-मुटाव
छल-कपट
दुराव।

सावधान !
धैर्यवान नौजवान !
जाति-द्वेष-भावना-प्रवाह से,
क्रूर जातिगत गुनाह से
सावधान !
वर्ण-जन्म धारणा
प्रभाव से,
एकता-विनाशिनी
विलग-विचारणा
प्रभाव से,
सावधान,
नौजवान !

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(22) विचित्र
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यह कितना अजीब है !
आज़ादी के
तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का
आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !

सर्वत्र
धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?

धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में
उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है,
परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !

शासन
अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है !
(खोटा नसीब है !)
लगता है —
परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है !
किन्तु आज
यह सब
कितना अजीब है !

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(23) त्रासदी
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ग़रीब था
अछूत था
डर गया !

भूख से
मार से
मर गया !

शोक से
लोक से
तर गया !

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(24) कुफ्र
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लाश
जल रही
मसान में
किसी ग़रीब की,
बद-नसीब की !

कुटुम्ब
स्तब्ध...सन्न,
विप्र अति प्रसन्न !
मृत्यु-भोज
ऐश-मौज !

किन्तु
नौजवान आज
ढोंग सब बहा
धता बता रहा,
पुरोहिती
मिटा रहा,
बदल रहा गरुड़-पुराण,
प्रेत-कर्म का विधान।

विप्र खिन्न,
चीखता
कलियुगी... कलियुगी !

वस्तुतः
यही
नये समाज की
विराट सुगबुगी !

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(25) आह्नान
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रहो मत मूक,
की नहीं तुमने
कहीं,
कोई चूक।
बोलो बात —
बेलाग
खरी
दो-टूक।

सत्य को
तुमने सदा
सत्य कहकर ही
पुकारा।
इसमें —
है नहीं अपराध
कोई भी
तुम्हारा।

किन्तु
जिसने सत्य को
हठधर्मिता से
झूठ ठहराया,
वास्तविकता की
उपेक्षा की,
वंचना का धर्म
अपनाया —

उस धूर्त के सम्मुख
मत रहो खामोश !
अभिव्यक्त कर आक्रोश
गरजो,
पुरज़ोर गरजो !
अनीति-विरुद्ध
प्रज्ञा-प्रबुद्ध !

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(26) विश्वस्त
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सतत संघर्ष-रत
सर्वहारा,
ज़िन्दगी
बदली नहीं।
अडिग अनथक अकेला
सर्वहारा,
स्थिति
यथावत्
सुधरी नहीं, सँभली नहीं।

व्यवस्था को
निरन्तर
और अंतिम साँस तक
दलित देगा चुनौती,
याद रक्खो
तड़पती घायल
लहू-मुख चीखती
जनता नहीं सोती !

विद्रोह का संकल्प
मर्मान्तक प्रहारों से
कम नहीं होता,
प्रतिबद्ध को
क्षति का, पराजय का
ग़म नहीं होता !

आवेश का सैलाब
आएगा !
पाशव अमानुष वर्ग के
मज़बूत दुर्गों को
ढहाएगा !

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(27) अनाहत
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चक्रवातों के
थपेड़ों से घिरा
इंसान,
बन गया चट्टान !

जूझता है
बार-बार,
बुलन्द हिम्मत से
सुदृढ़
आयत्त आस्थावान !

कर रहा पहचान
घातों से
प्रहारों से
गरजती
अग्नि-धारों से,
नहीं हैरान।

बढ़ता गया
अन्तिम विजय
विश्वास,
गढ़ने
नया इतिहास।

अपराजेय
जीवन का —
अदम्य
प्रबल
मनोबल,
फूँकता जंगल,
बनाता
ज़िन्दगी का
नव धरातल।

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(28) जनवादी
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अनुचित करेंगे नहीं,
अनुचित सहेंगे नहीं!

अधिकार-मद-मत्त
सत्ता-विशिष्टो !
तुम्हारी सफल धूर्तता
और चलने न देंगे।

परलोक
या
लोक-कल्याण के नाम पर
व्यक्ति को
और छलने न देंगे।

मानव
अनाचार-नरकाग्नि में
अब दहेंगे नहीं।
स्वैरवर्ती
निरंकुश
नये विश्व में
शेष
निश्चित रहेंगे नहीं।

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(29) एकजुट
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मिलेगी
हमें जीत हरदम,
मिला कर
चलेंगे
क़दम से क़दम !
समता समर्थक
जनवाद साधक
अंतिम चरण तक
रहेंगे समर-रत,
न होंगे कभी नत !
बढ़ेंगे
मिला कर
क़दम से क़दम,
एकजुट शक्ति
विश्वास
होगा न कम !

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(30) संक्रमण
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यह नहीं होगा —
बंदूक की नोक
सचाई को दबाये रखे,
आदमी को
आततायी के पैरों पर
झुकाये रखे,
यह नहीं होगा !

पशुता की गुलामी
अनेकों शताब्दियाँ
ढो चुकी हैं,
लेकिन अब
ऐसा नहीं होगा !

यातनाओं की किरचें
भोथरी हो चुकी हैं,
क्या तुम नहीं देखते —
क्रूर जल्लादों की
वहशी योजनाओं की
बुनियादें हिल रही हैं ?
मौत की
काल-कोठरी बने
हर देश को
ज़िन्दगी की
हवा और रोशनी
मिल रही है !

घिनौनी साज़िशों का
पर्दा उठ गया है,
सारा माहौल ही
अब तो नया है !

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(31) मज़दूरों का गीत
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मिल कर क़दम बढ़ाएँ हम
जय, फिर होगी वाम की !

शोषित जनता जागी है
पीड़ित जनता बाग़ी है
आएँ, सड़कों पर आएँ,
क्या अब चिंता धाम की !

ना यह अवसर छोड़ेंगे
काल-चक्र को मोडेंगे
शक्लें बदलेंगे, साथी
मूक सुबह की, शाम की !

नारा अब यह घर-घर है
हर इंसान बराबर है
रोटी जन-जन खाएगा
अपने-अपने काम की !

झेलें गोली सीने से
लथपथ ख़ून-पसीने से
इज़्ज़त कभी घटेगी ना
‘मेहनतकश’ के नाम की !

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(32) श्रमजित्
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घर-घर नया सबेरा लाने वाले हम
दुनिया को रंगीन बनाने वाले हम !

कलियों को मधु-गंध दिलाने वाले हम
कंठों में नव-गान बसाने वाले हम !

पैरों में झनकार भरी हमने-हमने
जीवन में रस-धार भरी हमने-हमने !

आँखों में सुन्दर स्वप्न सजाये हमने
भोर बसन्त-बहार भरी हमने-हमने !

हम जीवन जीने योग्य बनाने में रत
‘श्रम ही है पुरुषार्थ’ हमारा ऐसा मत !

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(33) वर्षान्त पर
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"प्रिय भाई,
बधाई !

नव-वर्ष
सत्फल भाग्यशाली हो,
अत्यधिक सुख दे
अमित सम्पन्नता दे
विपुल यश दे
रस-कलश दे !"

मित्रों की
सहज
या
औपचारिक
ये अनेकानेक
मंगल कामनाएँ
और सुन्दर भावनाएँ
वर्ष-भर
छलती रहीं,
सौभाग्य को
दलती कुचलती रहीं !

सुख को —
तरसता ही रहा,
सम्पन्नता पाने —
कलपता ही रहा,
यश के लिए —
उत्सुक तड़पता ही रहा,
रस की
छलकती मधुर
कनक-कटोरियों को
मन ललकता ही रहा !

नव-वर्ष का
जैसा
किया था आगमन-उत्सव,
नहीं
वैसी बिदाई !
क्या कहें कुछ और
प्रिय भाई !

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(34) विसंगति
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हम
आधुनिक नहीं,
किन्तु युग ‘आधुनिक’ है !
(कथन अलौकिक है !)

यद्यपि
तन अत्याधुनिक लिबास धारे,
किन्तु
मन जकड़े हैं हमारे
रूढ़ियों
अंध-विश्वासों से,
गतानुगत परम्पराओं
असंगत अर्थहीन प्रथाओं
आदिम संस्कारों से,
हस्त-रेखाओं
सितारों से !

मानसिकता हमारी
प्रागैतिहासिक है,
किन्तु युग ‘आधुनिक’ है !

आधुनिकता: मात्रा मुखौटा है
हमारे
दक़ियानूसी चेहरों पर,
आधुनिकता:
जगर-मगर करता
खोटा गोटा है
कोठियों पर
घरों पर।

हमारा पुराणपंथी चिन्तन
हमारा भाग्यवादी दर्शन
धकेलता है हमें
पीछे... पीछे... पीछे
अतीत में
सुदूर अतीत में
असामयिक मृत व्यतीत में।

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं
हमारे पास;
किन्तु
वैज्ञानिक दृष्टि नहीं,
दृष्टिकोण नहीं —

(स्थिति यह
कोई उपेक्षणीय
गौण नहीं।
अद्भुत है,
अश्रुत है।)

लकीर के फ़कीर हम
आँख मूँद कर चलते हैं,
अपने को आधुनिक कह
अपने को ही छलते हैं !

कहाँ है
नये ज़माने का
नया इंसान ?
मूर्ख महन्तों को
पुजते देख
अक्ल है हैरान !

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(35) प्रजातंत्र
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जिसका
उपद्रव-मूल्य है
वह पूज्य है !
जिसका
जितना अधिक उपद्रव-मूल्य है
वह उतना ही अधिक पूज्य है !
अनुकरणीय है !
अधिकांग है,
और सब विकलांग हैं !

वंदनीय है !
जो मदान्ध है
जो कामान्ध है
क्रूर कामान्ध है
आदरणीय है,
उच्च आसन पर
सुशोभित
श्रेष्ठ समादरणीय है !

जो जितना मुखर
और लट्ठ है
जो जितना कड़ुआ मुखर
और जितना निपट लट्ठ है
उसके
पीछे-आगे
दाएँ-बाएँ
ठट्ठ हैं !
उतने ही
भारी भड़कीले ठट्ठ हैं !

उसका गौरव
अनिर्वचनीय है,
उसके बारे में
और
क्या कथनीय है !

---------------------------------
(36) लालसा
---------------------------------

हम खाते नहीं,
केवल पेट भरते हैं,
चरते हैं।
(नियति है यह,
हमारी।)
खाते
तुम हो।

सृष्टि के
सर्वोत्तम पदार्थ
(हमारे लिए गतार्थ !)

विधाता के
सकल वरदान
संचित कर लिए
तुमने अपने लिए,
वंचित कर हमें।
(प्रकृति है यह,
तुम्हारी।)

न होगा बाँस
न बजेगी बाँसुरी
न होगा दाम
न परसेगी
माँ, सुस्वादु री !
मात्रा देखेंगे
या
कथाओं में सुनेंगे,
मूक मजबूर —

(बादाम-काजू-पिश्ते,
अंगूर,
खीर-मोहन, रस-गुल्ले-रबड़ी।
हम से दूर !)

---------------------------------
(37) भोर
---------------------------------

सृष्टि का कम्बल
हटाता
आ रहा है भोर !

करता अनावृत
सुप्त नग्न पहाड़ियों को,

सकपकाता —
युगनद्ध
झबरीली
झपकती झाड़ियों को।
वे अरे, जाएँ कहाँ
किस ओर !

नटखट भोर की
इस बाल-क्रीड़ा पर
कर रहे
पशु और पक्षी शोर !

---------------------------------
(38) अ-तटस्थ
---------------------------------

पत्तों के घूँघट में
अपने को
भरसक ढाके
गोरी गोभी !
बेरहमी से
काट गया रे
कल्लू लोभी !

जो पालक
वह भक्षक
कितना छल ?
कहता —
सब्ज़ीमंडी में
बेचूंगा कल !
चल चल
मेरी हँसिया चल !

---------------------------------
(39) एब्सर्ड कविता
---------------------------------

(1)
बिल्ली रस्ता काट गयी
हँडिया कुतिया चाट गयी
औरत घर से घाट गयी
कविता, हाय ! सपाट गयी !
(2)
बिल्ली रोयी ज़ार-ज़ार
कुतिया कूदी बार-बार
औरत भटकी द्वार-द्वार
सारी-सारी तार-तार
कविता लिक्खी धार-दार !
(3)
बिल्ली-चुहिया ठाना वैर
कुतिया आयी जल में तैर
औरत निकली करने सैर
अपनी आज मनाओ ख़ैर
कविता ऐसी — सिर ना पैर !

---------------------------------
(40) श्रद्धांजलि
---------------------------------

बेघरबार रहकर भी दिया आश्रय, फ़कीरों की तरह
फ़ाक़ामस्त रहकर भी जिये आला अमीरों की तरह
अंकित हो गये तुम मानवी इतिहास में कुछ इस क़दर
आएगा तुम्हारा नाम होंठों पर नज़ीरों की तरह !

चमके तम भरे विस्तृत फ़लक पर चाँद-तारों की तरह,
रेगिस्तान में उमड़े अचानक तेज़ धारों की तरह,
पतझर-शोर, गर्द-गुबार, ठंडी और बहकी आँधियाँ
महके थे तुम्हीं, वीरान दुनिया में, बहारों की तरह !

(महाप्राण निराला की स्मृति में।)

---------------------------------
(41) सर्वहारा का वक्तव्य
---------------------------------

लोग
हमारी भाषा में
बोल रहे हैं,
यह सच है।

सारे वे ख़ौफ़नाक शब्द
आज गूँज रहे हैं
संसद में
नेताओं के वक्तव्यों में
यह सच है !

अरे, हमारे नारे
लगा रहे तुम भी ?
अचरज
पर, सच है।

हलचल / तत्परता
आज अचानक
लोग
हमारे अर्गल
खोल रहे हैं,
यह सच है।

आला-आला अफ़सर
आज
अँधेरी झोपड़ियों में
जा-जा
दुख दर्द हमारे
पहली बार
टटोल रहे हैं,
यह सच है।

लगता है —
‘क्रांति’ उभर आयी है !
गाँवों में
नगरों में
‘जनवादी’ फ़ौज़
उतर आयी है !
कैसा अद्भुत
जन-आन्दोलन है !
सत्ता-लोलुप नेताओं में
रातों-रात
हुआ परिवर्तन है !

अथवा
यह स्व-रक्षा हित
केवल आडम्बर है,
छल-छद्म भरा
मिथ्या संवेदन-स्वर है।

---------------------------------
(42) अभूतपूर्व
---------------------------------

ऐसा
कभी हुआ नहीं —
पंगु हो गये हों शब्द,
पैरों वाले शब्द
चलने-दौड़ने वाले शब्द,
एक नहीं
अनेक-अनेक शब्द !

ऐसा
कभी हुआ नहीं —
निरर्थक हो गये हों
शब्द,
विविध भंगिमाओं वाले
विविध अर्थ-गर्भी शब्द,
ऐसे खोखले हो गये हों,
बेअसर
मात्र चिन्ह-धर !

शब्द
बैसाखी लगाकर नहीं चलते,
उनके पदों में
पंख होते हैं,
सुदूर असीम आकाश में
सौ-सौ गज़ उछलते हैं !
गहनतम खाइयों को
लाँघ जाते हैं,
बार-बार
अनमोल माणिक
बाँध लाते हैं !

ऐसे शब्द
ऐसे तीव्रगामी शब्द
ऐसे तिमिर-भेदी शब्द
कभी हुआ नहींµ
लँगड़ा गये हों,
चकरा गये हों
ठंडा गये हों !

समूची ज़िन्दगी की
घनीभूत पीड़ा भरे
शब्द,
इस क़दर
छूँछे हो गये हों !
बे-तरह
हवा में खो गये हों !

---------------------------------
(43) आश्वास
---------------------------------

घने कुहरे ने
ढक लिया आकाश,
घने कुहरे ने
भर लिया आकाश !

रास्ते सब बन्द हैं,
जीवन निस्पन्द है !
कितना
सिकुड़ गया है क्षितिज —
चारों ओर का विस्तृत क्षितिज !
धुँधले पर्यावरण में
क़ैद हैं हम,
कितना विषम है
समय की सातत्यता का क्रम !

ध्वनि-तरंगें रुद्ध हैं,
समूची चेतना
भयावह वातावरण में बद्ध है,
सब तरफ़
मात्रा एक
स्थिर अलस मूकता का राज है,
स्तम्भित
सहमा हुआ
समस्त समाज है।

सुनोµ
मैं आता हूँ,
सूरज की तरह आता हूँ !
दृष्टि का आलोक
मेरे पास है,
आत्म-शक्ति का
अक्षय विश्वास है !

अँधेरे के
कुहरे के
पर्वतों को ढहा दूंगा !
मार्ग-रोधक
सब बहा दूंगा !

आकाश
फिर गूँजेगा,
नाना ध्वनियों से गूँजेगा !
प्रकाश
फिर फैलेगा,
उमड़ता
लहरता
धारा-प्रवाह
प्रकाश फैलेगा।

---------------------------------
(44) मुक्त-कण्ठ
---------------------------------

कौन है
जो तुम्हें सच
बोलने नहीं देता ?
कौन है
जो तुम्हें
ज़िन्दगी की असलियत
खोलने नहीं देता ?
कौन है हावी
तुम्हारी चेतना पर ?
किसने
बाँध दी हैं शृंखलाएँ
अन्तःप्रेरणा पर ?

किसने
दबोच रखा है, भला
तुम्हारा गला ?

चेहरे पर अंकित
रेखाएँ घुटन की,
डबडबायी आँखें
चीखती —
निरीहता मन की !

कब तलक
रहेगा सूखा हलक़ ?

आवाज़ —
भर्रायी हुई आवाज़
बोलती है,
कितना स्पष्ट
सब बोलती है !

नहीं,
यह बंध शिथिल हो,
हर धड़कन पर शिथिल हो !
कंठ मुक्त हो,
उन्मुक्त हो !
बोलो —
जकड़न टूटेगी !
शब्द-शब्द से
रोशनी फूटेगी !

---------------------------------
(45) संधान
---------------------------------

इस बीच:
जीये किस तरह —
हम ही जानते हैं !
कितना भयावह था
लहरता-उफ़नता-टूटता
सैलाब —
हम ही जानते हैं !

अर्थ:
जीवन का: जगत् का
गूढ़ था जो आज तक
अब हम
उसे अच्छी तरह से
हाँ,
बहुत अच्छी तरह से
जानते हैं !

असंख्य परतों को लपेटे
आदमी
अब पारदर्शी है,
भीतर और बाहर से
उसे हम
सही,
बिलकुल सही
पहचानते हैं !

आओ, तुम्हें —
हाँफ़ते,
दम तोड़ते
तूफ़ान की गाथा सुनाएँ !
जलती ज़िन्दगी से जूझते
इंसान की गाथा सुनाएँ !

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रचना-काल : सन्1972-1976
प्रकाशन-वर्ष : सन्1984
प्रकाशक : किताब महल, इलाहाबाद, उ.प्र.

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

डॉ0 महेन्द्रभटनागर का काव्य-संग्रह == अनुभूत-क्षण

डा0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह === अनुभूत-क्षण
===============================



1 प्रेय
2 भाग्य-विरुद्ध
3 संघर्ष
4 अनुभव-सिद्ध
5 सावधान
6 इच्छित
7 अदम्य
8 सार्थकता
9 जीवन
10 प्रतिक्रिया
11 शुभकामनाएँ
12 यथार्थ : आदर्श
13 साहस
14 कारगिल प्रयाण पर
15 हमारा गौरव
16 निष्फल
17 दीप्र
18 संकल्पित
19 अभिलषित
20 बसंती हवा
21 कुहराच्छादित नभ
22 शीतार्द्र
23 हेमन्त
24 निष्कर्ष
25 तुम ...
26 प्रतीक
27 तुम
28 सुख-बोध
29 उपकृत
30 उत्सव
31 असंगत
32 एकाकी
33 अकेला
34 पटाक्षेप
35 विस्मय
36 मर्माहत
37 खंडित मन
38 संन्यास-चेतना
39 संबंध
40 सहवर्ती
41 वेदना
42 अंतिम अनुरोध
43 सलाह
44 दम्भ
45 अभिप्रेत वंचित
46 अप्रभावित
47 आत्म-निरीक्षण
48 वास्तविकता
49 विराम-पूर्व (1)
50 विराम-पूर्व (2)
51 बोध
52 सच है
53 स्वागत 21वीं शती का
54 अभिनन्दित क्षण
55 विजयोल्लास

--------------------------

(1) प्रेय
--------------------------

आस्था - दीप / जलता रहे
सपना एक / पलता रहे
आत्म-साधन के लिए इतना बहुत है !
.

जीवन - चक्र / चलता रहे
यम का पाश / छलता रहे
प्राण - धारण के लिए इतना बहुत है !

--------------------------
(2) भाग्य-विरुद्ध
--------------------------


प्रतिपल जब हिलते हैं
रचना-धर्मी हाथ,
चरणों का मिलता है
जब गति-धर्मी साथ,

तब बनती है तसवीर !
तब बनती है तक़दीर !

--------------------------
(3) संघर्ष
--------------------------

घुटन, बेहद घुटन है !
होंठ.... / हाथ.... / पैर
निष्क्रिय बद्ध
जन - जन क्षुब्ध.... / क्रुद्ध !

प्राण - हर
आतंक - ही - आतंक
है परिव्याप्त
दिशाओं में / हवाओं में !

इस असह वातावरण को
बदलना
ज़रूरी है !
इंसानियत को
बचाने के लिए
हर आदमी का अब सँभलना
ज़रूरी है !

जलन, बेहद जलन है,
तपन, बेहद तपन है !

हर क्षितिज
गहरे धुएँ से है घिरा
आग....
शोले उगलती आग,
लहराती
आकाश छूतीं अग्नि लपटें !
इनको बुझाना
ज़रूरी है !

--------------------------
(4) अनुभव-सिद्ध
--------------------------

तय है कि
काली रात गुज़रेगी,
भयावह रात गुज़रेगी !
असफल रहेगा
हर घात का आघात,
पराजित रात गुज़रेगी !

यक़ीनन हम
मुक्त होंगे
त्रासदायी स्याह घेरे से,
रू--रू होंगे
स्वर्णिम सबेरे से,
अरुणिम सबेरे से !

तय है
अँधेरे पर
उजाले की विजय
तय है !

पक्षी चहचहाएंगे,
मानव प्रभाती गान गाएंगे !

उतरेंगी
गगन से सूर्य-किरणें
नृत्य की लय पर,
धवल मुसकान भर - भर !

तय है कि
संघातक कठिन दु:सह अँधेरी
रात गुज़रेगी !

कुचक्रों से घिरा आकाश
बिफरेगा,
आहत ज़िन्दगी इंसान की
सँवरेगी !

--------------------------
(5) सावधान
--------------------------

अँधेरा है, अँधेरा है,
बेहद अँधेरा है !
घुप अँधेरे ने
सारी सृष्टि को
अपने जाल में / जंजाल में
धर दबोचा है,
घेरा है !

नहीं; लेकिन
तनिक भयभीत होना है,
हार कर मन में
पल एक निष्क्रिय बन
सोना है !
तय है
कुछ क्षणों में
रोशनी की जीत होना है !

आओ
रोशनी के गीत गाएँ !
सघन काली अमावस है
पर्व दीपों का मनाएँ !

तम घटेगा
तम छँटेगा
तम हटेगा !

--------------------------
(6) इच्छित
--------------------------

घूमा बहुत हूँ
घन अँधेरे में,
भटका बहुत हूँ
मन-अँधेरे में !

लिए
तम-राख लथपथ तन,
अविराम घूमा हूँ,
दिन - रात घूमा हूँ !

अब तो
रोशनी की धार में
जम कर नहाऊंगा,
सत्य के
आलोक-झरने में उतर
शेष जीवन-भर नहाऊंगा !

रोशनी में डूब कर
रोशनी में तैर कर
तन बहाऊंगा
मन बहाऊंगा
जी - भर नहाऊंगा !

--------------------------
(7) अदम्य
--------------------------

दूर-दूर तक
छाया सघन कुहर
कुहरे को भेद
डगर पर बढ़ते हैं हम !
.

चट्टानों ने जब-जब
पथ अवरुद्ध किये
चट्टानों को तोड़
नयी राहें गढ़ते हैं हम !
.

ठंडी तेज़ हवाओं के
वर्तुल झोंके आते हैं
तीव्र चक्रवातों के सम्मुख
सीना ताने
पग-पग अड़ते हैं हम !
.

सागर-तट पर टकराता
भीषण ज्वारों का पर्वत
उमड़ी लहरों पर चढ़
पूरी ताक़त से लड़ते हैं हम !
.

दरियाओं की बाढ़ें
तोड़ किनारे बहती हैं
जल भँवरों / आवेगों को
थाम;
सुरक्षा-यान चलाते हैं हम !
.

काली अंधी रात क़यामत की
धरती पर घिरती है जब-जब
आकाशों को जगमग करते
आशाओं के / विश्वासों के,
सूर्य उगाते हैं हम !
मणि-दीप जलाते हैं हम !
.

ज्वालामुखियों ने जब-जब
उगली आग भयावह
फैले लावे पर
घर अपना
बेख़ौफ़ बनाते हैं हम !
.

भूकम्पों ने जब-जब
नगरों गाँवों को नष्ट किया
पत्थर के ढेरों पर
बस्तियाँ नयी
हर बार बसाते हैं हम !
.

परमाणु-बमों / उद्जन-शस्त्रों की
मारों से
आहत भू-भागों पर
देखो कैसे
जीवन का परचम फहराते हैं हम !
चारों ओर
नयी अंकुराई हरियाली
लहराते हैं हम !
.

कैसे तोड़ोगे इनके सिर ?
कैसे फोड़ोगे इनके सिर ?
.

दुर्दम हैं,
इनमें अद्भुत ख़म है !
.

काल-पटल पर अंकित है
'जीवन-अपराजित है !'

--------------------------
(8) सार्थकता
--------------------------

आओ
दीवारों के घेरों
परकोटों से
बाहर निकलें !
अपने सुख-चिन्तन से
ऊपर उठ कर
जग-क्रन्दन को
स्वर-सरगम में बदलें !

मुरझाये रोते चेहरों को
मुसकानें बाँटें,
उनके जीवन-पथ पर
छितराया कुहरा छाँटें !
रँग दें
घनघोर अँधेरे को
जगमग तीव्र उजालों से,

त्रासों और अभावों की
निर्मम मारों से,
हारों को, लाचारों को
ढक दें
लद-लद पीले-लाल गुलाबों की
जयमालों से !

घर-घर जाकर
सहमे-सहमे बच्चों को
प्यारी-प्यारी मोहक किलकारी दें,

कँकरीली और कँटीली परती पर
रंग-बिरंगी लहराती फुलवारी दें !

--------------------------
(9) जीवन
--------------------------

हर आगत पल का
स्वागत है !

मेरे हाथ पकड़
उठता है दिन,
मेरे कंधों पर चढ़
बढ़ता है दिन !

मेरे मन से
अभिनव रचना
करता है दिन,
मेरे तन से
सृष्टि नयी
गढ़ता है दिन !

लड़ मेरे बल पर
जीता है दिन,
क्षण-क्षण मेरे जीने पर
जीता है दिन !

मेरी गति से
सार्थक होता काल अमर,
मैं ही हूँ
अविजित अविराम समर,

मेरे सम्मुख हर
पर्वत-बाधा नत है,
हर आगामी कल का
स्वागत है !

--------------------------
(10) प्रतिक्रिया
--------------------------

अणु-विस्फोट से
जाग्रत महात्मा बुद्ध की बोली

सुनिश्चित शान्ति हो,
सर्वत्र
सद्गति-सतग्रह की कान्ति हो !
सुरक्षित
सभ्यता, संस्कृति, मनुजता हो,
दुनिया से लुप्त दनुजता हो !

मानव-लोक
हिंसा-क्रूरता से मुक्त हो,
परस्पर प्रेम-ममता युक्त हो !
मना पाये नहीं
पशु-बल कहीं भी अब
मरण-त्योहार !

सार्थक तभी
यह ज्ञान का, विज्ञान का
उत्कृष्ट आविष्कार !
अनुपम और अद्भुत
मानवी उपहार !

--------------------------
(11) शुभकामनाएँ
--------------------------

रक्त-रंजित
इस शती का वर्ष अंतिम
शक्ति-पूजा का
तपस्या-साधना का वर्ष हो !

आगत शती में
जय मनुजता की दनुजता पर
सुनिश्चित हो,
प्रत्येक मुख पर
सिद्धि की उपलब्धि का
अंकित
सरल-सुन्दर हर्ष हो !

मानव-हृदय से
दुष्टता, पशुता, निठुरता दूर हो,
हिंसा-दर्प सारा चूर हो;
दृष्टि में ममता भरी भरपूर हो !

हर व्यक्ति दूषित वृत्तियाँ त्यागे,
परस्पर प्रेम हो
सद्भावना जागे !
हर व्यक्ति को हो प्राप्त
नव-बुद्धत्व
मानस-तीर्थ।
आत्मा का सतत उत्कर्ष हो !
शुभ-कामनाओं से भरा नव वर्ष हो !

--------------------------
(12) यथार्थ / आदर्श
--------------------------

जीवन और जगत जैसा हमको प्रत्यक्ष दिखा,
वैसा, हाँ केवल वैसा, हमने निष्पक्ष लिखा !

मानव-समता का स्वप्न, हमारा आदर्श सदा,
जिसको धारण कर, जन-जन जीवन-उत्कर्ष सधा !

प्रतिश्रुत हैं हम, शोषण-रहित समाज बनाएंगे,
प्रतिबद्ध कि हम जगती पर ही स्वर्ग बसाएंगे !

इतिहास बनाने की अभिनव दृष्टि हमारी है,
उत्कृष्ट समुन्नत नव जीवन-सृष्टि प्रसारी है !


--------------------------
(13) साहस
--------------------------

माना, निरीह है आदमी किसी
अनहोनी के प्रति,
चाहे कितना समर्थ हो कोई
पर, जीतती नियति !
क्षण में ढह जाती मानव-निर्मिति
बलवान है प्रकृति,

है लेकिन स्वीकार हर चुनौती
हो जो भी परिणति,

नहीं रुकेगी, मानव ज्ञान और
विज्ञान की प्रगति !

--------------------------
(14) कारगिल-प्रयाण पर
--------------------------

सीमाओं की रक्षा करने वाले वीर जवानो !
दुश्मन के शिविरों पर चढ़ कर भारी प्रलय मचा दो,
मातृभूमि पर बर्बर हत्यारों की बिखरें लाशें
तोपों के गर्जन-तर्जन से दुश्मन को दहला दो !

--------------------------
(15) हमारा गौरव
--------------------------


भारत का चट्टानी सीना है
कारगिल !
टकराएँ चाहे कितने ही
अणु-बम
इसका पाया लेकिन
कभी सकता हिल !

छल और कपट से
लुक-छिप कर घुस आये
दुश्मन को धकियानेवाला
पर्वतराज कारगिल !
नहीं कभी यह हुआ / होगा
गाफ़िल !
बर्बर धोखेबाज़ों की
लाशों का ढेर लगाने वाला
काल - कारगिल !
अब तो भैया
इसका नाम सिर्फ़
दुश्मन का दहलाता दिल !

सीमा का प्रहरी सैनिक है यह
कार - कारगिल !
भारत-माता का स्वस्तिक है यह
कार - कारगिल !

--------------------------
(16) निष्फल
--------------------------

प्रमाणित यह कि
जिसके पास
है अधिकार; है धन
शक्तिशाली
वह।

शक्तिशाली ने
स्वार्थ-साधन में,
वासनाओं की अहर्निश पूर्ति में
दुर्बल-वर्ग को
लूटा - खसोटा,
जिस तरह चाहा
समय भोगा !

हर जगह निर्मित
वैभव-द्वीप उसके,
फैला हुआ है
चक्रवर्ती राज्य उसका,
उसी का गूँजता सर्वत्र
जय-जयकार !

दुष्कर दीखता बनना
शोषण-मुक्त, समता-युक्त
अभिनव विश्व का आकार।
शक्तिशाली
क्यों नहीं बनता
महा मानव,
न्याय-धर्मी लोकप्रिय
अवतार !

--------------------------
(17) दीप
--------------------------

अवशेष स्वयं को कर
दहता जो
जीवन - भर !

दूर-दूर तक
राहों का
हरता अँधियारा,
अन्तर - ज्वाला से
घर - घर
भरता उजियारा :

उसके सर्वोत्तम सक्षम
प्रतिनिधि हम,
तम-हर ज्योतिर्गम !

--------------------------
(18) संकल्पित
--------------------------

प्रज्ज्वलित-प्रकाशित
दीप हैं हम !
सिर उठाये,
जगमगाती रोशनी के
दीप हैं हम !
वेगवाही अग्नि-लहरों से
लहकते चिन्ह-धर,
ध्रुव-दीप हैं हम !

शांत प्रतिश्रुत
दृढ़ प्रतिज्ञाबद्ध
छायी घन-अँधेरी शक्ति का
पीड़न-भरा
साम्राज्य हरने के लिए,
सर्वत्र
नव आलोक-लहरों से
उफ़नता ज्वार
भरने के लिए !

हमारा दीप्त
द्युति-अस्तित्व
करता लोक को आश्वस्त,
जन-समुदाय की प्रत्येक आशंका
विनष्ट-निरस्त !
भर उठता
सहज हर्षानुभूति से
हर दबा भय-त्रस्त !
होता एक क्षण में
रुद्ध मार्ग प्रशस्त !
प्रतिबद्ध हैं हम
व्यक्ति के मन में
उगी-उपजी
निराशा का, हताशा का
कठिन संहार करने के लिए !
हर हत हृदय में
प्राणप्रद उत्साह का
संचार करने के लिए !

--------------------------
(19) अभिलषित
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दिन भर
धरती पर लेटी पसरी
रेशम जैसी
चिकनी-चिकनी दूब से,
आँगन में उतरी
खुली-खुली
फैली बिखरी
हेमा-हेमा धूप से,
यह अलबेला
एकाकी
जम कर खेला !
दिन भर खेला !

दिन भर
ताजे टटके गदराए
फूलों की छाँह में,
हरिआए - हरिआए
शूलों की बाँह में,
उनकी मादक-मादक गंधों में
अटका-भटका;
ऊला-भूला !
शर्मीली-शर्मीली भोली
कलियों की,
लम्बी-लम्बी पतली-पतली
फलियों की,
डालों-डालों झूला !
लिपट-लिपट कर
टहनी-टहनी पत्ती-पत्ती झूला !
दिन भर झूला !

दिन भर
सुन्दर रंगों छापों वाली साड़ी पहने
उड़ती मुग्धा तितली पर,
वासन्ती रंग-रँगी
मदमाती प्रेम-प्रगल्भा
प्रौढ़ा सरसों पर,
जी भर राँचा,
संग-संग खेतों-खेतों नाचा !
दिन भर नाचा !

दिन भर
इमली के / अमरूदों के पेड़ों पर
चोरी-चोरी डोला,
झरबेरी के कानों में
जा-जा,
चुपके-चुपके
जाने क्या-क्या बोला !
दिन भर डोला !

--------------------------
(20) बसंती हवा
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तन को
छूती गुज़री
जो मतवाली युवा हवा
इतनी अच्छी
पहले कभी
, सचमुच, मुझे लगी !

मन को
ठंडक पहुँचाती गुज़री
जो मदहोश हवा
ऐसी मोहक
पहले कभी
, सचमुच, मुझे लगी !

बिलकुल अपनी सगी-सगी,
बेहद.... बेहद प्यार पगी,
ठगने आयी थी; स्वयं ठगी !

लिपट-लिपट कर
बाहों - बाहों झूली,
सिहर-सिहर कर
झूमी,
सुधबुध भूली !

वस्त्रों से खेली,
केशों से खेली,
अंग - अंग से खेली !
ईश्वर जाने !
अल्हड़पन में
कितनी मदगंधा ले ली !

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(21) कुहराच्छादित-नभ
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पड़ा हुआ है कम्बल ओढ़े
पसरा-पसरा जागा अम्बर !
.

दिन चढ़ आया कितना; फिर भी
हिलने का लेता नाम नहीं,
केवल सोना - सोना; इसका,
किंचित भी कोई काम नहीं,
ठंड अधिक का किये बहाना
पक्का बना हुआ घन-चक्कर !
.
गर्म दुपहरी आने पर अब
लगता, सचमुच, कुछ हिला-डुला,
दूर क्षितिज की सीमाओं पर
दिखता कम्बल भी खुला-खुला,
तनिक क्षणों में, बाँधेगा लो
सारा अपना बोरा-बिस्तर !

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(22) शीतार्द्र
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उतरी धीमे-धीमे
फिर-फिर ओस रात-भर !

हिम-शीतल सन्नाटा
छाया सुप्त धरा पर,
फूलों - पत्तों नाची
प्रीति-पुतरिका बनकर,
कारीगर कुहरे ने
किया सृजन कनात-घर !

यहाँ-वहाँ जगह-जगह
बिखरे जल-कण हीरे,
घात लगाये फिरते
पवन झकोरे धीरे,
पहरेदार सरीखा
जागा, हर प्रपात, झर !

ख़ूब जमी है महफ़िल
अध्यक्ष बनी रजनी,
प्रिय को कस कर बाँधे
जागी-सोयी सजनी,
किसी दिशा में दबका
बैठा, नव प्रभात, डर !

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(23) हेमन्त
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भीगी-भीगी भारी रात,
नींद आती सारी रात !

घोर अंधेरा चारों ओर
दूर अभी तो लोहित भोर
थमा हुआ है सारा शोर
ऐसे मौसम में चुप क्यों हो,
कहो कोई मन की बात !

कुहरा बरस रहा चुपचाप
अतिशय उतरा नभ का ताप
व्योम-धरा का मौन मिलाप
ऐसे लमहों में पास रहो,
थर-थर काँपेगा हिम गात !

नीरवता का मात्र प्रसार
तरुदल हिलते खेतों पार
जब-तब बज उठते हैं द्वार
खोल गवाक्ष झाँको बाहर,
मादक पवन लगाये घात !

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(24) निष्कर्ष
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ज़िन्दगी में प्यार से सुन्दर
कहीं
कुभी भी नहीं !
कुछ भी नहीं !

जन्म यदि वरदान है तो
इसलिए ही, इसलिए !
मोह से मोहक सुगंधित
प्राण हैं तो इसलिए !

ज़िन्दगी में प्यार से सुखकर
कहीं
कुछ भी नहीं !
कुछ भी नहीं !

प्यार है तो ज़िन्दगी महका
हुआ इक फूल है !
अन्यथा; हर क्षण, हृदय में
तीव्र चुभता शूल है !

ज़िन्दगी में प्यार से दुष्कर
कहीं
कुछ भी नहीं !
कुछ भी नहीं !

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(25) तुम....
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जब - जब
मुसकुराती हो
बहुत भाती हो !
तुम
हर बात पर क्यों
मुसकुराती हो !

जब - जब
सामने जा स्वच्छ दर्पण के
सुमुखि !
शृंगार करती हो,
धनुषाकार भौंहों - मध्य
केशों से अनावृत भाल पर
नव चाँद की
बिन्दी लगाती हो,
स्वयं में भूल
फूली ना समाती हो
बहुत भाती हो !

नगर से दूर जा कर
फिर
नदी की धार में
मोहक किसी की याद में
दीपक बहाती हो
बहुत भाती हो !
मुग्धा लाजवंती तुम
बहुत भाती हो !
जब बार - बार
मधुर स्वरों से
मर्म-भेदी
चिर-सनातन प्यार का
मधु - गीत गाती हो
पूजा - गीत गाती हो
बहुत भाती हो !

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(26) प्रतीक
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अर्ध्द-खिले फूलों का
सह-बंधन
तुम
मेरे कमरे में रख
जाने कब
चली गयीं !
जैसे
चमकाता किरणें
कई-कई
अन-अनुभूत अछूते
भावों का दर्पण
तुम
मेरे कमरे में रख
जाने कब,

अपने हाथों
छली गयीं !

जीवन का अर्थ
अरे
सहसा बदल गया,
गहरे-गहरे गिरता
जैसे कोई सँभल गया
भर राग उमंगें
नयी-नयी !
भर तीव्र तरंगें
नयी-नयी !

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(27) तुम...
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गौरैया हो
मेरे ऑंगन की
उड़ जाओगी !

आज
मधुर कलरव से
गूँज रहा घर,
बरस रहा
दिशि - दिशि
प्यार - भरा
रस - गागर,
डर है
जाने कब
जा दूर बिछुड़ जाओगी !

जब - तक
रहना है साथ
रहे हाथों में हाथ,
सुख - दुख के
साथी बन कर
जी लें दिन दो - चार,
परस्पर भर - भर प्यार,
मेरे जीवन - पथ की पगडंडी हो
जाने कब और कहाँ
मुड़ जाओगी !


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(28) सुख-बोध
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बड़ी प्रतीक्षा के बाद खिले हैं
गमले में फूल,
पीले - पीले पुलकित फूल
झबरीले गेंदे के
टटके फूल !

बड़ी प्रतीक्षा के बाद खिले हैं
जीवन में फूल,
कोमल - कोमल गद गद् फूल,
मादन - मन भावों के
मादक फूल !
बड़े दिनों के बाद
मिले हैं
सावन - भादों के उपहार,
बड़े दिनों के बाद
सजे हैं
दरवाज़ों पर बंदनवार !

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(29) उपकृत
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इन फूलों ने
मेरे घर - ऑंगन में
ख़ुशबू भर दी है,
एकाकी बोझिल
जीवन की
सारी तनहाई
हर ली है !
इन फूलों को
खिलने दो,
डालों पर
हिलने दो !

मेरे जर्जर तन से
ऊसर मन से
भावाकुल
मिलने दो !

इन फूलों ने
जग के ऑंगन को
महकाया है,
रंग - बिरंगी आभा से
लहकाया है !

इन फूलों को
खिलने दो,
डालों के झूलों पर
हिलने दो !

दुनिया-भर के लोगों से
हँस-हँस मिलने दो,
लिपट-लिपट कर
मिलने दो !

इन फूलों ने
भयंकर धरती
मनहर कर दी है,
हाँ, हाँ.....
नाना प्रेम-प्रसंगों से
भर दी है !

इन फूलों को
पर्वत - पर्वत
खिलने दो,
मरुथल - मरुथल
खिलने दो,
जंगल - जंगल
खिलने दो,
बस्ती - बस्ती
खिलने दो,
घर - घर
दर - दर
खिलने दो !

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(30) उत्सव
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फूलो !
रंग - बिरंगे फूलो !

गमले - गमले फूलो
क्यारी - क्यारी फूलो
आनन्द - मगन हो फूलो !

फूलो !
रंग - बिरंगे फूलो !
डालों - डालों झूलो
भर - भर पेंगें झूलो
मंद हवा में झूलो !

फूलो !
रंग - बिरंगे फूलो !
नव कलियों को छू लो
पत्ती - पत्ती छू लो
हारित चुनरी छू लो !

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(31) असंगत
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निर्जन जंगल में
खिलते-झरते फूलों का,
शूलों की शय्या पर
मूक विकल घायल फूलों का
हार्दिक स्वागत !

रंग - बिरंगे रस - वर्र्षी
रक्तिम फूलों का
उल्लास - भरा / उत्साह - भरा
मन - भावन स्वागत !

ऊबड़ - खाबड़
बाधक
कंटकमय पथ पर
राहत देते फूलों का
अन्तरतम से हार्दिक स्वागत !

लेकिन; केवल
पग - पग चुभते शूलों का अनुभव,
दूर - दूर तक बजता
खड़खड़ कर्कश उनका रव
करता तन आहत,
मन आहत !
हे स्रष्टा !
एकांगी जीवन की रचना से
बचना !

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(32) एकाकी
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भव्य भवनों से भरे
रौशनी में तैरते
सौन्दर्य के प्रतिबिम्ब
इस नगर में
कौन है परिचित तुम्हारा ?
कौन परिचित है ?

जिससे सहज बोलें
मिलें जब-तब.....
हृदय के भेद खोलें !
जिसे समझें
आत्मीय.....विश्वसनीय !
नि:संकोच जिसको
लिखें प्रिय-पत्र,
या दूरवाणी से करें सम्पर्क,

जिसके द्वार पर जा
दें अधिकार से दस्तक
पुकारें नाम !

ऐसा कौन है
परिचित तुम्हारा ?
अजनबी हैं सब,
अपरिचित हैं,
इतने बड़े-फैले नगर में !
कोई-कहीं
आता नहीं अपना
नज़र में !

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(33) अकेला
--------------------------

अब तो, अरे
कोई याद तक करता नहीं,
आता नहीं !

मृत्यु के आगोश में
ज़िन्दगी खामोश है
अब तो, अरे
कोई गीत
मन रचता नहीं,
गाता नहीं !
वाद्य चुप हैं
कोई स्वर
बजता है / उभरता है !

जो थे
बीच पथ में खो गये,
जो हैं
थके - हारे / ऊब - मारे
सो गये !
किसको बुलाएँ,
किसको जगाएँ ?
दुनिया अपरिचित हो गयी,
हम बिराने हो गये !

किसके पास जाएँ,
किसे अपना बनाएँ ?
लीन हैं सब
स्वयं में,
अपने हर्ष में
ग़म में !
नहीं कोई रहा अब संग,
ज़िन्दगी बेरंग !

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(34) पटाक्षेप
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हो गयी शाम !

कोई नहीं आयगा,
भूल जाओ
सभी नाम !
हो गयी शाम !

मत करो रोशनी
अँधेरा भला है,
देख लूँ स्वप्न
हर बार जिसने
छला है !
विवश मूक मन में
पला है !

नहीं शेष
कोई काम !
हो गयी शाम !
सो लूँ
सरे-शाम,
अविराम!
आयाम.....
आयाम!

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(35) विस्मय
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कौन छीन ले गया हँसी फूलों की ?
कौन दे गया अरे, फ़सल शूलों की ?
कौन आह! फिर-फिर कलपाता, निर्दय
याद दिला कर, चिर-विस्मृत भूलों की ?

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(36) मर्माहत
--------------------------

मुँह कड़वा है
घूँटें कैसे भरें ?

जीना लाचारी है
मन बेहद भारी है !
छद्म हँसी से
स्वागत कैसे करें ?

उजड़ा सूखा उपवन
नीरस नीरव जीवन
फूल कहाँ अब ?
पीले पत्ते झरें !

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(37) खंडित मन
--------------------------

विश्वास
टूटता है जब
हिल उठती है धरती
अन्तर की,
अन्दर-ही-अन्दर
अपार रक्त-ज्वार बहता है !

लेकिन
व्यक्ति मौन रह
कुटिल - नियति के
संहारक प्रहार सहता है,
मूक अर्द्ध-मृत
अंगारों की शैया पर
पल-पल दहता है !

चीत्कारों और कराहों की
पृष्ठभूमि पर
मर - मर जीता है,
अट्ठहास भर - भर
काल-कूट पीता है !

विश्वास टूटता है जब,
साथ छूटता है जब !

--------------------------
(38) संन्यास - चेतना
--------------------------

अपनों का
कुटिल विश्वासघाती खेल
जब झेल लेता है
सरल विश्वास-धर्मी आदमी,
तब.....
एकांत में
रोता-तड़पता है,
दुर्भाग्य पर
रह-रह कलपता है !

किन्तु;
हत्या नहीं करता,
आत्म-हंता भी नहीं बनता;
अकेला
मानसिक नरकाग्नि में
खामोश जलता है,
स्वयं को दे असंगत सांत्वना
फिर-फिर भुलावे में भटकता है,
यों ही स्वयं को
बारम्बार छलता है !

उसे बुज़दिल नहीं समझो
जानता है वह
कुछ हासिल नहीं होगा
किसी को कोसने से।
भागना क्या
भोगने से !

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(39) संबंध
--------------------------

विश्वास का जब दुर्ग
ढहता है
आदमी लाचार हो
गहनतम वेदना....
मूक सहता है !

तैयार होता है
निरर्थक ज़िन्दगी
जीने के लिए,
प्रति-दिन
कड़वी घूँट पीने के लिए !

जीवन-शेष दहता है !
विश्वास का जब दुर्ग
ढहता है !

या फिर
आत्म-हंता बन
शून्य में ख़मोश बहता है !
विसर्जित कर अस्तित्व
चुपचाप कहता है

किसी का भी
अरे, विश्वास मत तोड़ो,
विश्वास बंधन है,
विश्वास जीवन है !

--------------------------
(40) सहवर्ती
--------------------------

वेदना-धर्मी तरंगों !
और कितना
और कब-तक
गुदगुदाओगी मुझे ?

कितना और
कब-तक और
बेसाख्ता
हँसाओगी मुझे ?

भुज-बन्ध में भर
और कितनी देर तक
और कितनी दूर तक
अनुरक्त सहयोगी
बनाओगी मुझे ?

वेदना-धर्मी तरंगों !
क्रूर
आहत-चेतना-कर्मी तरंगों !

--------------------------
(41) वेदना
--------------------------

जीवन
निष्फल जाता
सह लेता,
जब-तब
शोकाकुल स्वर से
कविता कह लेता !
लेकिन
रिसते घावों का
पीड़क अनुभव सहना,
जीवन-भर
तीव्र दहकती भट्ठी में
पल-पल दहना
संहारक है
निर्मम हत्या-कारक है !

यह तो
सारा सागर गँदला है,
जाने
कितने-कितने जन्मों का
बदला है !

--------------------------
(42) अंतिम अनुरोध
--------------------------

निर्धन
बेहद निर्धन हूँ,
जाते-जाते
मुझको भी
जीने को
कुछ दे दो !

जो सचमुच
मेरा अपना हो
सुखदायी
मीठा सपना हो !

प्यासा
बेहद प्यासा हूँ,
जाते-जाते
मुझको भी
पीने को
कुछ दे दो !

निर्मल गंगा-जल हो,
झरता मधु-स्रव कल हो !

यों तो
अंतिम क्षण तक
तपना ही तपना है,
यात्रा-पथ पर
छाया तिमिर घना है !

एकाकी
जीवन अभिशप्त बना,
हँसना-रोना सख्त मना !

--------------------------
(43) सलाह
--------------------------

बहुत थके हो तन
हारे अशक्त मन
सो लो !

गुज़री ज़िन्दगी
अजब दुशवार में,
तेज़ चक्रवातों बीच
गूँजते हाहाकार में !

दुखी व्यथित मन,
गहन चोट खाये तन !
खो
याददाश्त,
तनिक स्वस्थ
हो लो !
बहुत थके हो
सो लो !

--------------------------
(44) दम्भ
--------------------------

मुझे :
छत दी / सुरक्षा दी
प्रतिष्ठा दी
एक प्यारा नाम
रिश्ते का दिया
क्या इसलिए
यह कथन चरितार्थ हो
'नफ़रत करो :
पाप-कारक कर्म से ;
पाप-चारी से नहीं ?'

पाप क्या है ?
पुण्य क्या है ?
सत्य क्या है ?

--------------------------
(45) अभिप्रेत-वंचित
--------------------------

जब
वांछित / काम्य / अभीप्सित
नहीं मिला,
जीने का क्या अर्थ रहा ?

कोसों फैले
लह-लह लहराते उपवन में
जब
हृदय-समायी : मन भायी
गंध-भरा
पुलकित पाटल नहीं खिला ;
जीवन-भर का तप व्यर्थ रहा !
जीने का क्या अर्थ रहा !

जब अन्तर-तम में
हर क्षण, हर पल
केवल मर्मान्तक त्रास सहा !

माना
बहुमूल्य अनेकों उपहार मिले
हीरों के हार मिले,
अनगिनत सफलताओं पर
असंख्य कंठों से
नभ-भेदी जय-जयकार मिले,
सर्वोच्च शिखर सम्मान मिले,
पग-पग पर वरदान मिले !

किन्तु;
नहीं पाया मन-चाहा
लगता है :
दुर्लभ जीवन निष्कर्म गया,
जैसे भंग हुई
लगभग साधित-कठिन तपस्या !

दहका दाह अभावों का,
हर सपना भस्म हुआ !
निर्धन, निष्फल, भिक्षु अकिंचन
जैसे नहीं किसी की लगी दुआ !

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(46) अप्रभावित
--------------------------

वर्षों
जी लिया जीवन अकेले,
शेष भी
चुपचाप जी लेंगे !

विष-जल पी लिया
दिन.... रात
बेबस,
मृत्यु की उत्सुक प्रतीक्षा में !
भविष्य विनाश वीक्षा में !

विषज हर द्रव्य
हँस कर
शेष जीवन-हेतु
अपने-आप पी लेंगे !

मत करो चिन्ता -
निवासी विष-निलय का मैं,
महा शिवतीर्थ हूँ
अपने समय का मैं !


--------------------------
(47) आत्म-निरीक्षण
--------------------------

जीवन भर
कुछ भी
अच्छा नहीं किया !
ऐसे तो
जी लेते हैं सब,
कुछ भी लोकोत्तर
जीवन नहीं जिया !
अपने में ही
रहा रमा,
हे सृष्टा !
करना सदय क्षमा !

--------------------------
(48) वास्तविकता
--------------------------

सँभलते - सँभलते...
समय तीव्र गति से गुज़रता गया !
सब व्यवस्थित बिखरता गया !
हस्तगत था अरे जो
अचानक फिसलता गया ....
हर क़दम पर
सँभलते-सँभलते !

हर तार टूटा
सँवरते-सँवरते
कि फिरफ़िर उलझता गया !
बंध हर और कसता गया ;
सूत्र क्रमश: सुलझते-सुलझते
उलझता गया,
हर क़दम पर
सँवरते-सँवरते !

ज़िन्दगी कट गयी ज़िन्दगी
सीखते-सीखते,
खो गये कंठ-स्वर
चीखते-चीखते,
शास्त्र संगीत का
सीखते-सीखते !

--------------------------
(49) विराम - पूर्व : 1
--------------------------

स्मृतियाँ फ़ूल हैं !
रंग-बिरंगे
खिलखिलाते फूल हैं !

स्मृतियाँ
जागती हैं जब
लगता है कि मानों
सज गये हर द्वार बंदनवार
चारों ओर !
जीवन महकता है
सुगन्धों से,
जीवन छलकता है
मधुर मादन रसों से
जीवन जगमगाता है
चटक नवजात रंगों से !
आदमी
ऐसे क्षणों में डूब जाता
स्वप्न के मधु लोक में
सुध-बुध भूल !

दीखता सर्वत्र
अनुकूल-ही-अनुकूल,
जैसे डालियों पर
झूलते हों फूल !

झूमते हों
प्रिय अनुभूतियों के फूल !

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(50) विराम - पूर्व : 2
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स्मृतियाँशूल हैं !
धँसते नुकीले शूल हैं !

स्मृतियाँ
जागती हैं जब
लगता है कि मानों
उड़ रही है धूल चारों ओर,
जीवन दहकता
कष्टकर नरकाग्नि में,
जीवन लड़खड़ाता चीखता
सुनसान में,
भर हत हृदय में हूल !
आदमी
ऐसे क्षणों में टूट गिरता
तिमिरमय घन गुहा में
हिल उखड़ आमूल !
दीखता सर्वत्र
प्रतिकूल-ही-प्रतिकूल,
भेदते अन्त:करण को
तीव्र चुभते शूल !
अनइच्छित
दुखद अनुभूतियों कें शूल

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(51) बोध
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अद्भुत
कश--कश में
दिन.... हफ्ते... महीने....वर्ष
गुज़रते जा रहे,
विस्मय !
नहीं वश में
अरे, कुछ भी नहीं वश में,
'विवशता'
अर्थ :
जीवन तो नहीं ?

एक दिन
यों ही अचानक
हो जाएगा लय
सब !
कहीं क्या दीखती है
विभाजक-रेख ?
फिर क्या कहा जाए
सार्थक / व्यर्थ ?

अस्तित्व
लुप्त होने के लिए,
जन्म-जागृति
सुप्त होने के लिए,
फिर,
यह कश--कश किसलिए ?

गुज़रने दो
रात दिन / दिन रात
पल-क्षण,
काल-क्रम अविरत,
विषम-सम !

--------------------------
(52) सच है
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ज़िन्दगी शुरू हुई
कि अन्त गया !
अभी-अभी हुई सुबह
कि अंधकार छा गया !

आसमान में
सतत बिखर-बिखर
किरण-किरण
विलीन हो गयी
कि दूर-दूर तक
प्रखर प्रकाश की
अजस्र धार खो गयी ?

यहाँ-वहाँ सभी जगह
अपार शोर था,
व्योम के हरेक छोर तक
लाल-लाल भोर था,
राग था,
गीत था,
प्यार था,
मीत था,
विलुप्त सब !

रुको ज़रा
प्रकाश आयगा,
प्रकाश का प्रवाह आयगा !
नया विहान छायगा !

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(53) स्वागत : 21वीं शती का
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आगामी सौ वर्षों में
वि-ज्ञान सूर्य की
अभिनव किरणों से
आलोकित हो
मानव-मन !

अंधे विश्वासों से
अंधी आस्था से
ऊपर उठ कर,
मिथ्या जड़ आदिम
तथाकथित धर्मों की
कट्टरता से
हो कर मुक्त
नयी मानवता का
सच्चा पूजक हो
जन-जन !

एक अभीप्सित
व्यापक विश्व-धर्म में
दीक्षित हो
पूर्ण लोक,
फेंके उतार
गतानुगत खोखले विचारों का
सड़ा-गला निर्मोक !
क्षयी विगलित
कुष्ठ-कोष आवरण कवच,
जिससे दीखे केवल
सच...सच !

आगामी सौ वर्षों में
स्थापित हो साम्राज्य
दया ममता करुणा का,
फैले
अभिमंत्रित संस्कृत शीतल
जल वरुणा का

वीभत्स घृणा-दर्शन
हिंसा से,
आहत मानव मन पर
तन पर !

वसुधा
आप्लावित हो
उन्नत भावों सद्भावों से,
आच्छादित हो
मर्यादित न्यायोचित प्रस्तावों से !
हो लुप्त जगत से
बर्बरता
क्रूर दनुजता
ध्वंसक वैर विकलता,
सब
देव सहिष्णु बनें,
पालनकर्ता विष्णु बनें !

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(54) अभिनन्दित - क्षण
--------------------------

शुभ-संकल्पों की
फहराती
कल्याण-पताका
सौभाग्य-पताका,
आयी पृथ्वी पर
नयी शती
इक्कीसवीं शती !

उड़ती
अति-सुन्दर
स्वर्ग-वधू-सम
श्वेताम्बर लहराती,
नवयुग-मंडप में
स्थापित करती
शान्ति-कलश सुख,
स्वस्ति मुख
आयी पृथ्वी पर
नयी शती
इक्कीसवीं शती !

मानव के
चिर-इच्छित सपनों को
धरती पर
करने साकार,
देने
उसकी सर्वोत्तम रचना को
दृढ़ आधार,
उतरी
जन-मानस पर
नयी शती
इक्कीसवीं शती !
स्वागत !
श्रम-रत
हम
करते हार्दिक स्वागत !

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(55) विजयोल्लास
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हमने चाहा
जी लें जब-तक आये
नयी शती !
हमने चाहा
धड़कन बंद हो
जब-तक आये
हँसती-गाती
नयी शती !
पूरी होती
इस इच्छा पर
कौतूहल है,
मानव-आस्था में
सच;
कितना बल है !
अद्भुत बल है !
हमने चाहा
जी लें जब-तक आये
नयी शती !
आख़िर ही गयी
थिरकती नयी शती
सचमुच
ही गयी
ठुमकती नयी शती !
मृत्यु पराजित
जीवन जीत गया !
सफल तपस्या,
पहनूंगा अब
सुविधा से परिधान नया !
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रचना-काल : सन् 1997-2000
प्रकाशन-वर्ष : सन् 2001
प्रकाशक : इंडियन पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली — 110 006