सोमवार, 16 अगस्त 2010

डा0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह संतरण

डा0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह संतरण

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कविताएँ
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1 भवितव्य के अश्वो !
2 आस्था
3 प्रधूपिता से
4 आस्था का उपहार
5 आदमी और स्वप्न
6 जीवन
7 निवेदन
8 प्रतिकार्य
9 टूटना मत
10 अनुबोध
11 विडम्बना
12 तुम नहीं पहचान पाओगे ...
13 जीवन: एक अनुभूति
14 दोपहरी
15 एक साँझ
16 रात बीतेगी
17 अनचहा
18 क्या पता था
19 राज़ क्या है ?
20 अनाहूत स्थितियों से
21 प्रार्थना
22 अंगीकृत
23 अविश्वसनीय
24 पुनर्जन्म
25 कौन हो तुम
26 याचना
27 स्वीकार लो
28 युगों के बाद फिर
29 अभिरमण
30 उषा-दूतिका
31 फागुन में सावन
32 धरती का गीत
33 दृष्टि
34 कला-साधना
35 स्वर्ण की सौगात
36 भोर का गीत
37 माँझी
38 कौन तुम ...
39 गीत में तुमने सजाया
40 मुसकराये तुम ...
41 हे विधना
42 उषा रानी 43 सुहानी सुबह
44 लघु जीवन
45 फाग
46 वर्षा : तीन सुभाषित
47 दीप जलाओ
48 दीप-माला
49 अभिषेक
50 दीप धरो
51 रूपासक्ति
52 मोह-माया
53 रात बीती ...
54 व्यथा-बोझिल रात
55 अगहन की रात
56 दूर तुम
57 प्रिया से
58 बिरहिन
59 प्रतीक्षा
60 साध
61 स्नेह भर दो
62 रतजगा
63 वंचना
64 अब नहीं
65 गाओ
66 भोर होती है !
67 मच्छरों का संगीत
68 भूमिका
69 अंकुर
70 थमना कैसा ?
71 रात भर
72 अंधकार
73 लक्ष्य
74 आलोक
75 शुभकामनाएँ
76 दीप जलता है
77 नया भारत
78 एशिया
79 माओ और चाऊ के नाम
80 रंग बदलेगा गगन !


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(1) भवितव्य के अश्वो!
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ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास
हम
आश्वस्त अंतर से सधे
मज़बूत हाथों से दबा
हर बार मोड़ेंगे !

वर्चस्वी,
धरा के पुत्र हम
दुर्धर्ष,
श्रम के बन्धु हम
तारुण्य के अविचल उपासक
हम तुम्हारी रास
ओ भवितव्य के अश्वो !
सुनो, हर बार मोड़ेंगे !

ओ नियति के स्थिर ग्रहो !
श्रम-भाव तेजोदृप्त
हम
अक्षय तुम्हारी ज्योति
ग्रस कर आज छोड़ेंगे !
तितिक्ष अडिग
हमें दुर्ग्रह नहीं अब
अंतरिक्ष अगम्य !
निश्चय
ओ नियति के पूर्व निर्धारित ग्रहो !
हम....
हम तुम्हारी ज्योति
ग्रस कर आज छोड़ेंगे !

ओ अदृष्ट की लिपियो !
कठिन प्रारब्ध हाहाकार के
अविजेय दुर्गो !
हम उमड़ श्रम-धार से
हर हीन होनी की
लिखावट को मिटाएंगे,
मदिर मधुमान श्रम संगीत से
हम
हर तबाही के अभेदे दुर्ग तोड़ेंगे !
ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास मोड़ेंगे !

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(2) आस्था
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सींचो !
कण-कण को सींचो !
हर सूखे बिरवे को पानी दो,
टूटे उखड़े झाड़ों को
अभिनव बल
फिर-फिर बढ़ने की तेज़ रवानी दो
हर सूखे बिरवे को पानी दो !

नंगी-नंगी शाखों को
जल-कण मुक्ता भूषण दो
चिर बाँझ धरा को
जल का आलिंगन दो
शीतल आलिंगन दो !
शायद, गहरी-गहरी परतों के नीचे
जीवन सोया हो,
तम के गलियारों में खोया हो !

सींचो
अन्तस् की निष्ठा से सींचो,
शायद, चट्टानों को फोड़ कहीं,
नव अंकुर डहडहा उठें,
बाँझ धरा का गर्भस्थल
नूतन जीवन से कसमसा उठे !

सींचो
कण-कण को सींचो !
हर मिट्टी में गर्मी है
हर मिट्टी पूत प्रसव-धर्मी है !

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(3) प्रधूपिता से
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ओ विपथगे !
जग-तिरस्कृत,

माँग को
सिन्दूर से भर दूँ !

सहचरी ओ !
मूक रोदन की —
कंठ को
नाना नये स्वर दूँ !

ओ धनी !
अभिशप्त जीवन की —

तुझे उल्लास का वर दूँ !

ओ नमित निर्वासिता !


नील कमलों से
घिरा घर दूँ !

वंचिता ओ !
उपहसित नारी —
अरे आ
रुक्ष केशों पर
विकंपित
स्नेह-पूरित
उँगलियाँ धर दूँ !

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(4) आस्था का उपहार
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भाग्य से
अथवा जगत से
हर प्रताड़ित व्यक्ति को
आजन्म संचित स्नेह मेरा
है समर्पित !

लक्ष्य हैं जो
सृष्टि के अव्यक्त निर्मम हास के
या जगत उपहास के
प्राण गौरव की सुरक्षा के लिए
लघु गेह मेरा
है समर्पित !

ओ, विश्व भर के
पददलित पीड़ित पराजित मानवो !
जीवन्त नव आस्था
नये विश्वास के
मद महकते उत्फुल्ल गुलदस्ते
तुम्हारे साधु स्वागत में
समर्पित हैं !

जीवन को सजा लो,
लोक की मधु-गंध
प्राणों में बसा लो !

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(5) आदमी और स्वप्न
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आदमी का प्यार सपनों से
सनातन है !

मृत्यु के भी सामने
वह, मग्न होकर देखता है स्वप्न !
सपने देखना, मानों,
जीवन की निशानी है ;
यम की पराजय की कहानी है !

सपने आदमी को
मुसकराहट — चाह देते हैं,
आँसू — आह देते हैं !

हृदय में भर जुन्हाई-ज्वार,
जीने की ललक उत्पन्न कर,
पतझार को
मधुमास के रंगीन-चित्रों का
नया उपहार देते हैं !
विजय का हार देते हैं !
सँजोओ, स्वप्न की सौगात,
महँगी है !
मिली नेमत,
इसे दिन-रात पलकों में सहेजो !
‘स्वप्नदर्शी’ शब्द
परिभाषा ‘मनुज’ की,
गति-प्रगति का
प्रेरणा-आधार;
संकट-सिंधु में
संसार-नौका की
सबल पतवार ;
गौरवपूर्ण सुन्दरतम विशेषण।
स्वप्न-एषण और आकर्षण
सनातन है, सनातन है !
आदमी का प्यार सपनों से
सनातन है !

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(6) जीवन
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जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जायगा !

इसलिए,
हर पल विरल
परिपूर्ण हो रस-रंग से,
मधु-प्यार से !
डोलता अविरल रहे हर उर
उमंगों के उमड़ते ज्वार से !

एक दिन, आख़िर,
चमकती हर किरण बुझ जायगी...
और
चारों ओर
बस, गहरा अँधेरा छायगा !
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जाएगा !

मत लगाओ द्वार अधरों के
दमकती दूधिया मुसकान पर,
हो नहीं प्रतिबंध कोई
प्राण-वीणा पर थिरकते
ज़िन्दगी के गान पर !

एक दिन
उड़ जायगा सब ;
फिर न वापस आयगा !
जीवन हमारा फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रह है आज,
कल झर जायगा !

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(7) निवेदन
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फूल जो मुरझा रहे
जग-वल्लरी पर
अधखिले
कारण उसी का खोजता हूँ !

हे प्राण !
मुझको माफ़ करना
यदि तुम्हारे गीत कुछ दिन
मैं न गाऊँ !
स्वर्ण आभा-सा
सुवासित तन तुम्हारा देख
अनदेखा करूँ,
छवि पर न मोहित हो
तनिक भी मुसकराऊँ !

फूल जब मुरझा रहे
वसुधा बनी विधवा
सुमुखि !
फिर अर्थ क्या शृंगार का,
पग-नूपुरों की गूँजती झंकार का ?

हर फूल खिलने दो ज़रा,
डालियों पर प्यार हिलने दो ज़रा !

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(8) प्रतिकार्य
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रे हृदय
उत्तर दो
जगत के तीव्र दंशन का
राग-रंजित,
सोम सुरभित साँस से !

स्वीकार्य
जीवन-पंथ पर...
दर्द हर उपेक्षा का
शांत उज्ज्वल हास से !

आतिथेय
घन तिमिर के
द्वार पर
स्वर्ण किरणों की
असंशय आस से !

आराध्य
वज्रघाती देव
प्राण के संगीत से,
प्रेमोद्गार से
अभिरत रास से !

रे हृदय !
उत्तर दो
जगत के क्रूर वंचन का
स्नेहल भाव से,
विश्वास से !

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(9) टूटना मत
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रे हत हृदय,
टूटना मत !
विपद् घोर-घन-चोट सहना !
दहकती
दुखों की प्रबल भट्ठियों में
सतत मूक दहना !
अकेले
गरल-तप्त-धारों-उमड़ती
नदी में निरन्तर, निराक्रांत बहना !

अनादृत हृदय,
टूटना मत !

अँधेरी-अँधेरी घटाएँ,
सबल सनसनाती हवाएँ...!
विवह लहरता,
दबा, त्रस्त वातावरण !
क्रूर,
जैसे हुआ हो अभी,
हाँ, अभी,
राम,
सीता-हरण !
रे हृदय
टूटना मत !

नहीं दूर अब और
अभिनव, अनागत सुबह,
रुक्ष, उन्मन,
करुण, कृष्ण
छाया न ग्रस ले उसे,
मुसकराकर
बढ़ो,
हे हृदय,
सार्थ करने सुलह
पास
अभिनव, अनागत सुबह !

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(10) अनुबोध
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गहन अंतर में
पीर भर लो !
तरल आँखों में
नीर भर लो !

पीर ही देगी तुम्हारा साथ
थाम लो इसका
करुण-निधि-रेख अंकित हाथ,
हिम-शीत प्यारा हाथ !
रे यही देगा तुम्हारा साथ
वर लो !

सांध्य-जीवन के
थके बोझिल क्षणों में
कुहर-गुंठित सजल धूमिल क्षणों में
तम घिरे घर में
पीर वर लो !
लौह अंतर में
पीर भर लो !
अचल आँखों में
नीर भर लो !

ले
असीमित क्षार-सागर
वज्र-विज्ञापित-बवण्डर
अतिथि बन
मेघ आये हैं,
तुमको घेर छाये हैं
प्यार कर लो !
वेदना उपहार लाये हैं
सहज स्वीकार कर लो !
टूटते कमज़ोर कंधों पर
पर्वतों का भार
धर लो !
गहन अंतर में
पीर भर लो !
तरल आँखों में
नीर भर लो !

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(11) विडम्बना
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हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन की हर क्यारी में
सहज खिलाये
भावों के सुरभित फूल !

हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन के निस्सीम गगन में
उन्मुक्त उड़ाये
अनिंद्य कल्पनाओं के
बहुरंगी दिव्य दुकूल !

हमने
जीवन भर
हाँ,
जीवन भर
मन की गहरी-से-गहरी
उपत्यका में
वैदग्ध्य विचारों के
सूरज चाँद उगाये
कर दूर तमस आमूल !

पर,
हाय विधाता !
यह कैसी अद्भुत भूल ?
घेरे तन को
अनगिनत नागफाँस नुकीले शूल,
अविराम थपेड़े झंझा के
उपहारों में देते
वंध्य विषैली धूल !

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(12) तुम नहीं पहचान पाओगे
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एकरसता, एकस्वरता
बन गया है नाम जीवन का,
विषैले पन्नगों से बद्ध
मानों वृक्ष चंदन का !

सुबह होती
उदासी की विकल किरणें लिए,
अभावों के धधकते सूर्य की
आकुल विफल किरणें लिए !
तन श्लथ अलस-आहत
विरागी प्रेत-सा मन श्लथ
विगत विक्षत,
दिवस विकलांग-सा कंपित
विखंडित रथ लिये
सुनसान बीहड़ से
असह चिर वेदना का भार ले
संध्या निशा के गर्त में
जब डूब जाता है
तुम नहीं पहचान पाओगे
अभागा प्राण कितना ऊब जाता है !

रात आती है
कि मानों निठुर छलना
बन वधू साकार आती है,
रँगीले झिलमिलाते
स्वप्न परदों से
नवेली झाँक कर
सौगात तीखी वंचना की
गोद में बस डाल जाती है !
अछूती भावनाएँ तरल लहरों-सी
कड़ी चट्टान से टकरा
दरद का ज्वार लाती है !

बीतता है इस तरह जीवन
लिए बस
एकरसता एकस्वरता का
करुण संसार,
दुर्लभ —
मूच्र्छना संगीत,
पुलकित स्वर,
सुवासित हर्ष,
इन्द्रधनुषी प्यार !

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(13) जीवन: एक अनुभूति
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बिखरता जा रहा सब कुछ
सिमटता कुछ नहीं !

ज़िन्दगी :
एक बेतरतीब सूने बंद कमरे की तरह,
दूर सिकता पर पड़े तल-भग्न बजरे की तरह,
हर तरफ़ से कस रहीं गाँठें
सुलझता कुछ नहीं !

ज़िन्दगी क्या ?
धूमकेतन-सी अवांछित
जानकी-सी त्रस्त लांछित,
किस तरह हो संतरण
भारी भँवर, भारी भँवर !
हो प्रफुल्लित किस तरह बेचैन मन
तापित लहर, शापित लहर !

ज़िन्दगी:
बदरंग केनवस की तरह
धूल की परतें लपेटे
किचकिचाहट से भरी,
स्वप्नवत है
वाटिका पुष्पित हरी !
हर पक्ष भावी का भटकता है
सँभलता कुछ नहीं !

पर, जी रहा हूँ
आग पर शय्या बिछाये !
पर, जी रहा हूँ
शीश पर पर्वत उठाये !
पर, जी रहा हूँ
कटु हलाहल कंठ का गहना बनाये !
ज़िन्दगी में बस
जटिलता ही जटिलता है
सरलता कुछ नहीं !

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(14) दोपहरी
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दोपहरी का समय
अनमना...... उदास,
मैं नहीं तुम्हारे पास !

एकाकी
तंद्रिल स्वप्निल
जोह रहा अविरल बाट
खोल कक्ष-कपाट !

चिलचिलाती धूप
बोझिल बनाती और आँखों को !
साँय-साँय करती
लम्बे-लम्बे डग भरती
हवा-दूतिका
संदेश तुम्हारा कहती
मौन !

तभी मैं उठ
भर लेता बाँहों में
कर लेता स्वीकार
सरल शीतल आलिंगन
आगमन आभास तुम्हारा पाकर !
ढलती जाती दोपहरी
होती जाती अन्तर-व्यथा
गहरी....गहरी....गहरी !

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(15) एक साँझ
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जीवन
अर्थ-सूनापन !
नहीं कुछ भी नया
सदा-सा
आज भी दिन ढल गया !

भटकती धूप
आयी,
कुछ क्षण
चाहा बिताएँ साथ
पर, अँधेरा ही
आया हमारे हाथ !

डोलते आये विहंगम,
चित्रवत्
देखते केवल रहे हम !
नहीं कोई रुका;
सदा-सा
एकरस बहता रहा,
बोझिल मन थका
सहता रहा !
जीवन
अर्थ-सूनापन,
सूनापन !

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(16) रात बीतेगी
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अँधेरा....
रात गहरी है,
रात बहरी है !

बहुत समझाया कि
सो जा !
रे मन
थके ग़मगीन मन
ज़िन्दगी के खेल में हारे हुए
दुर्भाग्य के मारे हुए
रे दरिद्र मन
सो जा !

रात सोने के लिए है
सपने सँजोने के लिए है,
कुछ क्षणों को
अस्तित्व खोने के लिए है,
तारिकाओं से भरी यह रात
परियों-साथ सोने के लिए है !
सो !

दर्द है,
और सूनी रात बेहद सर्द है !

जीवन नहीं अपना रहा,
अब न बाक़ी देखना सपना रहा !

रात...
जगने के लिए है !
..... बेचैनियों की भट्ठियों में
फिर-फिर सुलगने के लिए है !

रात....
गहरी रात
बहरी रात
हमने बिता दी
जग कर बिता दी !

कल फिर यही होगा
अँधेरा आयगा !
खामोश
धीरे, बड़े धीरे
कफ़न-सा
फिर अँधेरा आयगा !
रे मन
जगने के लिए
चुपचाप
आँखें बन्द कर लेना,
भीतर सुलगने के लिए
ज़िन्दगी पर राख धर लेना !

रात
काली रात
बीतेगी .... बीतेगी !

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(17) अनचाहा
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केसर-सी मधु-गंधि
कुमारी अभिलाषाएँ,
अन्तरतम में संचित
युगों सहेजी आशाएँ
परित्यक्ता हैं !

निर्मल भोली
लगता था: मेरी हो लीं !
नेह भरी दिन भर डोलीं,
यामा में
मदहोश गुलाबी आँखें खोलीं !
रजनी-हासा
रजनी-गंधा
परित्यक्ता हैं,
आज सभी परित्यक्ता हैं !

ओ रजनी-हासा !
प्यासा.... प्यासा !
चिर साधों के उत्सव
आगत नव जीवन के
स्वागत-पर्व
सभी
गर्भ-क्षय-से पीड़क,
हीरक सपनों की रातें,
मधुजा-सी बातें
परित्यक्ता हैं !

मौन
मन-मैना,
बरसे नैना !

मधु-माधव बीत गया,
ओ ! मधुपायी
मधुरस रीत गया !

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(18) क्या पता था
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छू रही थी रवि-किरण
ऊँचाइयों को,
सृष्टि की गहराइयों को,

नव-आलोक से परिपूर्ण था
जीवन-गगन !
पहने धरा थी
स्वर्ण के अनमोल अभिनव आभरण,
गूँजते थे हर दिशा में
हर्ष-गीतों के चरण !

क्या पता था —
एक दिन ऐसे अचानक मेघ छाएंगे
बिना कारण
गरज बिजली गिराएंगे !
और हम —
असह उर-वेदना ले
मूक भटकेंगे
अँधेरे में, अँधेरे में !

नियति लेगी छीन
भू-सौभाग्य,
विक्षत कर
महकते फूल !
आँचल में भरेगी निर्दयी,
हा, इस तरह रे धूल !
अन्तर में चुभाएगी
नुकीले शूल !

और हम —
अर्थी उठा विश्वास की
मस्तक झुकाये
शोक से बोझिल हृदय ले
अग्नि-लपटों को समर्पित कर
अकेले लौट आएंगे,
व जीवन भर
विवश हो दोहराएंगे
करुण गीतों के चरण !

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(19) राज़ क्या है ?
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हवा सर्द है !
रात खामोश है
जिस तरह चुप तुम्हारे अधर !

बात क्या है ?
राज़ क्या है ?
कि जो सो गयी हर लहर !

दे रही नींद पहरा,
घिर गया तिमिर गहरा,
उठ रहा दर्द है !
हवा सर्द है !

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(20) अनाहूत स्थितियों से
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जीवन दिया है
तो
प्यार भी दो !
प्यास दी है
रसधार भी दो !

जब दिया है रूप
आत्मा को
सुघड़ तन-शृंगार भी दो !
उर दिया है
भावना का ज्वार भी दो !

मत करो वंचित
सहज अनुभूतियों से
इस तरह -
जीवन कि जीना बोझ बन जाए,
सब उम्र कट जाए
बिन गीत गाए
स्नेह-सुषमा का
सुखद सावन सजाए !

ज्योति का आकाश
आँखों को दिया
तो
अनगिनत सपने सुहाने
झूलने दो !
दर्द आँहों से
तनिक तो
चेतना को भूलने दो !

मत कसो
मजबूरियों की रस्सियों से
इस तरह —
पल भर
फड़फड़ा भी जो न पाएँ
वासनाओं के विखंडित पंख !
अनपेक्षित घृणा की
कील मत ठोंको
धड़कते वक्ष पर !
अंगार मत फेंको
सरल आसक्त आँखों पर !

जीवन दिया है
तो
लेने दो
हर फूल की मधु गंध,
जीवन दिया है
तो
सोने दो
हर लता के अंक में निर्बन्ध !

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(21) प्रार्थना
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अँधेरा दो
पराजय का अँधेरा दो
निराशा का सघन-गहरा अँधेरा दो
पर, विजय की आस मत छीनो
सुबह की साँस मत छीनो,
नये संसार के
सुख-साध्य सपनों के सहारे
करुण जीवन बिता लेंगे !
अभावों से भरा जीवन बिता लेंगे !

वंचना दो
प्रीत के हर प्रिय चरण पर वंचना दो
मृग-तृषा-सी वंचना दो
पर, अधर के गीत मत छीनो
राग का संगीत मत छीनो,
सुधा-धर कंठ से
उर भावना-विश्वास धरती पर
कल्पनाओं के सहारे
विरस यौवन बिता लेंगे,
हर सजल सावन बिता लेंगे !
अकेला अनमना यौवन बिता लेंगे !

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(22) अंगीकृत
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ओ विशालाक्षी
नील कंठाक्षी
शुभांगी !
शाप
जो तुमने दिया
अंगीकृत !

ओ पयस्विनी
कल्याणी !
विषज उपहार
जो तुमने दिया
स्वीकृत !

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(23) अविश्वसनीय
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प्रेक्षागृह में
प्रेक्षक नहीं,
मात्र मैं हूँ !
मैं —
अभिनेता,
नायक !

जिसका जीवन
प्रहसन नहीं,
त्रासद.... शोकान्त !

मैं ही जीवन की
मुख्य-कथा का निर्माता
टूटे-स्वर से
गा....ता
समाधि गान !
जिसकी करुण तान
अनाकर्षक
रस विहीन !

मैं ही भोजक
भोज्य !
आदि... मध्य... अंत
विषाद सिक्त
नील तंतु से निर्मित,
बोझिल मंथर गति से विकसित !

पर,
मादक प्रकरी-सी
तुम कौन ?
रंभा ?
उर्वशी ?
एकरस कथानक में अचानक !
यह सब ‘सहसा’ है,
अनमिल
अस्वाभाविक है !

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(24) पुनर्जन्म
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जीवन का आरम्भ:
फिर से।
उसमें सन्दर्भ न हो,
पूर्वा पर कोई संबंध न हो !

क्या वर्तमान को गत क्षण प्रदेय ?
जब दुष्कर पा लेना जीवन का प्रमेय ?

जीवन: नहीं पहेली ?
उसका अर्थ सरल हो,
उसकी भाषा प्रांजल हो,
उसमें वांछित
कोई अन्तर-कथा नहीं,
रिसते घावों की सोयी व्यथा नहीं !

जितना खोजोगे: भटकोगे,
जितनी संगति जोड़ोगे: उलझोगे !

आगत पर
बेचैनी और उदासी का दामन ?
आस्था के शीश महल पर
संदेहों के पाहन ?
नहीं, नहीं !

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(25) कौन हो तुम?
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अँधेरी रात के एकांत में
अनजान
दूरागत.....
किसी संगीत से मोहक
मधुर सद्-सांत्वना के बोल
विषधर तिक्त अंतर में
अरे ! किसने दिये हैं घोल ?

कौन ?
कौन हो तुम ?
अवसन्न जीवन-मेघ में
नीलांजना-सी झाँकतीं
आबंध वातायन हृदय का खोल !

सृष्टि की गहरी घुटन में,
दाह से झुलसे गगन में,
कौन तुम जातीं
सजल पुरवा सरीखी डोल ?

कौन हो तुम ?
कौन हो ?
संवेद्य मानस-चेतना को,
शांत करती वेदना को !

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(26) याचना
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शैल हो तुम
हैं कसे सब अंग,
विकसित-वय भरे नव-रंग !
प्रत्यूष ने
जब स्वर्ण किरणों से छुए
सुगठित कड़े उन्नत शिखर
प्रति रोम रजताचल
गया सहसा सिहर,
द्रुत स्वेद-मंडित तन
द्रवित मन,
शीर्ष चरणों तक
हुई सद्-संचरित रति-रस लहर !

शैल हो तुम
नेह-निर्झर-धार धारित,
प्राण हरिमा भाव वासित !

एक कण प्रिय नेह का
एक क्षण सुख देह का
मन-कामना
वर दो !
अनावृत पात्रा अन्तस्
भावना भर दो !

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(27) स्वीकार लो
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मेरी कामनाएँ :
गगन के वक्ष पर झिलमिल
सितारों की तरह !

मेरी वासनाएँ :
हिमालय से प्रवाहित
वेगगा भागीरथी की
शुभ्र धारों की तरह !

मेरी भावनाएँ :
महकते-सौंधते
उत्फुल्ल पाटल से विनिर्मित
रूपधर सद्यस्क हारों की तरह !

तुम्हारी अर्चना आराधना में
समर्पित हैं।
अलौकिक शोभिनी !
रमनी सुनहरी दीपकलिका से
हृदय का कक्ष ज्योतित है !

इस जन्म में
स्वीकार लो
स्वीकार लो
मेरा अछूता प्यार लो !

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(28) युगों के बाद फिर...
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युगों के बाद
सहसा आज तुम !
स्वप्न की नगरी बसाये
हाथ सिरहाने रखे सोयी हुई हो
बर्थ पर !
क्या न जागोगी ?
हुआ ही चाहता पूरा सफ़र....!

आँख खोलो
आँख खोलो
शब्द चाहे
एक भी मुझसे न बोलो !
देख,
फिर चाहे
बहाना नींद का भर लो !

युगों के बाद फिर
पा रंग नव रस
खिल उठेगा
धूप मुरझाया कुसुम !
कितने दिनों के बाद
सहसा आज तुम !

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(29) अभिरमण
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कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
कल्पना के सिंधु में
युग-युग सहेजी आस के दीपक
बहाने के सिवा !

हृदय की भित्ति पर
जीवित अजन्ता-चित्रस... रेखाएँ
बनाने के सिवा !
किस क़दर
भरमाया
तुम्हारे रूप ने !

कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया;
सिर्फ़
कल्पना के स्वर्ग में
स्वच्छंद सैलानी-सरीखा
घूमा किया !
नशीली-झूमती
मकरंद-वेष्टित
शुभ्र कलियों के कपोलों को
मधुप के प्यार से
चूमा किया !
किस क़दर
मुझको सताया है
तुम्हारे रूप ने !

कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
भावना के व्योम में
भोले कपोतों के उड़ाने के सिवा !
अभावों की धधकती आग से
मन को जुड़ाने के सिवा !

भटका किया,
हर पल
तुम्हारी याद में अटका किया !

किस क़दर
यह कस दिया तन मन
तुम्हारे रूप ने !

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(30) उषा-दूतिका
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उषा का आगमन
रे रात सोये फूल अपनी गंध दो
जिससे किरन आए खिँची
पतली / सुनहली
बावली
फिर रंग अपना दो उसे
निश्छल हृदय का प्यार दो !
अंक भर-भर
मुग्ध
अपना लो !
साकार होगा हर सपन
अनुराग डूबी जब उषा का आगमन !
रे रात सोये फूल
अपनी गंध दो !
हर पाँखुरी के खोल
मुकुलित बंध दो !

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(31) फागुन में सावन
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नव उत्साह भरे
हँसिया सान धरे
गेहूँ की सूखी बालें
काट रहा
भूखा-प्यासा कृषक-कुटुम्ब
बिना विलम्ब !
असमय
चपला-नर्तन घन-गर्जन
बूँदा-बाँदी,
माटी की सोंधी गंध महकती !

पर, स्वागत पर प्रतिबन्ध,
प्रकृति मनोरम
पर, वर्षा-देव हुए हैं अंध,
तभी बेमौसम
फागुन में सावन !

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(32) धरती का गीत
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हमें तो माटी के कन-कन से मोह है
असम्भव, सचमुच, उसका क्षणिक बिछोह है,
निरंतर गाते हम उसके ही गीत हैं
हमें तो उसके अंग-अंग से प्रीत है !

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(33) दृष्टि
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माना, हमने धरती से नाता जोड़ा है,
पर, चाँद-सितारों से भी प्यार न तोड़ा है,
सपनों की बातें करते हैं हम, पर उनको
सत्य बनाने का भी संकल्प न थोड़ा है !

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(34) कला-साधना
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हर हृदय में
स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ
कला की साधना है इसलिए !

गीत गाओ
मोम में पाषाण बदलेगा,
तप्त मरुथल में
तरल रस ज्वार मचलेगा !

गीत गाओ
शांत झंझावात होगा,
रात का साया
सुनहरा प्रात होगा !

गीत गाओ
मृत्यु की सुनसान घाटी में
नया जीवन-विहंगम चहचहाएगा !
मूक रोदन भी चकित हो
ज्योत्स्ना-सा मुसकराएगा !

हर हृदय में
जगमगाए दीप
महके मधु-सुरिभ चंदन
कला की अर्चना है इसलिए !

गीत गाओ
स्वर्ग से सुंदर धरा होगी,
दूर मानव से जरा होगी,
देव होगा नर,
व नारी अप्सरा होगी !

गीत गाओ
त्रस्त जीवन में
सरस मधुमास आ जाए,
डाल पर, हर फूल पर
उल्लास छा जाए !
पुतलियों को
स्वप्न की सौगात आए !
गीत गाओ
विश्व-व्यापी तार पर झंकार कर !
प्रत्येक मानस डोल जाए
प्यार के अनमोल स्वर पर !

हर मनुज में
बोध हो सौन्दर्य का जाग्रत
कला की कामना है इसलिए !

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(35) स्वर्ण की सौगात
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स्वर्ण की सौगात लायी भोर !

री जगो कलियो ! उठो उपहार आँचल में भरो
सज सुनहरे रूप में, मधु भाव पाटल में भरो
भर नया उन्मेष अंगों में
झूम लो नव-नव उमंगों में
गंधवह शीतल तरंगों में
प्रीति-पुलकित हर लता चितचोर !

खोल दो अंतर झरोखे द्वार वातायन सभी
अब नहीं ऐसे अँधेरे में घिरे आनन कभी
स्वर्ण-सागर में नहाओ रे
आभरण से तन सजाओ रे
नव प्रभाती गीत गाओ रे
झमझमा कर नाच ले मन-मोर !

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(36) भोर का गीत
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भोर की लाली हृदय में राग चुप-चुप भर गयी !

जब गिरी तन पर नवल पहली किरन
हो गया अनजान चंचल मन-हिरन
प्रीत की भोली उमंगों को लिए
लाज की गद-गद तरंगों को लिए
प्रात की शीतल हवा ; आ — अंग सुरभित कर गयी !

प्रिय अरुण पा जब कमलिनी खिल गयी
स्वर्ग की सौगात मानों मिल गयी,
झूमती डालें पहन नव आभरण
हर्ष पुलकित किस तरह वातावरण
भर सुनहरा रंग ऊषा कर गयी वसुधा नयी !

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(37) माँझी
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साँझ की बेला घिरी, माँझी !

अब जलाया दीप होगा रे किसी ने
भर नयन में नीर,
और गाया गीत होगा रे किसी ने
साध कर मंजीर,
मर्म जीवन का भरे अविरल बुलाता
सिन्धु सिकता तीर,
स्वप्न की छाया गिरी, माँझी !

दिग्वधू-सा ही किया होगा
किसी ने कुंकुमी शृंगार,
झिलमिलाया सोम-सा होगा
किसी का रे रुपहला प्यार,
लौटते रंगीन विहगों की दिशा में
मोड़ दो पतवार,
सृष्टि तो माया निरी, माँझी !

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(38) कौन तुम
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कौन तुम अरुणिम उषा-सी मन-गगन पर छा गयी हो ?

लोक-धूमिल रँग दिया अनुराग से,
मौन जीवन भर दिया मधु राग से,
दे दिया संसार सोने का सहज
जो मिला करता बड़े ही भाग से,
कौन तुम मधुमास-सी अमराइयाँ महका गयी हो ?

वीथियाँ सूने हृदय की घूम कर,
नव-किरन-सी डाल बाहें झूम कर,
स्वप्न छलना से प्रवंचित प्राण की
चेतना मेरी जगायी चूम कर,
कौन तुम नभ-अप्सरा-सी इस तरह बहका गयी हो ?

रिक्त उन्मन उर-सरोवर भर दिया,
भावना संवेदना को स्वर दिया,
कामनाओं के चमकते नव शिखर
प्यार मेरा सत्य शिव सुन्दर किया,
कौन तुम अवदात री ! इतनी अधिक जो भा गयी हो ?

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(39) गीत में तुमने सजाया
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गीत में तुमने सजाया रूप मेरा
मैं तुम्हें अनुराग से उर में सजाऊँ !

रंग कोमल भावनाओं का भरा
है लहरती देखकर धानी धरा
नेह दो इतना नहीं, सँभलो ज़रा
गीत में तुमने बसाया है मुझे जब
मैं सदा को ध्यान में तुमको बसाऊँ !

बेसहारे प्राण को निज बाँह दी
तप्त तन को वारिदों-सी छाँह दी
और जीने की नयी भर चाह दी
गीत में तुमने जतायी प्रीत अपनी
मैं तुम्हें अपना हृदय गा-गा बताऊँ !

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(40) मुसकराये तुम....
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मुसकराये तुम, हृदय-अरविन्द मेरा खिल गया,
देख तुमको हर्ष-गदगद, प्राप्य मेरा मिल गया !

चाँद मेरे ! क्यों उठाया
इस तरह जीवन-जलधि में ज्वार रे ?
पा गया तुममें सहारा
कामिनी ! युग-युग भटकता प्यार रे !
आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया !

रे सलोने मेघ सावन के
मुझे क्यों इस तरह नहला दिया ?
क्यों तड़प नीलांजने !
निज बाहुओं में नेह से भर-भर लिया ?
साथ छूटे यह कभी ना, हे नियति ! करना दया !

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(41) हे विधना!
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हे विधना ! मोरे आँगन का बिरवा सूखे ना !

यह पहली पहचान मिठास भरा,
रे झूमे लहराये रहे हरा,
हे विधना ! मोरे साजन का हियरा दूखे ना !

लम्बी बीहड़ सुनसान डगरिया,
रे हँसते जाए बीत उमरिया,
हे विधना ! मोरे मन-बसिया का मन रूखे ना !

कभी न जग की खोटी आँख लगे,
साँसत की अँधियारी दूर भगे,
हे विधना ! मोरे जोबन पर बिरहा ऊखे ना !

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(42) उषा रानी
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नील नभ-सर में मुदित मुग्धा उषा-रानी नहाती है !

शशि-बंध में बँध, रात भर आसव पिया
प्रतिदान जिसका प्रीति पावन से दिया
नव अंगरागों से जगत सुरभित किया
सोच हेला-हाव, अरुणिम तार रेशम के बहाती है !

नव रंग सरसिज के भरे जिसका वदन
परितोष भावों को किये जैसे वहन
प्रिय कल्पना में मंजु मंगल मन मगन
रे अकारण हर दिशा सीकर उड़ाकर गहगहाती है !

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(43) सुहानी सुबह
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जीवन की हर सुबह सुहानी हो !

भर लो हास बहारों का
नदियों कूल कछारों का
फूलों गजरों हारों का
कन-कन की हर्षान्त कहानी हो !

मीठा राग विहंगों का
पागल प्रेम उमंगों का
अंतर लाज-तरंगों का
छलिया दुनिया नहीं बिरानी हो !

शीतल नेह निगाहों से
भर दो दुनिया चाहों से
प्यार भरे गलबाहों से
लहकी-लहकी मधुर जवानी हो !

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(44) लघु जीवन
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फूलों का संसार हमारा है !

उज्ज्वल हास लुटाते हैं
मधु मकरंद उड़ाते हैं
मारुत पेंग सुहाते हैं
झंकृत उर हर तार हमारा है !

ले लो हार बनाने को
भर लो माँग सजाने को
सूना गेह बसाने को
भोला-भोला प्यार हमारा है !

हमको देख लजाओ ना
छलना भाव जताओ ना
इतना हाय सताओ ना
दो पल का शृंगार हमारा है !
फूलों का संसार हमारा है !

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(45) फाग
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फागुन का महीना है, मचा है फाग
होली छाक छायी है ; सरस रँग-राग !

बालों में गुछे दाने, सुनहरे खेत
चारों ओर झर-झर झूमते समवेत !

पुरवा प्यार बरसा कर, रही है डोल,
सरसों रूप सरसा कर, खड़ी मुख खोल !

रे, हर गाँव बजते डफ-मँजीरे-ढोल
देते साथ मादक नव सुरीले बोल !

चाँदी की पहन पायल सखी री नाच,
आया मन पिया चंचल सखी री नाच !

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(46) वर्षा
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(तीन सुभाषित)

(1)
अंक भर-भर नव सलेटी बादलों को
स्नेह-पूरित आ गयी बरसात रे !
हर मलिन उर को सहज ही दे गयी मधु
भावनाओं की नयी सौगात रे !

(2)
एक-रसता स्वर अनारत भंग कर जब
राग बन रिमझिम बरसती है घटा,
दूर क्षितिजों तक बिखर जाती अनावृत
हो तभी नव-सृष्टि की गोपन छटा !
(3)
मन-सरोवर में नयी हलचल लिए, नव
हाव से रह-रह थिरकतीं उर्मियाँ,
कौन ने, अव्यक्त मधुरस-धार में यों
प्राण मेरा आज रे नहला दिया !

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(47) दीप जलाओ
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आँगन-आँगन दीप जलाओ,
दीपों का त्योहार मनाओ !

स्वर्णिम आभा घर-घर बिखरे
मनहर आनन, कन-कन निखरे
ज्योतिर्मय सागर लहराये
काली-काली रात सजाओ !

निशि अलकों में भर-भर रोली
नाचें जगमग किरनें भोली
आलोक घटा घिर-घिर आये,
सारी सुधबुध भूल नहाओ !

हर उर अभिनव नेह भरा हो
युग-युग रोयी धन्य धरा हो,
चलो सुहागिन, थाल उठाओ
नभ-गंगा में दीप बहाओ !

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(48) दीप-माला
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आज घर-घर छा रहा उल्लास !

भर हृदय में प्रीत
मधु मदिर संगीत
आज घर-घर दीपकलिका वास !

नव सुनहरा गात
जगमगाती रात
आज घर-घर जा लुटाती हास !

कर रमन शृंगार
भर उमंग विहार
आज घर-घर दीप-माला रास !
========================
(49) अभिषेक
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माना, अमावस की अँधेरी रात है,
पर, भीत होने की अरे क्या बात है ?
एक पल में लो अभी —
जगमग नये आलोक के दीपक जलाता हूँ !

माना अशोभन, प्रिय धरा का वेष है
मन में पराजय की व्यथा ही शेष है,
पर, निमिष में लो अभी —
अभिनव कला से फिर नयी दुलहिन सजाता हूँ !े

कह दो अँधेरे से प्रभा का राज है,
हर दीप के सिर पर सुशोभित ताज है,
कुछ क्षणों में लो अभी —
अभिषेक आयोजन दिशाओं में रचाता हूँ !

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(50) दीप धरो
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सखि ! दीप धरो !

काली-काली अब रात न हो,
घनघोर तिमिर बरसात न हो,
बुझते दीपों में हौले-हौले,
सखि ! स्नेह भरो !

दमके प्रिय-आनन हास लिए,
आगत नवयुग की आस लिए,
अरुणिम अधरों से हौले-हौले,
सखि ! बात करो !

बीते बिरहा के सजल बरस
गूँजे मंगल नव गीत सरस
घर आये प्रियतम, हौले-हौले
सखि ! हीय हरो !

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(51) रूपासक्ति
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सोने न देती सुछवि झलमलाती किसी की !

जादू भरी रात, पिछला पहर
ओढ़े हुआ जग अँधेरा गहर
भर प्रीत की लोल शीतल लहर
सूरत सुहानी सरल मुसकराती किसी को !

गहरी बड़ी जो मिली पीर है
निर्धन हृदय के लिए हीर है
अंजन सुखद नेह का नीर है
अल्हड़ अजानी उमर जगमगाती किसी की !

रीझा हुआ मोर-सा मन मगन
बाहें विकल, काश भर लूँ गगन
कैसी लगी यह विरह की अगन
मधु गन्ध-सी याद रह-रह सताती किसी की !

========================
(52) मोह-माया
========================

सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !

हो किधर तुम मल्लिका-सी रम्य तन्वंगी,
रे कहाँ अब झलमलाता रूप सतरंगी,
मधुमती-मद-सी तुम्हारी मोहनी रमनीय छायी है !

मानवी प्रति-कल्पना की कल्प-लतिका बन
कर गयीं जीवन जवा-कुसुमों भरा उपवन,
खो सभी, बस, मौन मन-मंदाकिनी हमने बहायी है !

हो किधर तुम, सत्य मेरी मोह-माया री
प्राण की आसावरी, सुख धूप-छाया री
राह जीवन की तुम्हारी चित्रसारी से सजायी है !

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(53) रात बीती
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याद रह-रह आ रही है,
रात बीती जा रही है !

ज़िन्दगी के आज इस सुनसान में
जागता हूँ मैं तुम्हारे ध्यान में
सृष्टि सारी सो गयी है,
भूमि लोरी गा रही है !

झूमते हैं चित्र नयनों में कई
गत तुम्हारी बात हर लगती नयी
आज तो गुज़रे दिनों की
बेरुख़ी भी भा रही है !

बह रहे हैं हम समय की धार में
प्राण ! रखना पर भरोसा प्यार में
कल खिलेगी उर-लता जो
किस क़दर मुरझा रही है !

========================
(54) व्यथा-बोझिल रात
========================

किसी तरह दिन तो काट लिया करता हूँ
पर, मौन व्यथा-बोझिल रात नहीं कटती,
मन को सौ-सौ बातों से बहलाता हूँ
पर, पल भूल तुम्हारी मूर्ति नहीं हटती !

========================
(55) अगहन की रात
========================

तुम नहीं ; और अगहन की ठण्डी रात !

संध्या से ही सूना-सूना, मन बेहद भारी है,
मुरझाया-सा जीवन-शतदल, कैसी लाचारी है !
है जाने कितनी दूर सुनहरा प्रात !

खोकर सपनों का धन, आँखें बेबस बोझिल निर्धन
देख रही हैं भावी का पथ, भर-भर आँसू के कन,
डोल रहा अन्तर पीपल का-सा पात !

है दूर रोहिणी का आँचल, रोता मूक कलाधर
खोज रहा हर कोना, बिखरा जुन्हाई का सागर
किसको रे आज बताएँ मन की बात !

========================
(56) दूर तुम
========================

दूर तुम प्रिय, मन बहुत बेचैन !

अजनबी कुछ आज का वातावरण,
कर गया जैसे कि कोई धन हरण,
और हम निर्धन बने
वेदना कारण बने
मूक बन पछता रहे, जीवन अँधेरी रैन !

खो कहीं नीलांजना का हार रे,
अनमना सावन बरसता द्वार रे,
और हम एकान्त में
रात के सीमांत में
जागते खोये हुए-से, पल न लगते नैन !

========================
(57) प्रिया से
========================

इस तरह यदि दूर रहना था,
तो बसे क्यों प्राण में ?

है अपरिचित राह जीवन की
साथ में संबल नहीं ;
व्योम में, मन में घिरी झंझा
एक पल को कल नहीं,
यदि अकेले भार सहना था ;
तो बसे क्यों ध्यान में ?

जल रही जीवन-अभावों की
आग चारों ओर रे,
घिर रहा अवसाद अन्तर में
है थका मन-मोर रे,
इस तरह यदि मूक दहना था
तो बसे क्यों गान में ?

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(58) बिरहिन
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कब सरल मुसकान पाटल-सी बिखेरोगे सजन !

अनमना सूना बहुत बोझिल हृदय
धड़कनों के पास आओ, हे सदय !
कर रही बिरहिन प्रतीक्षा, उर भरे जीवन-जलन !

धूप में मुरझा रही यौवन-लता
मधु-बसंती प्यार इसको दो बता
मोरनी-सी नाच लूँ जी भर, रजत पायल पहन !

साथ ले चितचोर सोयी है निशा
भाविनी-सी राग-रंजित हर दिशा
रे अजाना दर्द प्राणों का, करूँ कैसे सहन !

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(59) प्रतीक्षा
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कितने दिन बीत गये
सपन न आये !

जागे सारी-सारी रात
डोला अंतर पीपर-पात
मन में घुमड़ी मन की बात
सजन न आये !

मेघ मचाते नभ में शोर
जंगल-जंगल नाचे मोर
हमको भूले री चितचोर
सदन न आये !

भर-भर आँचल कलियाँ फूल
दीप बहाये सरिता कूल
रह-रह तरसे पाने धूल
चरन न आये !

========================
(60) साध
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कितने मीठे सपने तुमने दे डाले
पर, धरती पर प्यार सँजोया एक नहीं !

युग-युग से जग में खोज रहा एकाकी
पर, नहीं मिला रे मनचाहा मीत कहीं,
कोलाहल में मूक उमरिया बीत गयी
सुन पाया पल भर भी मधु-संगीत नहीं,
भर-भर डाले क्षीर-सिंधु मुसकानों के
संवेदन से हृदय भिगोया एक नहीं !

एक तरफ़ तो बिखरा दीं सुषमा-पूरित
सौ-सौ मधुमासों की रंगीन बहारें,
और सहज दे डाले दोनों हाथों से
गहने रवि-शशि, तो गजरे फूल-सितारे,
पर, मेरे उर्वर जीवन-पथ पर तुमने
बीज मधुरिमा का बोया एक नहीं !

========================
(61) स्नेह भर दो
========================

आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय, स्नेह भर दो !

जगमगाए वर्तिका आलोक फैले
लोक मेरा नव सुनहरा रूप ले ले
आर्द्र आनन पर अमर मुसकान खेले
मूक हत अभिशप्त जीवन, राग रंजित प्रेय वर दो !

बन्द युग-युग से हृदय का द्वार मेरा
राह भूला, तम भटकता प्यार मेरा
भग्न जीवन-बीन का हर तार मेरा
जग-जलधि में डूबते को बाँह दो, विश्वास-स्वर दो !

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(62) रतजगा
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रह-रह कहीं दूर, मधु बज रही बीन !

आयी नशीली निशा
मदमस्त है हर दिशा
घिर-घिर रही याद, सुधबुध पिया-लीन !

मधु-स्वप्न खोया हुआ
जग शांत सोया हुआ
प्रिय-रूप-जल-हीन, अँखियाँ बनी मीन !

आशा-निराशा भरे
जीवन-पिपासा भरे
दिल आज बेचैन, खामोश, ग़मगीन !

रोती हुई हर घड़ी
कैसी मुसीबत पड़ी
जैसे कि सर्वस्व मेरा लिया छीन !

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(63) वंचना
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जिसको समझा था वरदान
वही अभिशाप बन गया !

चमका ही था अभिनव चाँद
गगन में मेघ छा गये,
महका ही था मेरा बाग
कि सिर पर वज्र आ गये,
जिसको समझा था शुभ पुण्य
वही कटु पाप बन गया !

जिसको पा जीवन में स्वप्न
सँजोये ; व्यंग्य अब बने,
जगमग करता जिन पर स्वर्ण
वही अब क्षार से सने,
जिसको समझा था सुख-सार
वही संताप बन गया !

========================
(64) अब नहीं...
========================

अब नहीं मेरे गगन पर
चाँद निकलेगा !

बीत जाएगी तुम्हारी याद में सारी उमर
पार करनी है अँधेरी और एकाकी डगर ;
किस तरह अवसन्न जीवन
बोझ सँभलेगा !

शांत, बेबस, मूक, निष्फल खो उमंगों को हृदय
चिर उदासी मग्न, निर्धन, खो तरंगों को हृदय

अब नहीं जीवन-जलधि में
ज्वार मचलेगा !

नेह रंजित, हर्ष पूरित, इंद्रधनुषी फाग को
उपवनों में गूँजते रस-सिक्त पंचम-राग को
क्या पता था, इस तरह
प्रारब्ध निगलेगा !

========================
(65) गाओ
========================

गाओ कि जीवन गीत बन जाए !

हर क़दम पर आदमी मजबूर है,
हर रुपहला प्यार-सपना चूर है,
आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
आस-सूरज दूर, बेहद दूर है,
गाओ कि कण-कण मीत बन जाए !

हर तरफ़ छाया अँधेरा है घना,
हर हृदय हत, वेदना से है सना,
संकटों का मूक साया उम्र भर
क्या रहेगा शीश पर यों ही बना ?
गाओ, पराजय — जीत बन जाए !

साँस पर छायी विवशता की घुटन
जल रही है ज़िन्दगी भर कर जलन
विष भरे घन-रज कणों से है भरा
आदमी की चाहनाओं का गगन,
गाओ कि दुख संगीत बन जाए !

========================
(66) भोर होती है!
========================

और अब आँसू बहाओ मत
भोर होती है !

दीप सारे बुझ गये
आया प्रभंजन,
सब सहारे ढह गये
बरसा प्रलय-घन,
हार, पंथी ! लड़खड़ाओ मत
भोर होती है !

बह रही बेबस उमड़
धारा विपथगा,
घोर अँधियारी घिरी
स्वच्छंद प्रमदा,
आस सूरज की मिटाओ मत
भोर होती है !

========================
(67) मच्छरों का संगीत
(‘प्रयोगवाद’ पर व्यंग्य)
========================

हर रोज़ रात होते ही
अनगिनती मूक मच्छरों का
समवेत-गान
कमरे में गूँज-गूँज उठता है !
जिसमें नहीं तनिक भी
भाव कल्पना का वैभव
केवल बजता -
रव, रव, रव !

निद्रा उचटा देने वाली
यह कैसी लोरी ?
यह कैसा सरगम ?

अच्छा हो
यदि इस पर बरसे
डी. डी. टी.
झय्यम-झमझम-झय्यम !

========================
(68) भूमिका
========================

सुनहरी फ़सल के लिए
रसभरी ग़ज़ल के लिए
हृदय-भूमि को सींचना !

प्रिय अमिय-धरों के लिए
मधुरतम स्वरों के लिए
हृदय-तार को खींचना !

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(69) अंकुर
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फोड़ धरती की कड़ी चट्टान को
ऊर्धगामी शक्ति का व्यक्तित्व
अंकुर फूटता है !

आँधियों के दृढ़ प्रहारों से
सतत संघर्ष रत
नव चेतना का
दिव्य अंकुर फूटता है !

सिर उठा
फैला भुजाएँ
जब गगन में झूमता है वह
अमंगल नाश का विश्वास सारा
टूटता है !
सृष्टि की जीवन-विरोधी भावनाओं का
उमड़ता वेग
धीरज
छूटता है !

अंकुरों की राह से
हट कर चलो !
अंकुरों की बाँह से
हटकर चलो !
अंकुरों को फैलने दो
धूप में
विस्तृत खुले आकाश में !

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(70) थमना कैसा ?
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जीवन में थमना कैसा ?

गति ही चेतन जीवन है,
गति-मुक्त
मनुज का अस्तित्व नहीं,
गति ही जीवन,
ईप्सित बंधन है !

हर्ष-विषाद व निश्चय-भ्रम,
बिखरा-बिखरा दैनिक-क्रम,
जीवन की
स्वस्थ प्रखर गति का सूचक है !
जीवन में स्थिरता कैसी,
जमना कैसा ?

जीवन बहता सोता है जल का,
इसमें तनिक विचार न होता
बीते कल का !
धारा है यह,
घहर-घहरकर उमड़ेगा ;
सावन-भादों के मेघों-सा
काल-पृष्ठ पर
रह-रह घुमड़ेगा !

बहते जाओ, बहते जाओ,
गिर-गिरकर
उठ-उठकर

पथ की निर्मम चोटों को
सहते जाओ,
गति-प्रेरक गीता कहते जाओ !
भूल कहीं भी जीवन में
रुककर रमना कैसा ?

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(71) रात भर
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रात भर सन्-सन् पवन
फूस की छत और माटी की दिवारों से
शराबी की तरह
करता रहा मदहोश आलिगन !
रात भर सन्-सन् पवन !
डोलती दहशत रही भीतर कुटी के,
चार आँखें
रतजगा करती रहीं भीतर कुटी के,
तम बरसता ही रहा
पर,
घिर न पाया एक पल
आशा भरा भावी उषा-जीवन !
रात भर
गरजा किया सन् सन् पवन !

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(72) अंधकार
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शीत युद्ध से समस्त विश्व त्रास्त
हो रहा मनुष्य भय विमोह ग्रस्त !

डगमगा रही निरीह नीति-नाव
जल अथाह, नष्ट पाल-बंधु-भाव !

राष्ट्र द्वेष की भरे अशेष दाह
मित्रता प्रसार की निबद्ध राह !

मच रही अजीब अंध शस्त्र-होड़
पशु बना मनुज विचार-शक्ति छोड़ !

जन-विनाश चक्र चल रहा दुरंत
आज साधु-सभ्यता विहान अंत !

गूँजते चतुर्दिशा कठोर बोल
रम्य-शांति-राग का रहा न मोल !

एकता-सितार तार छिन्न-भिन्न !
हर दिशा उदास मूक खिन्न-खिन्न !

अस्त सूर्य, प्राण वेदना अपार
अंधकार, अंधकार, अधंकार !

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(73) लक्ष्य
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यदि सूखे युग-अधरों को मुसकान नहीं दे पाये,
अश्रु-विमोचित आँखों में यदि सपने नहीं सजाये,
असमय उजड़ी बगिया को यदि फिर से लहलहा न दी,
सूनी-सूनी डालों को यदि फिर से चहचहा न दी,
तो व्यर्थ तुम्हारा जीवन !

शोषण-अग्नि-दग्ध तन के यदि नहीं मिटाये छाले,
यदि हारे थके उरों में स्पंदित प्राण नहीं डाले,
यदि नहीं घुटन के क्षण में बरसा घर-घर में सौरभ,
और नहीं महका सारा अणु-उद्जन-धूम ग्रसित नभ,
तो व्यर्थ तुम्हारा गायन !

बढ़ता वेग नहीं रोका, यदि प्रतिद्वन्द्वी लहरों का,
हिंसक क्रुद्ध आक्रमक फन यदि कुचला न विषधरों का,
जनयुग-संस्कृति सीता की यदि लज्जा न बचा पाये,
पूँजीशाही रावण को यदि फिर से न मिटा पाये,
तो व्यर्थ तुम्हारा यौवन !

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(74) आलोक
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मनुष्य का भविष्य —
अंधकार से,
शीत-युद्ध-भय प्रसार से
मुक्त हो,मुक्त हो !
रश्मियाँ विमल विवेक की
विकीर्ण हों,
शक्तियाँ विकास की विरोधिनी
विदीर्ण हों !
वर्ग-वर्ण भेद से,
आदमी-ही
आदमी की क़ैद से
मुक्त हो, मुक्त हो !

चक्रवात, धूल, वज्रपात से
नवीन मानसी क्षितिज
घिरे नहीं
घिरे नहीं !
नये समाज का शिखर
गिरे नहीं, गिरे नहीं !

पुनीत दिव्य साधना,
विश्व-शांति कामना,
उषा समान भूमि को सिँगार दे,
त्रास्त जग उबार दे
प्यार से दुलार दे

नवीन भावना-पराग
आग में झुलस —
जले नहीं
जले नहीं !
अनेक अस्त्र-शस्त्र बल प्रहार से,
विषाक्त दानवी घृणा प्रचार से,
वर्तमान सभ्यता
मुक्त हो, मुक्त हो !

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(75) शुभकामनाएँ
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जो लड़ रहे
साम्राज्यवादी शक्तियों से देश,
जिनकी वीर जनता ने
किया धारण शहीदी वेश
भेजता हूँ मैं उन्हें शुभकामनाएँ —
हो विजय !
भेजता विश्वास हूँ —
हे अभय !
अन्तिम विजय तुमको मिलेगी,
आततायी-दुर्ग की दृढ़ नींव
निश्चय ही हिलेगी,
स्वार्थमय
साम्राज्य-लिप्सा से सनी
सत्ता ढहेगी !
मुक्त जनता
उठ
बुलन्दी से
निडर बन
मातृ-भू की जय कहेगी !

जानते हैं हम
जानते हो तुम
जगत की वस्तु सर्वोत्तम
व्यक्ति की स्वाधीनता है
व्यक्ति के हित में !
धरा पर
एक मानव भी
न वंचित हो
प्रथम अधिकार से
स्वाधीन जीवन से।
अतः
संघर्ष जो तुम कर रहे हो,
देश का बूढ़ी शिराओं में
युवा बल भर रहे हो
शक्ति उससे पा रहा मैं भी !
राष्ट्र की स्वाधीनता का गीत
मिल कर गा रहा मैं भी !

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(76) दीप जलता है
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दीप जलता है !
सरल शुभ मानवी संवेदना का स्नेह भरकर
हर हृदय में दीप जलता है !
युग-चेतना का ज्वार
जीवन-सिंधु में उन्मद मचलता है !
दीप जलता है !

तिमिर-साम्राज्य के
आतंक से निर्भय
अटल अवहेलना-सा दीप जलता है !

जगमगाता लोक नव आलोक से,
मुक्त धरती को करेंगे
अब दमन भय शोक से !

लुप्त होगा सृष्टि बिखरा तम
हृदय की हीनता का ;
क्योंकि घर-घर
व्यक्ति की स्वाधीनता का
दीप जलता है !

बदलने को धरा
नव-चक्र चलता है !
नहीं अब भावना को
गत युगों का धर्म छलता है !

सकल जड़ रूढ़ियों की
शृंखलाएँ तोड़
नव, सार्थक सबल
विश्वास का
ध्रुव-दीप जलता है !

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(77) नया भारत
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संघर्षों की ज्वाला में
हँस-हँस,
नव-निर्माणों के गीत
उमंगों के तारों पर
जन-जन गाता है,
भारत अपने सपनों को
सत्य बनाता है !

मज़बूत इरादों को लेकर
श्रम-रत हैं नर-नारी,
उगलेगा फ़ौलाद भिलाई
झूमेगी क्यारी-क्यारी !

बदला कण-कण भारत का,
बदला जीवन भारत का !

भागे मूक उदासी के साये
उल्लासों के सूरज चमके हैं,
युग-युग के त्रास्त सताये
मुरझाये मुखड़े दमके हैं !

दुर्भाग्य दफ़न अब होता है,
उन्मुक्त गगन अब होता है !
कलियाँ खिलने को तरसायीं जो,
गदराई अमराई में
भोली-भोली कोयल
मन के गीत न गा पायी जो,
अब तो
आँगन-आँगन कैसा मौसम आया !
कलियाँ नाचीं,
कोयल ने मन-भावन गायन गाया !

जीवन में अभिनव लहरें हैं,
चंदन से बुद्बुद् छहरे हैं !

क्रोधित चम्बल
खिल-खिल हँसती है,
बाँधों की बाहों में
अलबेली-सी
अपने को कसती है !
लो हिन्द महासागर से
बादल घिर आया,
धानी साड़ी पहन
धरा ने आँचल लहराया !
जीवन के बीज नये
अब बोता भारत है !
मानवता के हित में
रत होता भारत है !

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(78) एशिया
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संगठित संघर्षरत सम्पूर्ण अभिनव एशिया
जागरित आलोकमय प्रत्येक मानव एशिया,
मुक्त अब साम्राज्यवादी चंगुलों से हो रहा
सभ्यता-साहित्य-संस्कृति-अर्थ-वैभव एशिया !

चीन-भारत मित्राता का जल रहा उर-उर दिया
स्नेह-पूरित ज्योति से जिसने उजागर युग किया,
वादियों दुर्गम पहाड़ों जंगलों औ’ मरुथलों
में बसे हर ग्राम-जनपद को बना सुर-पुर दिया !

दृढ़ सुरक्षा-भावना ले पंच शर्तों की शिला
सर उठाये व्योम में अविचल खड़ी सबको मिला,
शांति से सहयोग से अविराम निज-गन्तव्य तक
सत्य, पहुँचेगा नये युग-साधकों का काफ़िला !

अब न होगा चूर सपना आदमी की प्रीत का,
और बढ़ता जायगा विश्वास उसकी जीत का,
आँसुओं का शाह भी अब छीन पाएगा नहीं
माँ-बहन के कंठ से स्वर-राग सावन-गीत का !

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(79) माओ और चाऊ के नाम
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तुम्हारी मुक्ति पर
हमने मनाया था महोत्सव —
क्या इसलिए ?
तुम्हारे मत्त विजयोल्लास पर
बेरोक उमड़ा था
यहाँ भी हर्ष का सागर —
क्या इसलिए ?
नये इन्सान के प्रतिरूप में हमने
तुम्हारा
बंधु-सम स्वागत किया था —
क्या इसलिए ?

कि तुमµ
अचानक क्रूर बर्बर आक्रमण कर
हेय आदिम हिंस्र पशुता का प्रदर्शन कर,
हमारी भूमि पर
निर्लज्ज इरादों से
गलित साम्राज्यवादी भावना से
इस तरह अधिकार कर लोगे ?
युग-युग पुरानी मित्रता को भूल
कटु विश्वासघाती बन
मनुजता का हृदय से अंत कर दोगे ?

तुम
आँसुओं के शाह बन कर
मृत्यु के उपहार लाओगे ?
पूरब से उदित होकर
अँधेरे का, धुएँ का
भर सघन विस्तार लाओगे ?
साम्यवादी वेष धर
सम्पूर्ण दक्षिण एशिया पर स्वत्व चाहोगे ?

इतिहास को —
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा करुण साहाय्य
तुम दोगे उसे !
नव साम्यवादी लोक को —
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा दुखद अध्याय
तुम दोगे उसे !

बदलो,
अभी भी है समय ;
अपनी नीतियाँ बदलो !

अभी भी है समय
पारस्परिक व्यवहार की
अपनी घिनौनी रीतियाँ बदलो !

अन्यथा;
संसार की जन-शक्ति
मिथ्या दर्प सारा तोड़ देगी !
आत्मघाती युद्ध के प्रेमी,
हठी !
बस लौट जाओ,
अन्यथा
मनु-सभ्यता
हिंसक तुम्हारा वार
तुम पर मोड़ देगी !

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(80) रंग बदलेगा गगन
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अब नहीं छाया रहेगा
शीश पर काला कफ़न !
कुछ पलों में रंग बदलेगा गगन !

दे रहा संकेत मलयानिल
थिरक !
हर डाल पर
हर पात पर
नव-जागरण आभास
मोड़ लेता विश्व का इतिहास।
गत
भयावह तम भरा पथ
पीर बोझिल शोक युग,
शुभ आगमन आलोक युग !

स्वप्निल धरा गतिमान,
निसृत लोक में नव गान
गुंजित हर दिशा
बीती निशा, बीती निशा !

चिर-प्रतीक्षित
स्वर्ण सज्जित प्रात
आया द्वार
लेकर हर हृदय को
हर्ष का, उत्साह का उपहार !

मानव लोक से अब दूर होगा
वेदना का तम गहन,
भारी उदासी से दबा वातावरण !
नव रंग बदलेगा गगन !
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