डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह === अभियान
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कविताएँ
1 मशाल
2 बन्धन-मुक्त
3 कहाँ अवकाश ?
5 मृत्यु-दीप
6 वैषम्य
7 पराजय
8 व्यष्टि
9 अन्तर-ज्वाला
10 बेबसी
11 प्रलय-संगीत
13 युग-कवि
14 संघर्ष
15 मेरी आहें
16 चेतना
17 तरुण
18 नारी
19 देश-दीपक
20 बलिया
21 प्रभंजन
22 परिवर्तन हो
23 नया सबेरा
24 साधक
25 तुलसीदास (1)
26 तुलसीदास (2)
27 प्रेमचंद
28 गांधी (1)
29 गांधी (2)
30 गांधी (3)
31 गांधी (4)
32 गांधी (5)
33 मालवानां जयः
34 उज्जयिनी
35 खेतिहर
36 खेतों में
37 अभियान
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(1) मशाल
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बिखर गये हैं ज़िन्दगी के तार-तार !
रुद्ध-द्वार, बद्ध हैं चरण,
खुल नहीं रहे नयन ;
क्योंकि कर रहा है व्यंग्य
बार-बार देखकर गगन !
भंग राग-लय सभी
बुझ रही है ज़िन्दगी की आग भी !
आ रहा है दौड़ता हुआ
अपार अंधकार !
आज तो बरस रहा है विश्व में
धुआँ, धुआँ !
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शक्ति लौह के समान ले
प्रहार सह सकेगा जो
जी सकेगा वह !
समाज वह —
एकता की शृंखला में बद्ध,
स्नेह-प्यार-भाव से हरा-भरा
लड़ सकेगा आँधियों से जूझ !
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नवीन ज्योति की मशाल
आज तो गली-गली में जल रही,
अंधकार छिन्न हो रहा,
अधीर-त्रस्त विश्व को उबारने
अभ्रांत गूँजता अमोघ स्वर,
सरोष उठ रहा है बिम्ब-सा
मनुष्य का सशक्त सर !
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1949
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(2) बन्धन-मुक्त
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बन्धन से तुमको प्यार न हो !
बंदी शत-शत बन्धन में यह उगता अभिनव संसार न हो!
बन्धन से तुमको प्यार न हो!
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युग के सैनिक हो, क्रांति करो, नवयुगकी बढ़कर सृष्टि करो,
मानवता के संताप-क्लेश, पीड़ा, अभाव सब शीघ्र हरो, बलिदानों की बलिवेदी पर
डरना तुमको स्वीकार न हो!
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अगणित मानव सैनिक बन कर आर्थिक हमले में कूद पड़ो,
प्राणों का रक्त बहाने को युग-कवि ! गौरव का गान पढ़ो,
नूतन दुनिया में क्षणभर भी
जनजन का जीवन भार न हो!
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फिर महाप्रलय के गर्जन से वसुधा का अंतर कंपित हो,
पूँजी की ज़ंजीरों में बँध अब और न जनता शोषित हो,
समता की दृढ़ तलवारों से
वैभव पर बंद प्रहार न हो !
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यह दो-युग का संधिस्थल है संघर्ष छिडे़गा वर्गों का,
सामाजिक-दर्शन बदलेगा, क्षय होगा स्थापित ‘स्वर्गों’ का,
दुःख कहीं तो एक ओर सुख
का बहता पारावार न हो !
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1945
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(3) कहाँ अवकाश ?
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हमको कहाँ अवकाश है ?
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जब मौत से हम लड़ रहे,
प्रतिपल प्रगति कर बढ़ रहे,
ये राह के कंटक सभी
लो धूल में अब गड़ रहे,
करना अँधेरे का हमें बढ़कर अभी ही नाश है !
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हमने न देखे शूल भी,
हमने न देखी धूल भी,
हमने न देखे राह के
हँसते हुए मधु फूल भी,
हमने न जाना प्यार क्या औ’ मोह का क्या पाश है !
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हम हैं नहीं जो कल रहे,
हम चाल अपनी चल रहे,
क्या हार में, क्या जीत में
हम एक-से प्रतिपल रहे,
दुनिया बदलने के लिए अभिनव अटल विश्वास है !
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1945
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(4) ग्रीष्म
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तपता अम्बर, तपती धरती,
तपता रे जगती का कण-कण !
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त्रस्त विरल सूखे खेतों पर
बरस रही है ज्वाला भारी,
चक्रवात, लू गरम-गरम से
झुलस रही है क्यारी-क्यारी,
चमक रहा सविता के फैले
प्रकाश से व्योम-अवनि-आँगन !
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जर्जर कुटियों से दूर कहीं
सूखी घास लिए नर-नारी,
तपती देह लिए जाते हैं,
जिनकी दुनिया न कभी हारी,
जग-पोषक स्वेद बहाता है,
थकित चरण ले, बहते लोचन !
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भवनों में बंद किवाड़ किये,
बिजली के पंखों के नीचे,
शीतल ख़स के परदे में
जो पड़े हुए हैं आँखें मींचे,
वे शोषक जलना क्या जानें
जिनके लिए खड़े सब साधन !
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रोग-ग्रस्त, भूखे, अधनंगे
दमित, तिरस्कृत शिशु दुर्बल,
रुग्ण दुखी गृहिणी जिसका क्षय
होता जाता यौवन अविरल,
तप्त दुपहरी में ढोते हैं
मिट्टी की डलियाँ, फटे चरण !
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1949
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(5) मृत्यु-दीप
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कौन-से दीपक जले ये ?
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विश्व में जब सनसनातीं वेग से नाशक हवाएँ,
साथ जिनके आ रही हैं हर मनुज-सर पर बलाएँ,
हो रहा जीवन-मरण का खेल जब रक्तिम-धरा पर,
मिट रहे मानव अनेकों घोर क्रन्दन का जगा स्वर,
त्रस्त-पीड़ित जब मनुजता कौन से दीपक जले ये ?
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युद्ध के बादल गगन में, भूख धरती पर खड़ी है,
सांध्य-जीवन की करुण तम यह असह दुख की घड़ी है,
मृत्यु का त्यौहार है क्या ? विश्व-मरघट में जले जो,
स्नेह बिन बाती जलाकर शून्य में रो-रो पले जो ?
प्रज्वलित हैं जब चिताएँ कौन-से दीपक जले ये ?
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1942
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(6) वैषम्य
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नभ में चाँद निकल आया है !
दुनिया ने अपने कामों से
पर, विश्राम नहीं पाया है !
नभ में चाँद निकल आया है !
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कुछ यौवन के उन्मादों में
भोग रहे हैं जीवन का सुख,
मदिरा के प्यालों की खन-खन
में उन्मत्त पड़े हैं हँसमुख,
वे कहते हैं, किसने इतना
जगती में सुख बरसाया है !
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कुछ सूनी आहें ले दुख की
सौ-सौ आँसू आज गिराते,
हत-भाग्य समझकर जीवन में
अपने को ही दोषी ठहराते,
वे कहते हैं, जाने कितना
जग में दुख-राग समाया है !
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1944
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(7) पराजय
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मिल रही है हार !
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मनुज का व्यवहार क्या,
सभ्यता विस्तार क्या,
स्वार्थ की दुर्भावना से मिट रहा संसार !
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ज्वार-पूरित पूर्ण सागर,
और नौका क्षीण जर्जर,
है बड़ा पागल मनुज जो तोड़ता पतवार !
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खींचता प्रतिपल प्रलोभन,
मिट रहा है मुक्त-जीवन,
कह रहा, पर, छल भरे स्वर, ‘आज नवयुग द्वार !’
मिल रही है हार !
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1945
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(8) व्यष्टि
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मैं केवल अपने सुख-दुख का क्या गान करूँ ?
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देव ! तुम्हारी जन-नगरी में
महानाश का तांडव नर्तन,
अगणित मनुजों की लाशों पर
क्रूर पिशाचों का पद-मर्दन,
अपने घावों का फिर मैं क्या आख्यान करूँ ?
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भय संस्कृति मिटने का प्रतिपल,
विश्व-सभ्यता पतनोन्मुख है ;
अस्थिरता, उथल-पुथल जीवन,
आशंका प्रतिक्षण सम्मुख है,
फिर अपने ही टिक रहने का क्या ध्यान करूँ ?
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जिसने बंधन स्वयं बनाये,
पग-पग पर घुटने टेक दिये,
या अपने ही हाथों बढ़कर
रक्ताप्लावित युग-प्राण किये,
उस मानव पर फिर मैं कैसे अभिमान करूँ ?
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1945
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(9) अंतर-ज्वाला
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अपने सुख को तजकर किसने संघर्षों को सिर मोल लिया ?
किसने निस्वार्थ, अभावों में निज तन-मन-धन से योग दिया ?
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यह दुनिया अपनी ही जड़ता दुर्बलता से अनभिज्ञ रही,
जिसने अपने को बिन सोचे औरों की बातें खूब कहीं !
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रोटी के टुकड़ों पर मानव का सर्वस्व दिया है लुटने,
जिसने, प्रतिहिंसा की ज्वाला में लाखों शीश दिये कटने !
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अनगिनती अभिलाषाओं के पाने के अंध-प्रयासों में,
जिसने मानवता की परवा छोड़ी अपने अभ्यासों में !
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पशुता का आदिम रूप वही उतरा है फिर से धरती पर
भीषण नर-संहार मचा है, गूँजा सामूहिक क्रन्दन-स्वर !
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व्याकुलता जाग रही प्रतिक्षण सम्पूर्ण विश्व के आँगन में,
धधक रही है अंतर-ज्वाला नव-परिवर्तन की कण-कण में !
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अब आने वाली है आँधी, कट जाएंगे जिससे बंधन,
अगणित शोषक-साम्राज्यों के भू-लुण्ठित होंगे सिंहासन !
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1942
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(10) बेबसी
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आज पड़े प्राणों के लाले !
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धरती पर वैषम्य बड़ा है,
हर पथ पर हैवान खड़ा है,
घोर-निराशा के जीवन में आज घुमड़ते बादल काले !
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रोटी पर संघर्ष मचा है,
जिससे कोई भी न बचा है,
मानव, मानव से लड़ता है, ले भीषण हथियार निराले !
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अब जगती में आग लगेगी,
विद्रोही हुंकार जगेगी,
क्या अब वैभव रह पाएगा जीवित, उन घड़ियों को टाले ?
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इतिहास बने बलिदानों का,
उत्सर्ग करो निज प्राणों का,
पीड़ित मानवता की जय हित, ओ कवि,प्रेरक गाने गा ले !
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1945
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(11) प्रलय-संगीत
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आज तो हुंकार कर स्वर,
ज़ोर से ललकार कर स्वर,
जागरण-वीणा बजा, उन्मुक्त भैरव-राग से, मैं
गीत गाने को चला हूँ !
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शीघ्र तोड़े बंधनों को,
तीव्र करदे धड़कनों को,
वेग से विप्लव मचाकर, सृष्टि करदे और नूतन ;
प्रेरणा दे, वह कला हूँ !
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प्यार का संसार लाने,
शांति का उपहार लाने,
है युगों से व्यस्त जीवन, ध्येय को कर पूर्ण अर्पण
साधना में ही पला हूँ !
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जो विघातक नीति जग की,
स्वाँग की जो प्रीति जग की,
आज इनको नष्ट करने का किया है प्रण हृदय से,
ज्वाल रक्षा हित जला हूँ !
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1945
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(12) कवि
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मैं विद्रोही कवि, मैं नवयुग को निर्मित करने वाला हूँ !
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मैं शिव बनकर सारी जर्जर सृष्टि भस्म करने को आया,
बस मस्ती से कंटक-पथ पर ही चलना मुझको भाया ;
धधक उठी लपटें धू-धू कर मेरे एकमात्र इंगित से,
अब मिट जाएगी दुनिया से शोषक-वर्गों की छल-माया,
नष्ट-भ्रष्ट कर सारे बंधन, लाया नव-जीवन-ज्वाला हूँ !
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परिवर्तन का आकांक्षी हूँ, मन्थन कर सकता सागर का,
वह भीषण आँधी हूँ जिससे कँपता वक्षस्थल अम्बर का,
मैं नवयुग का अग्रदूत हूँ, नयी व्यवस्था का निर्माता,
मैं नवजीवन का गायक हूँ, साधक अभिनव प्राणद स्वर का,
सजग-चितेरा नव-समाज को मैं चित्रित करने वाला हूँ !
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मैं अजेय दुर्दम साहस ले दृढ़ता से करता आन्दोलन,
थर-थर कँप जाता है जिससे अवरोधी धरती का कण-कण,
युग के अगणित संघर्षों में, उलझा रहता मेरा जीवन
जिन संघर्षों से व्याकुल हो मानव कर उठते हैं क्रन्दन,
मैं इन संघर्षों से निर्भय, वज्रों को सहने वाला हूँ !
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1945
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(13) युग-कवि
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मेरे भावों का वेग प्रखर,
मेरी कविता की पंक्ति अमर,
मेरी वीणा युग-वीणा है
कब मौन हुए हैं उसके स्वर ?
मैं तो गाता रहता प्रतिपल !
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मेरे स्वर में है आकर्षण,
आकर्षण में जाग्रत जीवन,
जीवन में आशा-कांक्षा का
रखता मादक नूतन यौवन,
करते जगमग लोचन निश्छल !
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मेरा युग दीख रहा उज्वल,
नर्तन करते तारे झलमल,
जिसकी धरती पर बहती है
शीतल-धार-सुधा की अविरल,
छाये रहते जीवन-बादल !
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1944
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(14) संघर्ष
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क्रांति-पथ पर बढ़ रहा हूँ द्रोह की ज्वाला जगाने !
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आज जीवन के सभी मैं तोड़ दूंगा लौह-बंधन,
शोषितों को आज अर्पित प्राण की प्रत्येक धड़कन
स्वत्व के संघर्ष में, मैं पीड़ितों की जीत के हित
अब चला हूँ गीत गाने !
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दुःख-गिरि के दृढ़-हृदय पर आज भीषण वार करने,
चल रहा है मन, भंयकर मौत से व्यापार करने,
साथ मेरे चल रही हैं घोर तूफ़ानी हवाएँµ
राह - बाधाएँ हटाने !
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विश्व नूतन वेश लेगा दीखता जो क्षुब्ध जर्जर,
दे रहा जिसमें सुनायी सिर्फ़ क्रन्दन का करुण स्वर,
हूँ सतत संघर्ष रत मैं, रक्त से डूबी धरा पर
शांति, समता, स्नेह लाने !
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1946
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(15) मेरी आहें
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मेरी आहें, मेरी आहें !
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इनमें ज्वाला जलती अविरल,
इनमें तूफ़ानों-सी हलचल,
ये विप्लव करने को चंचल,
मेरी आहें, मेरी आहें !
.
इनमें भूचालों-सा कंपन,
हैं विद्रोही दुर्जय भीषण,
ध्वस्त सभी कर देंगी बंधन,
मेरी आहें, मेरी आहें !
.
पीड़ित जनता की हैं संबल
स्वर्ग बना सकती हैं भूतल,
शस्त्रों-से बढ़ रखती हैं बल,
मेरी आहें, मेरी आहें !
.
ये आहें हुंकार बनेंगी,
दानवता से आज लड़ेंगी,
‘डरना मत’, हर बार कहेंगी,
मेरी आहें, मेरी आहें !
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1944
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(16) चेतना
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प्रति हृदय में शक्ति दुर्दम,
मूल्य अपना माँगता श्रम,
जागरण का भव्य उत्सव,
सृष्टि का सब मिट गया तम !
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विश्व जीवन पा रहा है,
गीत अभिनव गा रहा है,
कर्म का उत्साह-निर्झर
आज उमड़ा जा रहा है !
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आज आगे मैं बढूंगा,
आपदाओं से लडूंगा,
राह की दुर्गम सभी
ऊँचाइयों पर जा चढूंगा !
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1947
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(17) तरुण
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दुनिया के अगणित मुक्त-तरुण
बंधन की कड़ियाँ तोड़ रहे !
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युग-जनता ने करवट बदली
आज़ाद गगन का मूल्य गहा,
जनता ने जाना-पहचाना
‘कटु पशुबल का हो नाश’, कहा !
जाग्रत मनुज लुटेरों के गढ़
रज-सम ढूहों से फोड़ रहे !
.
सम्मुख दृढ़ चट्टानें आयीं
पथ की बाधाएँ बन दुर्दम,
भीषण-शर के आघात हुए
नव-रूप मनुज पर छा निर्मम,
दानवता से जूझ रहे जन-
जन, दुख के बादल मोड़ रहे !
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1943
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(18) नारी
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चिर-वंचित, दीन, दुखी बंदिनि !
तुम कूद पड़ीं समरांगण में,
भर कर सौगन्ध जवानी की
उतरीं जग-व्यापी क्रन्दन में,
युग के तम में दृष्टि तुम्हारी
चमकी जलते अंगारों-सी,
काँपा विश्व, जगा नवयुग, हृत-
पीड़ित जन-जन के जीवन में !
.
अब तक केवल बाल बिखेरे
कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसू भरकर
काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर-स्पर्शित
पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम
निकली हो बनकर अभिशापिन !
.
बलिदानों की आहुति से तुम
भीषण हड़कम्प मचा दोगी,
संघर्ष तुम्हारा न रुकेगा
त्रिभुवन को आज हिला दोगी,
देना होगा मूल्य तुम्हारा
पिछले जीवन का ऋण भारी,
वरना यह महल नये युग का
मिट्टी में आज मिला दोगी !
.
समता का, आज़ादी का नव-
इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम
तो आग लगाने को आयीं,
है साथी जग का नव-यौवन,
बदलो सब प्राचीन व्यवस्था,
वर्ग-भेद के बंधन सारे
तुम आज मिटाने को आयीं !
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1949
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(19) देश-दीपक
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देश दीपक
स्नेह आहुतियाँ,
दमन की आँधियाँ
पर, लौ लहर कर व्योम में
जलती रहे, जलती रहे !
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शीश बलिवेदी सतत चढ़ते रहें,
परतन्त्रता-युग-तम बदल जाये
प्रकाशित मुक्ति के सुन्दर क्षणों में !
.
जीत के स्वर, शांति के स्वर,
और नव-निर्माण के स्वर
साधना चलती रहे, चलती रहे !
गुंजित गगन, मुखरित जगत हो,
इनक़लाबी दृढ़ दहाड़ें
चिन्ह अन्यायी हुकूमत का मिटा दें,
त्याग का, बलिदान का,
नव-प्रेरणा का ज्वार ऐसा
जन-समुन्दर में बहेगा जब
तभी यह क्रांति का इतिहास
निर्मित हो सकेगा !
तोड़ पाएगा तभी
परतंत्रता की लौह-कड़ियों को
बँधा, जकड़ा हुआ यह राष्ट्र !
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बुझ गया यदि देश-दीपक,
तो अँधेरा क्या
मरण-अभिशाप होगा !
लूट का आरम्भ होगा !
घोर शोषण की कहानी का
प्रथम वह पृष्ठ होगा !
इसलिए —
बलिदान की है माँग,
आओ नौजवानो !
आज माता माँगती है
प्राण का उत्सर्ग !
धरती को बनाओ स्वर्ग !
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1945
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(20) बलिया
(सन् 1942 की क्रांति का जन-गढ़)
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यह जन-गढ़ है अविजित-दुर्दम, है खेल नहीं टकराना,
इसने न कभी अत्याचारों के आगे झुकना जाना !
.
हिमगिरि उच्च-शिखर-सा वसुधा पर अविचल आज़ाद खड़ा,
पशुबल की ‘गोरी’ सत्ता से क़दम-क़दम पर अड़ा-लड़ा !
.
मानवता का जीवित प्रतीक, आज़ादी हित मतवाला,
पड़ न सकेगा इसके मुख पर साम्राज्यवाद का ताला !
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आज जवानों ने खोल दिए हैं दृढ़ सीने फ़ौलादी,
इनक़लाब के चरण थके कब, जब ज्वाला ही बरसा दी !
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तुम आँधी बन बढ़ते जाओ, साहस से, उन्मुक्त-निडर,
तुम पर बंदी माँ की ठहरी है रक्षा की आस अमर !
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शोषित जन-जन साथ तुम्हारे अगणित कंधों का बल,
शत-शत कंठोंका विजयी स्वर गूँज रहा निर्भय अविरल !
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खेतों-खलिहानों में गिरता है जो शव-रक्त तुम्हारा,
उससे फूटेगा आज़ादी का नूतन कोंपल प्यारा !
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आगामी सदियाँ समझेंगी उसको निज प्राणों की थाती,
रोज़ जलेगी उस धरती पर बलिदानों की स्मृति-बाती !
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1943
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(21) प्रभंजन
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आ रहा तूफ़ान है,
जीत का वरदान है,
शक्ति का ही गान है,
देश के अभिमान पर
प्राण का बलिदान है !
आ रहा तूफ़ान है !
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स्वत्व का संग्राम है,
आज कब विश्राम है
युद्ध जब प्रतियाम है ?
गर्व मिथ्या नष्ट है,
स्वार्थ का क्या काम है ?
स्वत्व का संग्राम है !
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विश्व में पाखंड जो,
द्वन्द्व है उद्दण्ड जो,
कँप रहा भूखंड जो,
अग्नि में सब जल रहा
हो रहा है खंड जो !
विश्व में पाखंड जो !
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मुक्ति का उपहार है,
स्नेहमय संसार है,
शांति की झंकार है,
लूट शोषण, नाश की
नीति पर अधिकार है !
मुक्ति का उपहार है !
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क्रांति का इतिहास है,
पास में विश्वास है,
सृष्टि में मधुमास है,
विश्व की बढ़ती हुई
मिट रही अब प्यास है !
क्रांति का इतिहास है !
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छिप चुके कटु शूल हैं,
खिल रहे मधु फूल हैं,
कौन जो प्रतिकूल है ?
देख जीवन, आज का
कह रहा जो, ‘भूल है’ !
छिप चुके कटु शूल हैं !
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1944
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(22) परिवर्तन हो !
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परिवर्तन हो !
नव-जीवन हो !
जग के कण-कण में
जागृति का नव-कंपन हो !
युग-युग के बाद उठें फिर से
उर-सागर में लहरें सुख की,
स्रोत बहे जीवन का निर्मल !
जन-जन-मन
संसार सुखी हो !
आएँ मधु-क्षण
चिर वंचित संसृति में फिर से,
पात्रा सुधा का भर-भर जाए,
मादक सौरभ,
सपने मीठे,
शांति मधुर हो,
दुनिया का उजड़ा झुलसाया
सूखा उपवन
नन्दन-वन हो !
परिवर्तन हो,
परिवर्तन हो !
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1945
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(23) नया सबेरा
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सबेरा नया आ रहा है !
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युगों का अँधेरा मिटाकर,
बड़ा लौह-परदा हटाकर,
सबेरा नया आ रहा है !
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नयी रोशनी में नहा कर,
पुराना गला सब बहा कर,
सबेरा नया आ रहा है !
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नवल-शक्ति दुर्जेय भरता,
सबल शत्रु पर वार करता !
सबेरा नया आ रहा है !
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मनुज को नये गान देता,
सरल स्नेह मुसकान देता,
सबेरा नया, आ रहा है !
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1949
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(24) साधक
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व्यर्थ सकल आयोजन, बाधक !
इनसे न रुका है, न रुकेगा
निर्झर-सा बहता दृढ़ साधक !
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पथ पर छायी है बीहड़ता,
युग-जीवन में हिम-सी जड़ता,
पर, पिघल सभी तो जाता है
साहस-ज्वाला का स्रोत अथक !
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मन की चट्टानों के सम्मुख,
हो जाते हैं तूफ़ान विमुख,
सदा जला है, सदा जलेगा
मानवता का मंगल-दीपक !
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है मनुज तुम्हारी जय निश्चित,
क्षण-क्षण की सिहरन अपराजित,
परिवर्तन में हो जाएगा
प्रतिक्रियाओं का जाल पृथक !
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1944
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(25) तुलसीदास
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ओ महाकवि !
गा गये तुम
गीत —
जीवन के मरण के,
भाव-पूरक, मुक्त-मन के !
सत्य, शिव, सौन्दर्य-वाहक !
गीत —
जो अभिनव अमर
धरती-गगन के !
हैं अपार्थिव और पार्थिव
लोक के परलोक के !
साहस, प्रगति, नव-चेतना,
नव-भावना, नव-कल्पना
आराधना के गीत !
जिनमें गूँजता है प्राणमय संगीतµ
मानव हो न किंचित देखकर तू
काल के निर्दय भयंकर रूप से भयभीत,
निश्चित मनुजता की लिखी है जीत !
ओ अमर साधक !
नयी अनुभूतियों के देव,
तुमने जीर्ण-संस्कृति का किया उद्धार ;
श्रद्धा से झुकाता शीश यह संसार !
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छा रहा था भय
कि जब मानव भटकता था अँधेरे में,
विवशता के कठिन आतंक-घेरे में ;
धुआँ चहुँ और झूठे धर्म का
जब घिर रहा था व्योम में,
औ’ वास्तविकता जा छिपी थी
चक्र, कुण्डल, मंत्र, नाड़ी की
विविध निस्सार माया में,
भ्रमित था जग सकल
उलझी अनोखी रीतियों में,
तब उठे तुम
और तुमने थाह ले ली
पूर्ण ‘मानस’ भाव के बहते समुन्दर की !
किया विद्रोह अविचल,
बन गया जो त्रास्त, पीड़ित, नत
मनुजता का सबल संबल !
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1948
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(26) तुलसीदास
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महाकवि तुम, तुम्हारा गीत
सच, हम गा नहीं सकते !
.
अँधेरा छा रहा था
जब कि तुम आये ;
किन्तु
वह सारा धुआँ छल का
बिखर कर उड़ गया
ज्योंही तुम्हारे स्वर
गगन में मुक्त मँडराए !
कि तुमको देखकर
लाखों दुखी जन के नयन
सुख-वारि से भर डबडबाए !
और उजड़े भग्न, हत, वीरान घर-घर में
नयी आशा, नये विश्वास के दीपक
विपद् कर भंग
फिर से टिमटिमाए !
तुम्हारी ज्योति के सम्मुख
तिमिर-पट छा नहीं सकते !
महाकवि तुम, तुम्हारा गीत
सच, हम गा नहीं सकते !
.
धरा पाकर तुम्हें जब मुसकरायी थी
बड़े उत्साह से प्रति प्राण में
नव चेतना आकर समायी थी !
तुम उसी जन-भावना के बन गये वाहक
अमर हे संत !
संस्कृति के विधायक,
हम तुम्हारी थाह जीवन में
कभी भी पा नहीं सकते !
महाकवि तुम, तुम्हारा गीत
सच, हम गा नहीं सकते !
.
1949
----------------------------------
(27) प्रेमचंद
----------------------------------
ओ कथाकार !
युग के सजग, मुखरित, अमिट इतिहास,
जन-शक्ति के अविचल प्रखर विश्वास !
दृष्टा थे भविष्यत् के ;
धनी भावों-विचारों के !
अमर शिल्पी
मनुज-उर के
अकृत्रिम, सूक्ष्म-विश्लेषक !
सितारे-तीव्र
मेघाच्छन्न जीवन के गगन के,
रूढ़ियाँ-बंधन शिथिल तुमने किये
अपनी अरुक, दृढ़ लेखनी के बल !
सभी ये थरथरायीं
काल्पनिक, प्राचीन, झूठी, जन-विरोधी
धारणाएँ, मान्यताएँ ;
धर्म-ग्रन्थों से बँधी
निर्जीव, मिथ्या, शून्य की बातें
अनोखी, खोखली
जो हो रही थीं प्रगति-बाधक !
पतित साम्राज्यवादी-शक्तियों का
नग्न-चित्रण कर
बनायी भूमिका
जनबल अथक-संघर्ष की !
.
ओ अमर साधक !
सतत चिंतित रहे तुम
स्वर्ग धरती को बनाने !
अभय सामाजिक सुधारक,
युग-पुरुष !
तुमको, तुम्हारी ज्योति को
क्या ढक सकेंगी काल-रेखाएँ ?
नहीं अब शेष साहस जो
अँधेरा सिर उठाए !
तुम प्रगति-पथ की
नयी ज्योतित दिशा का
मार्ग-दर्शन कर रहे हो !
प्राण में बल भर रहे हो !
.
1949
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(28) गांधी
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मानव-संस्कृति के संस्थापक, नव-आदर्शों के निर्माता,
आने वाली संसृति के तुम निश्चय, जीवन भाग्य-विधाता !
.
सत्य, अहिंसा की सबल नींव पर, सार्थक निर्मित किया समाज,
देश-देश में नगर-नगर में गूँज उठी नयी-नयी आवाज़ !
.
सदियों की निष्क्रियता पर तुम कर्मदूत बनकर उदित हुए,
विगत युगों के भौतिक-शृंग तुम्हारी धारा से विजित हुए !
.
नैतिक-हीना सघन निशा में धु्रव दिया तुम्हीं ने सतत प्रकाश,
घिरे निराशा के घन में तुम ने, भर दी तड़ित-चमक-सी आश !
.
1945
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(29) गांधी
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त्रास्त दुर्बल विश्व को सुख, शक्ति के उपहार हो तुम !
.
मनुज जीवन जब जटिल, गतिहीन होकर रुक गया है,
शृंखलाएँ बंधनों की तोड़ता जब थक गया है,
दमन, अत्याचार, हिंसा से प्रकम्पित झुक गया है,
एक सिहरन, नव-प्रगति के, शांति के अवतार हो तुम !
.
कर युगान्तर युग-पुरुष तुम स्वर्ण नवयुग ला रहे हो,
नग्न-पशुबल-कर्म गाथा तुम सुनाते जा रहे हो,
मुक्त बलिपथ पर निरन्तर स्नेह-कण बरसा रहे हो,
धैर्य, नूतन चेतना, उत्साह के संसार हो तुम !
.
पीड़ितों, वंचित-दलित-जन के उरों में आश भर-भर
प्राणमय, संदेशवाहक, साम्य का नव-गीत गा कर,
मुक्त उठने के लिए तुम दे रहे हो पूर्ण अवसर ;
देख मानवता जगी, दुर्जेय कर्णाधार हो तुम !
.
1946
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(30) गांधी
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प्राची के उगे तुम सूर्य
सहसा बुझ गये !
पर, तुम्हारी
फैलती ही जा रही है ज्योति !
दिग-दिगन्तों में समा,
अति शीत ईथर के
असीमित तम किनारों तक,
कि मन की सूक्ष्मतम सब
घाटियों के अंध तम से बंद
पट ज्योतित !
तुम्हारी दिव्य शाश्वत
आत्मा के तेज से
ये धुल गये
जीवन-मलिनता के
अशिव सब भाव !
युग-युग की दबी
खंडित धरित्री पर
गयी बह सत्य अमृत धार !
तुमने कर दिया
उपचार घावों का,
मनुजता के सभी
आधार दावों से !
जगत को कर दिया आश्वस्त
देकर मुक्त विश्व-विधान,
जो सुखमय भविष्यत् का
अमर वरदान !
.
1949
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(31) गांधी
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तुमने बुझते
युग-मानव के उर-दीपक में
निज जीवन का संचित स्नेह ढाल
अभिनव ज्योति जगायी है !
पर, उस दिन को जोह रहे हम
जब कह पाएँ
किरणों की आभा में जिसकी
सुन्दर जगमग झाँकी भव्य सजायी है !
मानवता की मानों हुई सगाई है !
नव-मानव शिशु को तुमने जन्म दिया,
जीने का अधिकार दिया,
निर्मल सुख शांति अमर उपहार दिया,
होठों को निश्छल मुक्त हँसी का
वरदान दिया,
कोटि-कोटि जन को रहने को
आज़ाद नया हिन्दुस्तान दिया !
जिसके नभ के नीचे
सत्य, अहिंसा का नूतन फूल खिला,
फैली बर्बर जर्जर संस्कृति के भीतर
ज्ञान-सुगन्ध हवा ;
जिसने पीड़ित जन-जन का ताप हरा !
.
तुमने भर ली अपने उर में
युग की सारी मर्म व्यथा !
जिसको क्षण भर देख लिया केवल
उसने समझा अब जीवन पूर्ण सफल !
याद तुम्हारी शोषित दुनिया का संबल !
एक दिवस उट्ठेगा निश्चय
सोया, भूला समुदाय
तुम्हारा ही प्रेरक-स्वर सुनकर !
.
1949
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(32) गांधी
----------------------------------
आज हमारी श्वासों में जीवित है गांधी,
तम के परदे पर मन के ज्योतित है गांधी,
जिससे टकरा कर हारी पशुता की आँधी !
.
सिहर रही हैं गंगा, यमुना, झेलम, लूनी,
प्राची का यह लाल सबेरा लख कर ख़ूनी,
आज कमी लगती जग को पहले से दूनी !
.
पर, चमक रही है मानव आदर्शों की ज्वाला,
जिसको गांधी ने तन-मन के श्रम से पाला,
हर बार पराजित होगा युग का तम काला !
.
बुझ न सकेगी यह जन-जीवन की चिनगारी,
बढ़ती ही जाएगी इसकी आभा प्यारी,
निश्चय ही होगी वसुधा आलोकित सारी !
.
1949
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(33) मालवानां जयः
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वर्ष बीते दो हज़ार !
बढ़ रहे थे देश में जब
क्रूर-अत्याचार नित हूणों-शकों के,
और जनता खो रही थी
आत्म-गौरव, शक्ति अपनी,
सभ्यता, सम्मान अपना !
धर्म, संस्कृति का पतन
जब हो रहा था तीव्र गति से,
छा रहे थे भय-निराशा मेघ आ-आ !
संगठित भी थी नहीं जब
वीर मालव-जाति सारी,
राष्ट्र-गौरव भूलकर
संकीर्ण बनते जा रहे थे
मालवों के हृदय दुर्बल !
नष्ट होता जा रहा था
सब पुरातन स्वस्थ वैभव !
छा रहा था देश में
गहरा अँधेरा जब भयंकर,
रात दुख की बढ़ रही थी
नाश के साधन अमित एकत्रा कर;
ठीक ऐसे ही समय
ज्योति देखी विश्व ने,
नव-जागरण के स्वर सुने !
उजड़े हुए, बिगड़े हुए,
मिटते हुए, सोते हुए
इस देश के जन-प्राण को
आ वीर विक्रम ने जगाया !
.
संगठन कर पूर्ण बिखरी शक्ति का
संसार को अनुभव कराया —
मिट नहीं सकते कभी हम,
त्याग हम में है अपरिमित,
बाहुओं में बल अमित,
उद्घोष करते हैं —
अभय मालव, अभय भारत !
अमर मालव, अमर भारत !
.
1945
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(34) उज्जयिनी
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कालिदास-विक्रम की नगरी उज्जयिनी को बारम्बार प्रणाम!
.
बहती जिसके अंतरतम में क्षिप्रा की मधु धारा पावन,
आठों प्रहर सजग रहता दृढ़ अविजित ‘महाकाल’का शासन,
जहाँ शून्य भी अनुभव करता प्रतिपल ‘मेघदूत’ की सिहरन,
जो धरती पर उतरी स्वर्गिक वैभवशाली नव अलका बन,
जिसके कण-कण में सम्मोहन, जिसके रवि-शशि-तारक सकल ललाम !
.
कृष्ण-सुदामा का स्नेहांचल जिसके जन-मानस पर छाया,
कला लिए वासवदत्ता की प्रति रमणी की सुगठित काया,
पीर मछन्दर, योगि भर्तृहरि का फैला गुरु जीवन-चिंतन,
दुर्लभ जिसकी काली-उजली शीतल सुख-रातों का बंधन,
शांत, सत्य, शिव, सुन्दर जीवन, अक्षय नैसर्गिक शोभा अभिराम !
.
1950
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(35) खेतिहर
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(खेत। बीच-बीच मे फूस की पुरानी जर्जर झोंपड़ियाँ। दिन का जलता हुआ तीसरा प्रहर।
(किसान गुनगुनाता है)
.
उठाओ हल, चलाओ हल !
कि गरमी पड़ रही बेहद
(आकाश की ओर देखकर)
आज आकर ही रहेंगे
मेह के बादल !
चलाओ हल, चलाओ हल !
.
पत्नी से —
चलो तुम भी
उगानी है अरे मक्का,
अकेले बन न पाएगा
तुम्हारा चाहिए धक्का !
.
पत्नी —
(हैरान-सी होकर — )
.
मगर बिटिया
पड़ी बीमार है ज्वर से,
तुम्हें यह सूझता है क्या ?
दिखायी भी नहीं देता
कि वह बेहोश-सी कैसी
पड़ी चुपचाप
बोलो किस तरह उसको
अकेली छोड़कर जाऊँ ?
चढ़ाना है तुम्हें परसाद माता का
कहीं से आज पैसे चाहिए ही,
खेत को छोड़ो
कहीं से दाम की ऐसी जुगत सोचो
कि देवी पा सकें अब भेंट !
कि देवी पा सकें अब भेंट !
.
किसान —
.
बढ़ता जा रहा है ब्याज,
दस से सौ रकम हा,
हो गयी है आज !
पटवारी हमारे खेत पर हावी,
फ़सल सारी उसी ने ली
कराकर कोठरी खाली !
खड़े हैं हम लुटा कर घर,
भरे ये हाथ अपने झाड़कर !
फिर भी न देगा आज कोई भी
हमें टुकड़े ज़रा से हाय ताँबे के
वही तो धर्म का अवतार पटवारी
बताता है स्वयं को जो
भयंकर रूप धारण कर
हमें दुतकार देता है,
नहीं है आस कोई आज ऋण देगा !
.
बिटिया —
.
अरे हा !
माँ लगी है भूख
क्या होगा बचा कुछ दूध ?
(शांति ! बिटिया दूध का अभाव समझकर धीमे से)
पानी ही पिला दे, माँ !
.
(माँ पानी देती है। किसान आवेश और दृढ़ता के स्वर में)
.
अभी लाया रुको जी दूध... !
(विवशता के कारण कंठावरोध। पार्श्व-ध्वनि)
.
मेहनतकश उठो !
बलवान हो तुम,
हल चलाकर ही
उगा सकते अभी सोना,
मिटा दो आततायी का
सभी मिथ्या भरा टोना,
अटल विश्वास जीवन में
तुम्हारा हो सदा संबल,
उठाओ हल, चलाओ हल !
.
किसान — (चकित-सा)
.
धरती गा रही है गीत !
सुनता हूँ नया संगीत !
चलाओ हल,
चलाओ हल !
.
1945
----------------------------------
(36) खेतों में
----------------------------------
(हरे-हरे खेतों से परिपूर्ण एक पहाड़ी ढाल। पास ही एक छोटी, सँकरी नदी बह रही है ; जिसके दोनों किनारों पर पेड़ों की सघन कतारें हैं। सामने के भरे हुए खेतों में छह-छह युवतियों की दोपंक्तियाँ हाथ में हँसिए लिए दिखाई देती हैं और पहली कतार एक स्वर में गाती है।)
.
पहली कतार —
.
आओ सखी, आओ सखी, आओ !
हरे हैं खेत
हरा है मन
भरा यौवन !
.
चलो री सखि !
शिखर पर चढ़
खुशी के ज़िन्दगी के,
आश के गाने
पवन के साथ मिलकर
दूर तक विस्तार कर स्वर प्राण का गाएँ ।
नयन में
फूलती-फलती धरा का स्वप्न भर लाएँ ।
.
दूसरी कतार —
.
आओ सखी, आओ सखी, आओ !
सुनो, ये खेत हमसे कह रहे हैं क्या !
हिलाकर शीश,
ये संकेत समझो दे रहे हैं क्या ?
हरे हैं ये
भरे हैं ये,
(एक पल रुक कर)
पर, न जाने क्यों डरे से ये ?
.
(खेतों में से अदृश्य पुरुष का स्वर)
.
सुनो, सुनो, सुनो,
सुनो, सुनो, सुनो,
चोर डाकुओं से सावधान !
कर रहे कि जो
हरे-भरे चमन मसान !
दैत्य से किसान
सावधान, सावधान !
.
(दोनों कतारों की स्त्रियाँ हँसिए को शत्रु पर प्रहार करने की मुद्रा में )
.
कौन है ? कौन है ? कौन है ?
.
अदृश्य पुरुष —
तमाम ये ज़मीनदार,
औ’ महाजनी प्रहार
टूटने को हो रहे तैयार ?
.
किसान—
.
पहला — पर, हमें है भय नहीं इसका,
संगठित हैं हम !
.
दूसरा — ज़माने को बदलने के लिए !
.
तीसरा — पीड़न और अत्याचार का साम्राज्य
धरती पर सुलाने के लिए !
.
समवेत —
संगठित हैं हम !
संगठित हैं हम ! !
(यकायक खेत लहलहाने लगते हैं। पृष्ठभूमि में वृद्ध किसानों की छायाएँ नज़र आती हैं, जिनके हाथों में हँसिए, कुदाली, गेहूँ की बालें और झण्डे हैं।)
.
(पृष्ठभूमि का समवेत स्वर)
.
माना, भार गुलामी का बरसों ढोया,
पर, जाग नहीं क्या दाग़ पुराना धोया ?
अब तो हमने सोना बोया,
जीवन का दुख सारा खोया ।
.
1945
----------------------------------
(37) अभियान
.
(हज़ारों सुसज्जित सैनिकों का समूह। सभी हाथों में बन्दूकें लिए हुए हैं। सभी की आँखें लाल हैं। एक घुड़सवार तेज़ी से आता है और बिगुल बजाता है। बिगुल के बन्द होते ही स्टेज के पीछे से गान की सशक्त ध्वनि आती है। सैनिक सावधान होकर सुनते हैं।)
.
अभियान करो !
अभियान करो !
.
किरणें जैसे गिरतीं तम पर,
बहती धारा जैसे बढ़ कर,
वैसी दुर्दम दृढ़ शक्ति लगा
चिर शोषित जनता को आज जगा,
व्यूह रचो,
अभिनव व्यूह रचो !
.
भक्षक संस्कृति की छाती पर
फ़ौलादी आज क़दम रखकर
निर्भय हो
भीषण अभियान करो !
युग-युग की पीड़ित जनता का
त्राण करो !
दुख, दैन्य, निराशा, जड़ता, तम
जीवन का सब
आज हरो !
अभियान करो,
अभियान करो !
.
(स्वर बन्द हो जाता है। एक क्षण सन्नाटा रहता है। दो-एक सैनिक उत्साहित हो कह उठते हैं)
.
भरता साहस विद्युत जैसा
किसने आह्नान किया ऐसा !
.
अन्य सैनिक —
.
क्या परिवर्तन की बेला ?
क्या नव-जीवन की बेला ?
बदलेगा क्या जीवन का क्रम ?
.
पार्श्व स्वर —
.
है सत्य,
नहीं यह किंचित भ्रम !
दूर क्षितिज पर
लपटें उठतीं !
.
(सभी सैनिक क्षितिज की ओर देखते हैं और स्वीकृति के स्वर में उत्तर देते हैं।)
.
हाँ, दीख रही हैं
बढ़ती-बढ़ती !
बादल मटमैले धूला के
दिशा-दिशा में फैल गये हैं !
आओ बढ़कर
अभियान करो,
हिम्मत से दृढ़ व्यूह रचो,
गतिरोधी ताक़त से
न डरो,
न डरो !
अभियान करो,
अभियान करो !
समवेत —
दुश्मन पर,
आज विपक्षी पर,
जन-द्रोही पर,
अभियान करो,
अभियान करो !
.
1945
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रचना-काल : सन्1942-1949-50
प्रकाशन-वर्ष : सन्१९५४ प्रकाशक : आदर्श विद्या मंदिर, इंदौर, म.प्र.
सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 1],
‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 1] में।
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