बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य संग्रह ---- जिजीविषा

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य संग्रह ---- जिजीविषा

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कविताएँ
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1 हिम्मत न हारो!
2 अप्रतिहत

3 व्यथा
4 संकल्प-विकल्प
5 क्षिप्रा के किनारे
6 न रुकते चरण
7 सहारा
8 जीवन नहीं
9 हमें यह पता है —
10 साथी
11 यह नहीं मंज़िल
12 स्वर-साधना
13 भोर
14 प्राण-दीप
15 नयी किरणें
16 तूफ़ानों का स्वागत
17 दीया जलाओ !
18 परिचय
19 अमिताभ
20 आज की ज़िन्दगी
21 मध्य-वर्ग (चित्र 1)
22 मध्य-वर्ग (चित्र 2)
23 भविष्यत्
24 लेखनी से —

25 मैं कहता हूँ!
26 राही
27 अनुष्ठान
28 पटाक्षेप
29 निश्चय
30 झुकना होगा
31 तुम आज लिख लो —
32 बदल कर रहेगा
33 नयी सुबह
34 सावधान
35 नया यौवन
36 जनता
37 जवानों का गीत
38 तसवीरें
39 बहुतेरे
40 पुनर्निर्माण
41 नयी चेतना

42 विनाश-लीला
43 बन्द करो
44 आज
45 मज़लूम
46 श्रमिक
47 मानव-समता का त्योहार
48 ओ मज़दूर-किसानो !
49 अकेला नहीं हूँ
50 जवानी
51 ज्योति-पर्व
52 कवि ‘निराला’ के प्रति
53 साँझ
54 नयी ज़िन्दगी

55 ज्वार और नाविक
56 जिजीविषा


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(1) हिम्मत न हारो!
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हिम्मत न हारो !
कंटकों के बीच
मन-पाटल खिलेगा एक दिन,
हिम्मत न हारो !

यदि आँधियाँ आएँ तुम्हारे पास
उनसे खेल लो,
जितनी बड़ी चट्टान वे फेंकें तुम्हारी ओर
उसको झेल लो !

तुम तो जानते हो
आजकल बरसात के दिन हैं;
गगन में खलबली है,
दौर-दौरा है घटाओं का,
तुम्हारे सामने अस्तित्व हो उनका
सदाओं का !

लरजती बिजलियाँ;
माना,
तुम्हारे सामने हो खेल
आतिशबाज़ियाँ नाना !
निरंतर राह पर चलते रहोगे तो
तुम्हारा लक्ष्य तुमसे आ मिलेगा एक दिन !
हिम्मत न हारो !
कंटकों के बीच
मन-पाटल खिलेगा एक दिन !
हिम्मत न हारो !

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(2) अप्रतिहत

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मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूँगा
आज जीवन में हुआ असफल भले ही !

एक पल को साधना की भावना सोयी नहीं,
और जाऊँ हार, ऐसी बात भी कोई नहीं,
मैं नहीं सुनसान राहों पर थकूँगा
दूर, बेहद दूर हो मंज़िल भले ही !

आज छाया है अमावस-सा अँधेरा सब तरफ़,
पर, अभी कल मुसकराएगा सबेरा सब तरफ़,
मैं न मन की पंगु दुविधा में रुकूँगा
पास में चाहे न हो संबल भले ही !

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(3) व्यथा
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तुम नये युग के तरुण हो,
है नहीं देता तुम्हें शोभा बहाना अश्रु
प्रिय की याद में,
या बेवफ़ाई में !
कि बदली घिर रही है,
वायु मंथर मधु बसंती बह रही है,
चाँदनी आकाश में छिटकी हुई है !

और तुम हो दूर प्रिय से !
या कि प्रिय ने है किया
विश्वासघात कठोर तुमसे !

सरल तुम भावुक हृदय के जीव हो,
दिल में तुम्हारे प्यार है,
अरमान हैं,
है चाहना सुख की,
नयी स्वर्णिम विहँसती ज़िन्दगी के स्वप्न हैं !

पर, आज चकनाचूर वे,
ज्यों गिर पड़ा हो हाथ से
पाषाण पर जा ताप-मापक-यंत्र,
बहते अश्रु पारे के सदृश,
मानो रहा ही अब नहीं
कोई तुम्हारा वश !

न सोचो —
दीप बुझता जा रहा है,
और बीती याद का
तीखा, नुकीला शूल
चुभता जा रहा है !

ये कबूतर
जो कि छत पर मौन बैठे हैं
किसी की क्या कभी यों याद करते हैं ?

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(4) संकल्प-विकल्प
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आज यह कैसी थकावट ?
कर रही प्रति अंग रग-रग को शिथिल !

मन अचेतन भाव-जड़ता पर गया रुक,
ये उनींदे शांत बोझिल नैन भी थक-से गये !

क्यों आज मेरे प्राण का
उच्छ्वास हलका हो रहा है,
गूँजते हैं क्यों नहीं स्वर व्योम में ?

पिघलता जा रहा विश्वास मन का
मोम-सा बन,
और भावी आश भी क्यों दूर तारा-सी
दृष्टि-पथ से हो रही ओझल ?

व जीवन का धरातल
धूल में कंटक छिपाये
राह मेरी कर रहा दुर्गम !

गगन की इन घहरती आँधियों से
आज क्यों यह दीप प्राणों का
उठा रह-रह सहम ?

रे सत्य है,
इतना न हो सकता कभी भ्रम !

भूल जाऊँ ?
या थकावट से शिथिल होकर
नींद की निस्पंद श्वासों की
अनेकों झाड़ियों में
स्वप्न की डोरी बनाकर
झूल लूँ ?

इस सत्य के सम्मुख
झुकाकर शीश अपना
आत्म-गति को
(रुक रही जो)
रोक लूँ ?
या
सत्य की हर चाल से
संघर्ष कर लूँ आत्मबल से आज ?

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(5) क्षिप्रा के किनारे
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लड़खड़ाते पाँव हैं, सूनी डगर
झूम आगे चल रहा हूँ मैं मगर !

चाँदनी नभ में सुखद फैली हुई,
दीपकों की राह में आभा नयी,

दूर हिलता वृक्ष पीपल का, पवन-
प्रति-झकोरे पर, विमूर्छित मूक मन !

झाँकता जिसमें नशीला चाँद है,
छा गया रे कौन-सा उन्माद है ?

आरती के स्वर, रहा घंटा घहर;
उठ रहीं प्रति बार क्षिप्रा में लहर !

पंथ पगडंडी बना मैं चल रहा
मार्ग का अणु-अणु बना संबल रहा !

औरतें गाती रही थीं आ जहाँ
जा रहा था एक मुर्दा भी वहाँ !

श्वान थोड़े-से पड़े थे भोंकते,
नालियों के पास भिक्षुक कोसते,

डालियों पर बैठ उल्लू बोलते,
दूत प्रतिपल ईश के जग डोलते !

साधुओं का है अखाड़ा पास ही
है जिन्हें परमात्मा विश्वास ही ?

और मैं आगे रहा हूँ चल उधर
जीर्ण कुटिया एक प्राणों की जिधर !

लड़खड़ाते पाँव हैं, सूनी डगर !

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(6) न रुकते चरण !
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अँधेरी निराशा-निशा में
उषा की दमकती न आशा-किरण !

गगन में नहीं अब चमकते सितारे कहीं,
धरा के सभी दूर डूबे किनारे कहीं,
चला जा रहा, पर, सतत बेसहारे कहीं,
विहग उड़ हृदय के सभी आज हारे नहीं,
कठिन कंटकों से भरी राह
दुर्गम, कहीं, पर न रुकते चरण !

उगलती चली पंथ की हर कहानी गरल,
मिटाती चलीं आँधियाँ सब सुरक्षित महल,
सतत, पर प्रगतिवाह-उन्मुक्त-जीवन-सबल,
हुई साधना-प्राण की मम न किंचित विफल,
विरोधी अमंगल समय की
सुलगती प्रखरतम बुझायी जलन !

चमक कर, गरज कर डरातीं घटाएँ अगम,
निरंतर उलझती गयी हर डगर बन विषम,
कि बढ़ता गया घिर धुआँ-सा तिमिर हर क़दम,
व बुझते गये राह-संकेत-दीपक सहम,
प्रलय रात, पर, आज भय से
कहीं डबडबाए न मेरे नयन !

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(7) सहारा
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नहीं साथ मैं चाहता हूँ तुम्हारा,
भले ही मिटे ज़िन्दगी का सहारा !

जिये यदि किसी की दया माँग
तो क्या जिये ?
कभी भूल चिंता करूंगा न
अपने लिये,
ज़रा भी न अफ़सोस, चाहे बुझे यह
गगन में चमकता अकेला सितारा !

हँसूंगा न जीवित रहूंगा
सफलता बिना,
निखरता मनुज का न जीवन
विफलता बिना,
भरोसा बड़ा ही मुझे है कि बहती
हुई यह रुकेगी नहीं प्राण-धारा !

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(8) जीवन नहीं !
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जीवन नहीं, जीवन नहीं !

सौभाग्य ही केवल न मन की साध है,
रोना यहाँ दुर्भाग्य पर अपराध है,
यह भूलना —
क्षण आपदाओं के महान भविष्य के आभास;
यदि इतना नहीं विश्वास
तो ज़िन्दगी का वह कभी
दर्शन नहीं, दर्शन नहीं !

सपने नयन-आकाश में छाते रहें,
अपने लिए ही गीत हम गाते रहें,
यह भूलना —
परमार्थ, सेवा-भावना ही मानवी आधार !
यदि इतना नहीं स्वीकार
तो श्वास तेरी बद्ध, उर
धड़कन नहीं, धड़कन नहीं !

उद्यान में केवल न खिलते फूल हैं,
उड़ती हुई भी प्रति चरण पर धूल है,
यह भूलना —
अवरुद्ध बंधन-ग्रस्त जीवन से सदा विद्रोह,
यदि निज प्राण से है मोह
तो शक्ति का उन्माद क्या
यौवन नहीं, यौवन नहीं !

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(9) हमें यह पता है —
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रुकावट हटाते हुए हम चलेंगे,
अँधेरा मिटाते हुए हम चलेंगे,
हमें यह पता है —
उजेले में बिजली कभी चमचमाती नहीं है !

सजग रह सतत आज बढ़ते रहेंगे,
इमारत नयी एक गढ़ते रहेंगे,
हमें यह पता है —
जवानी मनुज की कभी लड़खड़ाती नहीं है !

ठिठक कर रुकेंगी विरोधी हवाएँ,
फिसल कर गिरेंगी सभी आपदाएँ,
हमें यह पता है —
कि हिम्मत की साँसें कभी व्यर्थ जाती नहीं हैं !

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(10) साथी
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जो जीवन की विपदाओं को
हँस-हँस झेल लिया करते हैं —
केवल वे मेरे साथी हैं !

शूल-ग्रस्त, बीहड़, पथरीली
शून्य डगर पर बड़ा अँधेरा,
पर, चलते, नयनों में भर जो
जगमग करता नया सबेरा,
निर्भय बन जीवन और मरण
से जो खेल किया करते हैं —
केवल वे मेरे साथी हैं !

जब सिर पर क्रोधित हो-हो कर
गरजा करतीं तेज हवाएँ,
हो जातीं सभी विफल, भावी
की जब आशा-आकांक्षाएँ,
तब जो उस घोर निराशा में
पापड़ बेल लिया करते हैं —
केवल वे मेरे साथी हैं !

बाधाओं से टकरा क्षण-भर
जो सीख न पाये हैं रुकना,
मंज़िल पा जाने से पहले
जो जान न पाये हैं थकना,
जीवन भर मन की तरुणाई
से जो मेल किया करते हैं —
केवल वे मेरे साथी हैं !

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(11) यह नहीं मंज़िल...
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यह नहीं मंज़िल तुम्हारी !

और चलना है तुम्हें,
और जलना है तुम्हें,
ज़िन्दगी की राह पर करना अभी संघर्ष भारी !

और पीना है गरल,
है तभी जीना सफल,
यह तुम्हारी ही परख की आ गयी है आज बारी !

सामने तूफ़ान है,
पर, बड़ा इंसान है,
पैर से जिसने मिटा दी संकटों की सृष्टि सारी !

यह मुझे विश्वास है,
बोलता इतिहास है,
मैं वहीं हूँ, काँपती जिससे कि काया ध्वंसकारी !

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(12) स्वर-साधना
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सतत आश-विश्वास के स्वर
समय-बीन पर मैं बजाता रहा हूँ !

डगर पर घिरा है अँधेरा सघन,
भयावह निखिल आज वातावरण,
घटाएँ घिरीं और गरजा गगन,
मरण की चिता पर विजय-गान गाता रहा हूँ !

समेटो मनुज प्राण-साहस अमर,
अनल में तपो जो लगा है प्रखर,
जवानी बड़ी जायगी यों निखर,
सुनाकर सबल स्वर जगत को जगाता रहा हूँ !

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(13) भोर
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क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?

स्तब्धता, लगता कि सोया भोर,
देखती आँखें क्षितिज की ओर,
सृष्टि का बदला नहीं क्यों वेष ?
क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?

दे रही ऊषा नहीं वरदान,
मौन विहगों का अभी तो गान,
उठ पड़े, पर, जाग मेरे प्राण,
सुन रहा जीवन नया संदेश !
क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?

स्वप्न से मुझको नहीं है मोह,
कर्मरत मानव-हृदय की टोह,
जागता मेरा रहे नव देश !
क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?

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(14) प्राण-दीप
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रात भर जलता रहा यह दीप प्राणों का अकेला !

वेग लेकर नाश का आया पवन था,
शक्ति के उन्माद में गरजा गगन था,
दीप, पर, अविराम जलने में मगन था,
आ नहीं जब तक गयी संसार में नव-स्वर्ण-बेला !

रात भर हँस-हँस सतत जलता रहा है,
आँधियों के बीच भी पलता रहा है,
आततायी का अहम् दलता रहा है,
मूक, हत, भयभीत मानव को दिया जगमग उजेला !

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(15) नयी किरणें
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फटते जाते / हटते जाते
सदियों की छायी
मूक उदासी के बादल !
मानों रूई के हलके
श्वेत बगूले फूले-फूले
आँधी में उड़-उड़ जाते हों !
मेरे मन की जड़ता के,
तम के, घोर निराशा के
बेछोर समाये उमड़े बादल
उर-नभ में छितराये जाते हैं !

जीवन की तमस-निशा के बाद
दिवाकर की किरणों में
बोल रहे खग,
खोल रहे अलसाए दृग !
भाव-लहरियों से पूरित सरल हृदय
दुख-वीणा के स्वर लय !

प्रतिध्वनि सुनता हूँ
आज नये जीवन की,
अंतर की अभिनव धड़कन की !
युग-युग के सोये भाव मधुर सब
धीरे-धीरे जाग रहे हैं,
कर्कशता के बर्बर प्रहरी
उलटे पैरों भाग रहे हैं !
उठता है अब भावी का परदा,
जिसकी पृष्ठभूमि पर
गत-जीवन के चित्रा
अनेकों टूटे-टूटे,
बेजोड़, अधूरे, धुँधले
देते हैं साफ़ दिखायी !

इस परिवर्तन को मुक्त बधाई,
जिसने शिथिल-शिराओं को
नव-तरुणाई की ज्वाला दी,
जीवन को जयमाला दी !

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(16) तूफ़ानों का स्वागत

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ऐसे छोटे-मोटे तूफ़ान
हमारे जीवन में अक्सर आते रहते हैं !
सिर के ऊपर, / दाएँ-बाएँ
मँडराते रहते हैं !
हर रोज़
सुबह क्या शाम
कभी भी छाते रहते हैं !

हम तूफ़ानों में पैदा होने वाले
तूफ़ानों में बढ़ने वाले
तूफ़ानी-जीवन के प्रेमी हैं !
क्योंकि हमारा अनुभव है —
तूफ़ानों से संकट के आधार
धरा की शैया पर
डर कर सो जाते हैं,
जैसे कोई डरपोक अँधेरी निशि में
बिल्ली की आहट को चोर समझकर
कम्बल में मुँह ढक कर सो जाता है,
उसकी घिग्घी बँध जाती है
वैसे ही संकट मुर्दा हो जाते हैं।

तूफ़ान कभी
कमज़ोरों का साथ नहीं देता है,
तूफ़ानी धरती पर
मज़बूत, साहसी इंसान जनमते हैं !
मोटे-मोटे, ऊँचे-ऊँचे,
पत्तों-फूलों वाले
पेड़ पनपते हैं !

आओ, हम सब ऐसे तूफ़ानों की
युग-पथ की उस पुलिया पर हो एकत्र
प्रतीक्षा में बैठें,
उनके स्वागत को बैठें।

जिससे आज सभी के जीवन की
जर्जरता, धोखे की टटिया,
मिथ्या विश्वासों की गिरती दीवारें,
युग-युग का संचित
रीति-रिवाज़ों का
सड़ा-गला कूड़ा-करकट
नभ में काफ़ी ऊँचे उड़ जाये !
और सभी के मन की धरती
साफ़ मुलायम
दुख-दर्द समझने वाली हो जाये !
पानी पड़ते ही
कोमल-कोमल गदकारे
पौधों से ढक जाये,
जिस-पर श्रम से थककर,
सोने को मन कर-कर आये !
फिर चाहे तूफ़ान हजारों
गरज-गरज कर गुज़रें,
क्योंकि —
बड़ी ही बेफ़िक्री का आलम होगा,
ऐसा तूफ़ानी सुख
दुनिया के किस आकर्षण से कम होगा ?

तो जर्जरता का मोह मिटा दो,
गढ़े-पुराने इतिहासों की
पुनरावृत्ति का स्वप्न हटा दो !
नया बनाओ, नया उगाओ !
जो तूफ़ानों को झेल सके,
उनकी बढ़ती काया को
खेल-खेल में ठेल सके !

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(17) दीया जलाओ
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यह गुज़रता जा रहा तूफ़ान
अब तो तुम
नये घर में नया दीया जलाओ !

मिट गया है
स्वप्न का वह नीड़
जिसमें चाँद-तारे जगमगाते थे,
बीन के वे तार सारे भग्न
जिनमें स्वर किसी दिन झनझनाते थे !
भूल जाऊँ —
इसलिए तुम अब
नये स्वर में नया मधु-गीत गाओ !

यह न पूछो
किस तरह मैं ज़िन्दगी की धार पर
उठता रहा, गिरता रहा,
भावनाएँ धूल पर सोती रहीं
या व्योम में उड़ती रहीं;
पर, जानता हूँ —
घूँट विष की ले चुका कितनी,
असर विष का नहीं जाता
मुझे मालूम है यह भी !
पर, ज़रा तुम
घट-सुधा का तो पिलाओ !

है अभी तो चाह बाक़ी,
और उर के द्वार पर देखो
मचलता ज्वार हँसने का
शुभे! बाक़ी,
अभी तो प्यार के अरमान बाक़ी,
फूल-से मधुमास में खोयी
अनेकों मुग्ध पागल चाँद की रातें अभी बाक़ी,
वफ़ा की, बेवफ़ाई की
हज़ारों व्यर्थ की बातें अभी बाक़ी !
तुम तनिक तो मुसकराती
साथ में मेरे चली आओ !

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(18) परिचय
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स्नेह की मधु-धार हूँ मैं !

पास जो आये न मेरे,
दूर का परिचय रखा बस,
भावना से हीन समझा
की उपेक्षा व्यंग्य से हँस,
जान पाये वे भला कब
प्रेम-पारावार हूँ मैं !

देह निर्बल देखकर जो
एक उड़ती-सी नज़र से,
फेरकर मुख, हो गये उस
क्षण अलग मेरी डगर से,
जान पाये वे भला कब
शक्ति का संसार हूँ मैं !

मुसकराया मैं न किंचित;
क्योंकि था अति क्षुब्ध-जीवन,
इसलिये जो लोग मुझको
हैं समझते मूक पाहन,
जान पाये वे भला कब
बीन की झंकार हूँ मैं !

कूल ही पर छोड़ मुझको
चल पड़े जो नाव लेकर,
ज्वार-लहरों में गये फँस,
अब गरजता सिंधु जिन पर,
जान पाये वे भला कब
मुक्ति की पतवार हूँ मैं !

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(19) अमिताभ
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छा रहा शंका-तिमिर फिर
शीत-युद्ध सभीत वातावरण में !
और लगता है —
लिपटते जा रहे पन्नग चरण में !
कान बजते फूत्कारों के स्वरों से,
शांति घायल
उड़ गयी सारे घरों से !
है प्रपीड़ित भग्न जन-मानस
परस्पर की कलह से !
स्नेह-सूखे नेत्र निर्मम,
क्रुद्ध-मुद्रा मूक हर-दम !

घिर रहीं संस्कृति-क्षितिज पर
ध्वंस संकेतक घटाएँ,
जल रही हैं फिर मनुज की
भोग-रत सूखी शिराएँ !
उग रहा फिर
स्वार्थ का जंगल
अमंगल,
देखकर जिसको नहीं खिलते कभी
फल-फूल जीवन के,
नहीं देते सुनायी
गीत सावन के !
नहीं बहते कभी
जिसमें मधुर निर्झर,
नहीं देते सुनायी
मुक्त विहगों के सरस स्वर !

इसलिये अमिताभ !
युग की दृष्टि तुम पर
है लिये विश्वास दृढ़तर;
सौम्य-मुख की हर किरन को
आज दो फिर हर नयन को !
यह नयी पीढ़ी
तुम्हारी मूक-सेवा साधना से
बलवती हो !
यह नयी पीढ़ी
तुम्हारे भव्यतम उत्सर्ग की शुभ-भावना से
बलवती हो !

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(20) आज की ज़िन्दगी
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ज़िन्दगी हँसती हुई मुरझा गयी ;
चाँद पर बदली गहन आ छा गयी !

यामिनी का रूप सारा हर लिया
कामिनी को हाय विधवा कर दिया !

आदमी की सब बहारें छीन लीं,
उपवनों की फूल-कलियाँ बीन लीं !

फट गया मन लहलहाते खेत का,
बेरहम तूफ़ान आया रेत का !

उर-विदारक दीखता है हर सपन,
सब तरफ़ से चाहनाओं का दमन !

रीति बदलीं आधुनिक संसार की,
राह सारी मुड़ गयी हैं प्यार की !

सामने बस स्वार्थ का जंगल घना
दुर्ग जिसमें डाकुओं का है बना !

मौत की शहनाइयाँ बजती जहाँ,
रंग-बिरंगी अर्थियाँ सजती जहाँ !

लेटने को हम वहाँ मजबूर हैं,
वेदना से अंग सारे चूर हैं !

इस तरह लँगड़ी हुई है ज़िन्दगी
लड़खड़ाकर गिर रही लकवा लगी !

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(21) मध्य-वर्ग (चित्र 1)
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मेघों से घिरा आकाश है !
चहुँ ओर छाया,
बंद आँखों के सदृश,
गहरा अँधेरा,
घोंसलों में मूक चिड़ियाँ
ले रहीं सुख से बसेरा,
और हर अट्टालिका में
बज रहा मनहर पियानो, तानपूरा !

पर, टपकती छत तले
सद्यः प्रसव से एक माता आह भरती है !
मगर यह ज़िन्दगी इंसान की
मरती नहीं,
रह-रह उभरती है !

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(22) मध्य-वर्ग (चित्र 2)
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दस बज रहे हैं रात के —
काफ़ी दूर पर
कुछ बेसुरे-से ढोल बजते हैं
किसी बारात के !

अति-तार स्वर से
गा रहा है रेडियो सीलोन
बासी गीत फ़िल्मी
‘आन’ के ‘बरसात’ के !

पास के घर में
थकी-सी अर्द्ध-निद्रित
तीस वर्षीया कुमारी
करवटें लेती किसी की याद में !

क्लर्क है उसका पिता
और वह उलझा हुआ है
फ़ाइलों के ढेर में !
(ज़िन्दगी के फेर में !)
सोचता है —
रात काफ़ी हो गयी,
अब शेष देखा जायगा जी बाद में !

झँपने लगीं पलकें
बडे़ बेफ़िक्र बचपन की सहेजी याद में !

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(23) भविष्यत्
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मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
अपार अंधकार है,
प्रगाढ़ अंधकार है !
न चाँद है, न सूर्य,
बज रहा न सावधान-तूर्य !

मृत्यु के कगार पर
खड़ी मनुष्यता सभीत,
बार-बार लड़खड़ा रही !
कि उद्जनों व अणुबमों-प्रयोग से
कराह काँपती मही !
तबाह द्वीप हो रहे,

बड़े-बड़े नगर तमाम
देखते सदैव स्वप्न में ‘हिरोशिमा’ !
गगन विराट वक्ष पर
विकीर्ण लालिमा,
धुआँ, धुआँ, धुआँ !

मनुष्य के भविष्य-पंथ पर
प्रकाश चाहिए,
प्रकाश का प्रवाह चाहिए !
हरेक भुरभुरे कगार पर
सशक्त बाँध चाहिए !
अटल खड़ा रहे मनुष्य,
आँधियों के सामने
अड़ा रहे मनुष्य
शक्तिवान, वीर्यवान, धैर्यवान !

ज़िन्दगी तबाह हो नहीं,
कराह और आह हो नहीं !
हँसी !
सफ़ेद दूधिया हँसी
हरेक आदमी के पास हो !
सुखी भविष्य की
नवीन आस हो !

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(24) लेखनी से —
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लेखनी मेरी !
समय-पट पर चलो ऐसी कि जिससे
त्रास्त जर्जर विश्व का
फिर से नया निर्माण हो !
क्षत, अस्थि-पंजर, पस्त-हिम्मत
मनुज की सूखी शिराओं में
रुधिर-उत्साह का संचार हो !

ओ लेखनी मेरी, चलो !
साये हुए हैं जो
उन्हें उगते दिवाकर की ख़बर दो !
और पथ में जो रुके
उनको नयी ज्योतित डगर दो !
काफ़िला जो
रेत के नीचे दबा बेचैन है
उसे सतत आकाश-आरोहणमयी
नव-शक्ति दो !
तेवान, गोआ की ज़मी को मुक्ति दो !

भयभीत जो
उसको सबल विश्वास दो !
रोते हुए मुख पर
रुपहला हास दो !

ओ लेखनी मेरी ! चलो,
जिससे कि दकियानूस-दुनिया के
सभी दृढ़ लौह बंधन टूट जाएँ,
और संस्कृति-सभ्यता की मूर्तियाँ सब
आततायी के विषैले क्रूर चंगुल से
सदा को छूट जाएँ !

ध्वंस पर
अभिनव-सृजन-आह्नान दो,
हर आदमी के कंठ में
श्रम का सबल मधु गान दो !
प्रत्येक उर में
प्यार का सागर भरो,
धुँधले नयन में
रोशनी घर-घर भरो

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(25) मैं कहता हूँ !
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मैं शोषित दुनिया के
आज करोड़ों इंसानों से कहता हूँ,
मैं भूखों-नंगों, पददलितों,
बेबस और निरीहों की
आहों से कहता हूँ —
अब और अँधेरे में
मत खोजो पथ अपना,
अब और न देखो
अंतर की आँखों से सपना !
खोलो पलकों को साथी,
नया सबेरा
आज तुम्हारे स्वागत को तैयार !
कोयल वृक्षों के झुरमुट से
कहती आज पुकार-पुकार —
नया सबेरा, नया ज़माना
बदल गया संसार !

मैं उन लड़ने वाले,
हिमगिरि की छाती पर चढ़ने वाले,
कंटक-पथ पर बढ़ने वाले
चरणों से कहता हूँ —
अब मंज़िल बिल्कुल पास तुम्हारी,
निश्चय ही
होगी पूरी आस तुम्हारी !
युग-युग की
सारी बीमारी मिट जाएगी !
मुख पर छायी
करुण उदासी हट जाएगी !
नयी हवा में, स्वच्छ हवा में
तन को जर्जर करने वाले कीड़े-मच्छर
इस दुनिया से भग जाएंगे,
उड़कर दूर कहीं पर
कीचड़-दलदल पर मँडराएंगे !

मैं उन भारी-भरकम
युग-नभ-भेदी दुर्दम
आवाज़ों से कहता हूँ —
नवयुग का जय-जयकार करो !
अगणित कंठों में
विजयी गान भरो !
फ़ौलादी ताक़त जनता की
कल के अवरोधी दुर्गों पर
उन्मुक्त खड़ी !
हो, सचमुच, ऐसी घड़ियों की
उम्र बड़ी !

मैं उन जीने और जिलाने वालों से,
इंसानों की शक्लों में
जाग्रत शांत फ़रिश्तों से,
जनयुग को
मज़बूत बनाने वालों से कहता हूँ —

धरती खोदो !
माँ आँचल में
सोने-चाँदी के उपहार लिए,
बरसों से सतत प्रतीक्षा में
देख रही है राह तुम्हारी !
पहुँचो
आयी बड़े दिनों के बाद
ग़रीबों की बारी !

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(26) राही

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जब आज तुम्हारे नयनों ने
युग-पथ पहचान लिया,
जीवन के हर अनुभव से
अपना और पराया जान लिया,
फिर क़दमों को भय क्या है ?
हिम्मत से आगे बढ़े चलो,
निर्भय हो आगे बढ़े चलो,
ताक़त से आगे बढ़े चलो !

राही बनकर निकले हो
क्या झंझा के घोर झकोरों से,
पथ के हिंसक चोर-लुटेरों से,
कंकड़-पत्थर की अविरल बौछारों से,
नाशक अस्त्रों के तीव्र प्रहारों से
डर जाओगे ?
कायर बन कर,
पीठ दिखा कर,
भग जाओगे ?

राही बन कर निकले हो
यदि झाड़ी-काँटों के घेरे से,
पथ पर छाये सघन अँधेरे से,
टकराने में सकुचाओगे,
तो निश्चय ही —

काँटों में फँस जाओगे !
दलदल में धँस जाओगे !
मिट्टी में मिल जाओगे !

आँखों में रोष उतारो,
फ़ौलादी मुट्ठी बाँधो,
बादल से गरजो-गरजो !
पर्वत की छाती को फोड़ो,
चट्टानों की दीवारों को तोड़ो,
दुर्दम दुर्जय धारा बनकर उमड़ो !
जिससे थर-थर काँपे
अवरोधी भूतों के टोली,
हो जाए सारे अरमानों की होली !
बिखरे केवल आज तुम्हारे
विश्वासों की,
आशाओं-अभिलाषाओं की रोली !

सौगंध तुम्हें मेरे राही !
रुकना न कभी,
जब तक निज बल से
उस ताक़त का चकनाचूर न हो —
जिसने क़ैद सबेरे को कर रक्खा है !
जिसने दिल की धड़कन पर
ख़ूनी पंजा रक्खा है !
तुम उसको रवि बनकर ध्वस्त करो !
पूँजीशाही दुनिया के
वैभव-युग को अस्त करो !

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(27) अनुष्ठान

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ग़रीबी अब
अमीरी के न क़दमों पर झुकेगी !
हाथ फैलाते हुए
अब और दीखेंगे न
जूठे चार-टुकड़ों के लिए
मानव बुभुक्षित !
नग्न तन का ढाकने को औरतें
उतरे हुए अब वस्त्रा चाहेंगी नहीं !

सच है —
मिटेगी यह न युग की नव-जवानी अब
किसी की वासना की पूर्ति में !
हरगिज़ अलापेंगे नहीं
गायक कला-साधक
किसी क्षय-ग्रस्त जर्जर वर्ग के हित !

ग़रीबी ने बग़ावत का
प्रबलतम कर दिया एलान,
बुभुक्षित का
उठा है जाग फिर अभिमान !

लो, सारी दमित शोषित दुखी हत औरतें
बलिदान करने को खड़ीं तैयार !
युग की नव-जवानी मुक्त है,
नव-लालिमा से युक्त है !
उठा प्रेरक
नये कवि का नया संगीत है !
आकाश में तारों सरीखी
आज तो उसकी लिखी
ध्रुव जीत है !

उट्ठो, करोड़ों मेहनतकश नौजवानो !
विश्व का नक्शा बदलने के लिए ;
अणु-शक्ति से,
सुख से भरी
दुनिया बनाने के लिए अभिनव,
धरा पर शीघ्र लाने को
नया मानव !

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(28) पटाक्षेप

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दमन के बादलों को चीर अब बिजली चमकती है,
अँधेरा दूर होता है, नयी आभा दमकती है !
अथक जन-शक्ति के तूफ़ान छाये आसमानों पर
कि गहरी धूल के कम्बल दिशाएँ ओढ़ती डर कर !

सदा विद्रोह होता है, ज़माना जब बदलता है,
नया संसार आता है, पुराना जीर्ण जलता है,
न हिम्मत हारता इन्सान चाहे मौत मँडराये
हज़ारों ज़िन्दगी के गीत उसने शान से गाये !

भरे उत्साह, दुर्दम शक्ति, जीवन-वेग-नव दुर्धर
नया इंसान पैदा हो गया है आज धरती पर,
कि जिसके सामने प्रतिरोध आकर टूट जाता है,
अनल जिसको बड़ा गहरा प्रबल सागर बताता है !

चुनौती दे रहा वह भाग्य के निश्चित सितारों को,
बनाया जा रहा फिर से सभी युग भग्न-तारों को,
नया मनु बल समाया यांग्त्सी की स्वस्थ घाटी में
नयी बस्ती बसी पीली पुरानी मूक माटी में !

सुरंगें उड़ रहीं साम्राज्य शाहों ने बिछायीं जो,
धसकती जा रही दीवार डॉलर ने उठायी जो,
मिटेगा नस्ल का सिद्धान्त भी प्रत्येक कोने से
टिकेगा अब नहीं उद्जन-बमों की फ़स्ल बोने से !

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(29) निश्चय
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एक दिन निश्चय
तुम्हारे हर घिनौने और ज़हरीले
इरादों की समस्त जड़ें
अवनि को फोड़ उखड़ेंगी।
एक दिन निश्चय
तुम्हारी बेरहम नंगी कि ख़ूनी
वासनाओं की सड़ी धारा
धरा की धमनियों को छोड़कर
आकाश-पथ पर सूख जाएगी !
तुम्हारे स्वप्न के

सारे गगन-चुंबी महल
अभिनव प्रखर स्वर्णिम सुबह तक
पत्थरों के ढेर में
निश्चय, बदल कर
भूमि पर सोते मिलेंगे !

आज जन-जन के हृदय में आग है,
मुँह से निकलती बात भी बेलाग है !
संघर्ष से हर आदमी को
हो गयी बेहद मुहब्बत,
ज़िंदगी की पड़ गयी आदत
हमेशा राह पर चलना !
निरंतर सूर्य-सा जलना !
मनुष्यों की अथक ऐसी
निडर, दृढ़ फौज़ उगती जा रही,
जिसके क़दम पड़ते
धरा सज्जा बदलती जा रही !

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(30) झुकना होगा !
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धधकी नव-जीवन की ज्वाला पर
जितना तुम और अँधेरा फेंकोगे
वह उतनी ही द्विगणित आभा से दमकेगी !

जितने गहरे काले घन अम्बर में छाएंगे
उतनी गहरी उज्वलता से बिजली चमकेगी !

धरती पर जितनी
मनुज-रुधिर की बूँद गिरेंगी
उससे कहीं अधिक
विद्रोही जनता की फ़सल उगेगी !

जितना ज़्यादा जन-धारा को रोकोगे
उतनी ही गति से
वह अँगड़ाकर, लहराकर
पर्वत की छाती को फोड़ बहेगी !

जितना ज़्यादा निर्धन जनता को लूटोगे
उतना ही बदले में
मूल्य चुकाना होगा !

जितना ज़्यादा भोली मानवता पर
चढ़ इतराओगे
उतना ही उसके सम्मुख
घुटनों के बल झुकना होगा !

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(31) तुम आज लिख लो —
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तुम आज लिख लो —
कि थोड़े दिनों में
हज़ारों युगों की
पुरानी, सड़ी
दासता की इमारत बड़ी
भूमि पर लोटती
भग्न बिखरी मिलेगी !
अनेकों बरस से
ग़रीबों, किसानों
मजूरों व श्रमिकों के
ताजे़ रुधिर से
सनी वाटिका
पूर्ण उजड़ी मिलेगी !
दमन के धुएँ से
नयी आग बन कर
गगन में लहरती दिखेगी !

कि जिससे
लुटेरों के डेरे मिटेंगे,
व जिनकी सबेरे-सबेरे
हवा में बुझी राख उड़ती दिखेगी !

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(32) बदलकर रहेगा !
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हवा जो चली है नयी वह
गरजती हुई कल
बनेगी अथक वेग तूफ़ान का !
और जो आज
युग की हरारत से
पिघला जमा बर्फ़
वह कल
प्रवाहों की दृढ़ शक्ति बनकर के
दुनिया का नक़्शा
बदल कर रहेगा !
कि जो यह लगा है
अभी आज हलका-सा धक्का
वही कल धरा को
उलट कर, पुलट कर,
हिला कर, डुला कर,
नया रूप देकर रुकेगा !

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(33) नयी सुबह
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जो बर्फ़ीली रातों में
ओढ़े कुहर का कम्बल,
गठरी से बन
चिपका लेते उर से टाँगे निर्बल ;
अधसोये से
कुछ खोये-खोये से
देखा करते नयी सुबह का स्वप्न मनोरम,
कब होता है विश्वास कराहों से कम ?

सर्दी ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है
नव-जीवन की चिनगारी
निकट सरकती आती है।
ये आँखें देखेंगी कुछ क्षण के बाद
नया सबेरा, नया ज़माना !
नव-जीवन का नव-उन्माद !

कभी भी बुझ न सकेगा
जलता नूतन दुनिया के
आज करोड़ों मेहनतकश इंसानों की
आशाओं-अभिलाषाओं का नया चिराग़ !

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(34) सावधान
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अब और न चलने पाएगी परदापोशी,
भंग हुई है गत युग की जड़ता बेहोशी !

सावधान हो जाओ, ओ ! जन-पथ के द्रोही,
युग है दलितों का जिसकी बाट सदा जोही !

ललकार रहा है नित धरता मज़बूत क़दम
इंसान नया, नव राह बना, कर दूर वहम !

कंधों पर आज किये नव-रचना भार वहन,
टकरा कर मर्दित दग्ध-विषैला-क्रूर दमन !

निष्फल अभियान विपक्षी व्यूह हुए लुंठित,
कल की आँधी देख रही प्रतिहत राह थकित !

नव-लाली ले उगता लो जनता का सूरज,
‘नया सबेरा’ आज दमामा कहता बज-बज !

मानव के हाथों में सुदृढ़ हथौड़े का बल,
पर्वत की छाती पर चलता जनता का हल !

हरियाली लाएगा, समता विश्वास अमर,
फूटेंगे अंकुर पथरीली बंजर भू पर !

रस का सागर लहराएगा जन-जन के हित,
बरसेगा जीवन कण-कण पर मुक्त असीमित !

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(35) नया यौवन

======================

आत्म-निर्भरता, अमिट विश्वास,
अद्भुत धैर्य से
शोषित, दमित, वंचित, दुखी
जगकर बग़ावत के लिए तैयार हैं !
अब दासता का बोझ
पल भर भी नहीं स्वीकार है !

बरसों पुराने बंध ढीले हो गये,
ख़ूनी विरोधी राक्षसों के
लाल फूले गाल पीले हो गये !
साम्राज्यवादी शृंखलाएँ लौह की —
जिनने जकड़ इंसान को
दम घोंट देने का
रचा षड्यंत्र था,
जनतंत्रवादी शक्तियों की चोट से,
स्वाधीनता के प्रज्वलित अंगार से,
हर ग्रंथि से
हर जोड़ से
अब टूटती जातीं सभी !

जंगबाज़ों
ज़िन्दगी के दुश्मनों की टुकड़ियाँ
फैली हुई हैं जो
धरा के वक्ष पर कुछ इस तरह
जिससे कि लेने ही नहीं देतीं
कभी साँसें खुली;
जन-शक्ति के
उत्साह के भूकम्प से निर्मित
दरारों में दबी जातीं
हज़ारों मील गहरी कब्र बन !

जूझा नये युग का नया यौवन
अथक, दुर्दम
कि जो विष तक पचा लेगा,
मरण को सिर उठाने तक नहीं देगा,
अकेला
तप्त लोहे के चने निर्भय चबा लेगा !

यही है वह नया यौवन
बगीचों में रबर के
और फैले जंगलों में
जो मलय के आज उमड़ा है !
यही है वह नया यौवन
कि जो —
जीवित बहादुर मुक्त उत्तर-कोरिया की
हर गली में आज उमड़ा है !
बड़ी मज़बूत डॉलर से बनी
दीवार का उर भेद कर
मैदान में जो चीन के
दरिया सरीखा बाढ़-सा छा आज फैला है !
कि इण्डोचीन की लहरें
उसी के रक्त से खौलीं !
जहाँ के नौजवानों के गलों से
झर रही विद्रोह की बोली !
यही है वह नया यौवन
कि जो नव-एशिया के हर मनुज के
चेहर पर आज दमका है !
सघन काले भयावह बादलों को चीर कर
बिजली सरीखा मुक्त चमका है !

अमित-पुरुषार्थ,
अविजित-शक्ति
उज्ज्वल शांति के विश्वास को लेकर
सुखद सुन्दर नयी दुनिया बसाने को
करोड़ों हाथ कसकर
आज जो तैयार है !
जन-शक्ति के सम्मुख
रुआँसा लड़खड़ाता रोष
एटम-बॉम्ब का
बेकार है,
बेकार है !

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(36) जनता
======================

आतंक का शासन
हमेशा रह नहीं सकता;
क्योंकि जनता
कुंभकर्णी नींद सोती है नहीं !
क्योंकि जनता की
कभी भी मौत होती है नहीं !

प्रमाणों की ज़रूरत और —
यदि करनी तुम्हें महसूस
जनता के हृदय की साँस की धड़कन
किसी भी देश के इतिहास के पन्ने
पलट कर देख सकते हो !
नहीं तो आज
मेरा देश आकर घूम सकते हो !
जहाँ इंसान ने
काली निराशा की पुरानी लाश को
भू की अतल गहराइयों में गाड़ कर
रंगीन अभिनव आश के
विश्वास के पौधे लगाये हैं !
अँधेरे में हज़ारों दीप
जीवन के जलाये हैं !
जवानी से भरी नदियाँ
जहाँ पर मुक्त बहती हैं,
कि कल-कल राग में
युग का नया संदेश कहती हैं !

जहाँ इंसान
दुनिया को बदलने के लिए
बड़े उत्साह से संयुक्त होते हैं !
कड़े श्रम से
धरा पर ज़िन्दगी के बीज बोते हैं !

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(37) जवानों का गीत
======================

मिलाये क़दम से क़दम, गीत गाती,
बढ़ी जा रही है जवानों की टोली !
जवानों की टोली !

मनुज को बदलने, धरा को बदलने,
दमन की सभी शक्तियों को कुचलने,
जलाने असुर-राज की आज होली !
मिलाये क़दम से क़दम, गीत गाती,
बढ़ी जा रही है जवानों की टोली !
जवानों की टोली !

डगर में ज़रा भी न कोई रुका है,
प्रहारों के सम्मुख न कोई झुका है,
हिमालय-से सीने पै झेली है गोली !
मिलाये क़दम से क़दम, गीत गाती,
बढ़ी जा रही है जवानों की टोली !
जवानों की टोली !

इमारत नयी ये बनाने चले हैं,
कि खेतों में सोना उगाने चले हैं,
भरेंगे सताये गरीबों की झोली !
मिलाये क़दम से क़दम, गीत गाती,
बढ़ी जा रही है जवानों की टोली !
जवानों की टोली !

सबेरा हुआ है, अँधेरा मिटा है,
कि आँखों के आगे से परदा हटा है,
बिखरती गगन में नयी आज रोली !
मिलाये क़दम से क़दम, गीत गाती,
बढ़ी जा रही है जवानों की टोली !
जवानों की टोली !

बरस कर घने बादलों से धरा पर,
करोड़ों सबल मुक्त हाथों से मल कर,
युगों की पुती कालिमा सख़्त धो ली !
मिलाये क़दम से क़दम, गीत गाती,
बढ़ी जा रही है जवानों की टोली !
जवानों की टोली !

======================
(38) तसवीरें
======================

दूर कहीं पर
सामूहिक गर्जन-स्वर का
मेरे नभ की उन्मुक्त-तरंगों में कंपन !
सुबह-सुबह महसूस हुआ ऐसा
कुछ बदल गयी है दिल की धड़कन !

शायद फिर मौसम बदला है,
बर्फ़ हिमालय का पिघला है !

आज तभी तो
गंगा-यमुना की धाराएँ अँगड़ाईं !
चट्टानों को तोड़ रहीं
जाने कितना अंतर में जीवन भर लायीं !

पूरब के स्वाधीन समुद्रों में अब
डोल उठे अरमान नये,
तूफ़ान नये !
जिनके बारे में सुन तो रक्खा था
पर, वे इस धरती को
छूते देखे नहीं गये।

आज सुबह के आसमान में
आभास उन्हीं का पाया,
मानों सत्य खड़ा हो सम्मुख
छिन्न-भिन्न करके माया !
हलके-हलके कुछ बादल छाये थे
जिनमें मैंने देखे चित्रा अनेकों —
जैसे कोई सरमाया का भूत
नये इंसानों के क़दमों के नीचे
दम तोड़ रहा है !
मैंने देखा जैसे कोई
भूखों, नंगों, पददलितों को
नंदन वन में छोड़ रहा है !
मैंने देखा जैसे कोई
पंक्ति कपोतों की
ख़ुश-ख़बर सुनाने आयी है !
मैंने देखा जैसे कोई
गेहूँ की बालें बिखर-बिखर कर छायी हैं !

इन चित्रों ने मुझको दृढ़ विश्वास दिया है,
जीवन-संघर्षों में अभिनव उल्लास दिया है,
श्रमजीवी जनता की
ताक़त का आभास दिया है !
आज वही तसवीरें
नभ पर प्रतिबिम्बत हैं !

आज वही तसवीरें
जन-जन के मन पर अंकित हैं !
आज उन्हीं तसवीरों को
धरती रखने को लालायित है !

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(39) बहुतेरे
======================

आज सबेरा होता है
पर, बहुतेरे सोते हैं,
काट रहे जन आज फ़सल
पर, बहुतेरे रोते हैं !

आज नयी गंगा बहती
पर, बहुतेरे प्यासे हैं,
चातक से बन इस जल को
पीना घातक कहते हैं !

आज नयी जो चली हवा
इन खेतों-खलिहानों पर,
जन-जन लेते साँस मुक्त
पर, बहुतेरे रहे सिहर !

आज नया संसार बना
पर, कुछ कलियुग समझ रहे,
डर अपनी परछाईं से
अपने में ही उलझ रहे !

======================
(40) पुनर्निर्माण
======================

उद्धारक लगा रहे आवाज़ —
‘पुनर्निर्माण करो,
पुनरुत्थान करो,
चिर-खंडित नष्टप्राय संस्कृति का,
आदिम युग के आदर्शों का !’

बीते वर्षों के रीते घट,
तम के पट पर विगत युगों की
सभ्यता, कला म्लान आज,
ढह गया महान पुरातन !
‘जीवन-सत्यों’ की लिपि
धुल गयी अरे !
फिर से बुझे दीप को आज जलाओ,
मानवता की उस दबी राह को
खोदो !
(खो दो !)

इस नवीन ज्योति की चकाचैंध में
आँखें पथराईं-सी,
इसको हलका करना यदि
तो फिर से दबा अँधेरा फेंको !
जिससे धर्मान्ध मनुष्यों की,
सामन्तों-पूँजीपतियों की,
राजा, थोथे नेताओं की
झूठी क़लई पर आग न आये,
आँच न आये !
डर है —
कि कहीं झूठा रंग उतर ना जाये !

बुद्धि अगर बढ़ जाएगी
तो शेरों की खालों में
छिपे हुए गीदड़
अब और न जीवित रह पाएंगे !
इसीलिए आज पुनर्निर्माण करो —
नूतन संस्कृति के
इस उगते तेज़ उजाले पर
अंधकार से
पुनरुत्थान से प्रहार करो !

======================
(41) नयी चेतना
======================

आँधियाँ फिर से क्षितिज पर
मुक्त मँडराने लगीं !
जन-सिन्धु में हलचल नयी,
अँगड़ाइयाँ भर सुप्त लहरें
व्याघ्र-स्वर करती जगीं !

दूर का प्रेरक बड़ा उद्गम
रुकावट चीर कर,
चट्टान का उर भेद कर,
शायद, गरजता बढ़ प्रवाह गया !
कर लिया संचित सुदृढ़ बल फिर
अथक दुर्दम नया !
है तभी तो युग तुम्हारे
प्राण में उत्साह, जीवन, स्नेह, धड़कन !
मरकुरी-सी ज्योति

आगत युग-नयन की,
दूर है धुँधली सभी छाया सपन की !
ढीर जड़ता की गयी गिर,
तुम तभी तो देख लेते हो
छिपे अगणित विरोधी,
और उनको भी
बदल कर भेष अपना
जो तुम्हारे साथ होने का
सरासर झूठ खुफ़िया-सा वचन
विश्वास का तुमको सुनाते हैं !

सभी ये जन-विरोधी शक्तियाँ
जब मिल गयीं
लख कर निजी हित
और जर्जर ‘इन्क़लाबी गीत’ से
संसार को
नव-पथ-दिशा से रोक
भरमाने लगीं,
सम्मुख तभी तो
आँधियाँ फिर से क्षितिज पर
आज मँडराने लगीं !
संघर्ष-ज्वाला की प्रखर लपटें
पुनः अविश्रान्त लहराने लगीं ।

======================
(42) विनाश-लील (उद्जन-बम विस्फोट पर)
======================

डॉलर-मद से मतवाले मानव के
हाथों में उद्जन-बम है —

रे नयी व्यवस्था के निर्माता
सावधान !
रे जनयुग के आकांक्षी
सावधान !
समता, शान्ति, न्याय-प्रिय मानव
सावधान !

यह मानवता का रक्षक कहलाने वाला
अभी-अभी उद्जन-बम से
बिकनी टापू पर खेल चुका है,
जिसका गरलाक्त धुआँ
सम्पूर्ण प्रशान्त-महासागर में फैल चुका है !

यह वही हिमायती प्रजातन्त्र का
जिसने नागासाकी, हिरोशिमा पर
अणु-बम बरसाये थे,
जिसने जापानी-इन्सानों पर चढ़
फूहड़ मृत्यु-गीत गाये थे,
मानवता के उर्वर खेतों पर
जिसने कोढ़ उगाया था,
जिसने दिशा-दिशा में
अग्नि-कुहर बरसाया था !

वही आज फिर
उद्जन बम को तोल रहा है !
फूहड़ मृत्यु गीत गाने
मुख खोल रहा है !
जिसकी प्रारम्भिक गति से ही
ईथर में मानव-ग्रह डोल रहा है !

रे जीवन के शिल्पी
सावधान,
सुख-स्वप्नों के दर्शी
सावधान,
मुसकानों के प्रेमी
सावधान !

======================
(43) बन्द करो
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भूखों-नंगों दुखियारों की,
मानव-अधिकारों की
आवाज़ नहीं है यह !
भाई-चारे का सच्चा भाव नहीं है यह !
तूफ़ानी सागर में उलझे मानव की
उद्धारक नाव नहीं है यह !

जब संस्कृति की नंगी लाश
तुम्हारे हाथों में है,
लाखों इंसानों का ख़ून
तुम्हारे दाँतों में है
अस्मत-भक्षी दुर्गन्ध
तुम्हारी साँसों में है,
तुम करते हो
मानव-अधिकारों की बात ?
मज़लूमों की छाती पर
कर फ़ौलादी जूतों के आघात !

बस, अपने नापाक इरादों के
नारों को बन्द करो !
शोषित दुनिया के ऊपर से
गुज़र गयी है रात !
जागृति की वर्षा होती है
कागज़ की दीवारों पर
मत नक़ली रंग भरो !
मानव-अधिकारों की
आवाज़ लगाने वाले उट्ठे हैं,
अब महल
तुम्हारी थोथी मानवता का
ढह जाएगा !
जिस पर चढ़ कर ;
समता का गीत नया
हर मानव निर्भय गाएगा !

======================
(44) आज
======================


दिन-पर-दिन होता साकार हमारा सपना,
सार्थक होगा निश्चय युग-ज्वाला में तपना !

कल तक जो धुँधला-धुँधला-सा था दूर बहुत,
वह लक्ष्य हमारा आज निकट नव-आभा-युत !

कल तक जो हमको शंका से देख रहे थे,
और हमारे यश पर कीचड़ फेंक रहे थे,

समता-संस्थापन में आ रोड़े अटकाए,
व्यर्थ हमारे पथ पर आये दाएँ-बाएँ !

आज वही पहचान रहे मानवता की गति,
छोड़ रहे गत जर्जर-मिथ्या-युग के प्रति रति,

सीख रहे अभिनव आदर्शों को अपनाना,
कर्कश स्वर की जगह मधुर-जीवन का गाना !

======================
(45) मज़लूम
======================

सारे जग का सोया जन-सागर
जब अभिनव स्वर सुनकर उठा सिहर,
सबने समझा —
कहीं गिरी है ध्वंसक गाज
पर, वह तो गरजी थी मज़लूमों की आवाज़ !

शोषक-दुर्गों को दृढ़ दीवारें
तड़कीं केवल कंपन के मारे,
सबने समझा —
भूडोल उठा है दुर्दम
पर, वे तो थे मज़लूमों के कुछ कूच-क़दम !

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(46) श्रमिक
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टिकी नहीं है
शेषनाग के फन पर धरती !
हुई नहीं है उर्वर
महाजनों के धन पर धरती !
सोना-चाँदी बरसा है
नहीं ख़ुदा की मेहरबानी से,
दुनिया को विश्वास नहीं होता है
झूठी ऊलजलूल कहानी से !

सारी ख़ुशहाली का कारण,
दिन-दिन बढ़ती
वैभव-लाली का कारण,
केवल श्रमिकों का बल है !
जिनके हाथों में
मज़बूत हथौड़ा, हँसिया, हल है !
जिनके कंधों पर
फ़ौलाद पछाड़ें खाता है,
सूखी हड्डी से टकराकर
टुकड़े-टुकड़े हो जाता है !

इन श्रमिकों के बल पर ही
टिकी हुई है धरती,
इन श्रमिकों के बल पर ही
दीखा करती है
सोने-चाँदी की ‘भरती’ !

इनकी ताक़त को
दुनिया का इतिहास बताता है !
इनकी हिम्मत को
दुनिया का विकसित रूप बताता है !
सचमुच, इनके क़दमों में
भारीपन खो जाता है !
सचमुच, इनके हाथों में
कूड़ा-करकट तक आकर
सोना हो जाता है।

इसीलिए
श्रमिकों के तन की क़ीमत है !
इसीलिए
श्रमिकों के मन की क़ीमत है !

श्रमिकों के पीछे दुनिया चलती है ;
जैसे पृथ्वी के पीछे चाँद
गगन में मँडराया करता है !
श्रमिकों से
आँसू, पीड़ा, क्रंदन, दुःख-अभावों का जीवन
घबराया करता है !
श्रमिकों से
बेचैनी औ’ बरबादी का अजगर
आँख बचाया करता है !

इनके श्रम पर ही निर्मित है
संस्कृति का भव्य-भवन,
इनके श्रम पर ही आधारित है
उन्नति-पथ का प्रत्येक चरण !

हर दैविक-भौतिक संकट में
ये बढ़ कर आगे आते हैं,
इनके आने से
त्रस्त करोड़ों के आँसू थम जाते हैं !
भावी विपदा के बादल फट जाते हैं !
पथ के अवरोधी-पत्थर हट जाते हैं !
जैसे विद्युत-गतिमय-इंजन से टकरा कर
प्रतिरोधी तीव्र हवाएँ
सिर धुन-धुन कर रह जाती हैं !
पथ कतरा कर बह जाती हैं !

श्रमधारा कब
अवरोधों के सम्मुख नत होती है ?
कब आगे बढ़ने का
दुर्दम साहस क्षण भर भी खोती है ?
सपनों में
कब इसका विश्वास रहा है ?
आँखों को मृग-तृष्णा पर
आकर्षित होने का
कब अभ्यास रहा है ?

श्रमधारा
अपनी मंज़िल से परिचित है !
श्रमधारा
अपने भावी से भयभीत न चिंतित है !

श्रमिकों की दुनिया बहुत बड़ी !
सागर की लहरों से लेकर
अम्बर तक फैली !
इनका कोई अपना देश नहीं,
काला, गोरा, पीला भेष नहीं !
सारी दुनिया के श्रमिकों का जीवन,
सारी दुनिया के श्रमिकों की धड़कन
कोई अलग नहीं !
कर सकती भौगोलिक सीमाएँ तक
इनको विलग नहीं !

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(47) मानव-समता का त्योहार
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जब तक जग के कोने-कोने में न थमेगा
सामाजिक घोर विषमता का
बहता ज्वार,
हर श्रमजीवी तब तक
अविचल मुक्त मनाएगा
‘मई-दिवस’ का त्योहार !
मानव-समता का त्योहार !

वह मई-माह की पहली तारीख़
अठारह-सौ-छियासी सन् की,
जब अमरीका के शहरों में
मज़दूरों की टोली
विद्रोही बनकर निकली !
देख जिसे
थर-थर काँपी थी पूँजीवादी सरकार,
पशु बनकर मज़दूरों पर
जिसने किये दमन-प्रहार !
पर, बन्द न की जनता ने
अपने अधिकारों की आवाज़,
भर लेता था उर में
उठती स्वर-लहरों को आकाश !

वह बल था
जो धरती से जन्मा था,
वह बल था
जो संघर्षों की ज्वाला से जन्मा था,
वह बल था
जो पीड़ित इंसानों के प्राणों से जन्मा था !

फिर सोचो, क्या दब सकता था ?
पिस्तौल, मशीनगनों से क्या मिट सकता था ?
बढ़ता रहा निरन्तर
श्रमिकों का जत्था सीना ताने,
होठों पर थे जिसके
आज़ादी के, जीवन के प्रेरक गाने !
जिन गानों में
दुनिया के मूक ग़रीबों की
आहें और कराहें थीं,
जिन गानों में
दुनिया के अनगिनती मासूमों के
जीवन की चाहें थीं !
आहें और कराहें कब दबती है ?
जीवन की चाहें कब मिटती हैं ?
टकराया है मानव जोंकों से
और भविष्यत् में भी टकराएगा !

वह निश्चय ही
सद्भावों को वसुधा पर लाएगा !
वह निश्चय ही
दुनिया में समता, शान्ति, न्याय का
झंडा ऊँचा रक्खेगा !
मानव की गरिमा को जीवित रक्खेगा !

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(48) ओ मज़दूर-किसानो!
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कवि : ओ, मज़दूर - किसानो !
अपना पथ पहचानो !

श्रमजीवी गण : हुआ युगों से शोषण,
जकड़े अगणित बंधन !

बालक : अधनंगे हैं निर्धन !

औरतें : दुख और अभावों में
काट रहे हैं जीवन !

कवि : बदल चुका है जग में
आज ज़माना, मानों !
ओ, मज़दूर-किसानो !
अपना पथ पहचानो !

बालक : हम हैं सोये भूखे,
खा कुछ टुकड़े सूखे !

औरतें : स्वाभिमान खंडित
पग - पग अपमानित,
छाया तिमिर घना
जीवन भार बना !

कवि : अब हुआ नया प्रभात !
छिन्न अंध - ग्रस्त - रात !
अब हुआ नया प्रभात !

श्रमजीवी : यह सरमायादारी ?
यह क्रूर ज़मीदारी ?
.....
निर्दयी शिकारिन बन
धर कर रूप पिशाचिन

(समवेत) : टूटी हम पर !
टूटी हम पर !

कवि : अब भय की बात नहीं !
मिटने का उनका क्षण
आया है आज यहीं !
अब भय की बात नहीं !
जागो, जागो !
ओ, युग-युग से सोये

जन-जन के अरमानो !
ओ, मज़दूर - किसानो !
अपना पथ पहचानो !

सहगान : हाँ , दूर क्षितिज पर आशा के घन,
घिरता जाता प्रतिक्षण पूर्ण गगन !
नव-जीवन का संदेश सनातन
गूँज रहा जिससे जग का कण-कण !

कवि : लो, बंधन का भार ढहा जाता,
युग मुक्त-नया-संगीत सुनाता !

सहगान : हम अभिनव रूप निहार रहे,
उजड़ा तन-मन आज सँवार रहे !
हम पहचान चलेंगे अपनापन,
कोई बाँध न पाएगा लोचन!
फूटा स्वर्ण-विहान !
हम मज़दूर-किसान !

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(49) अकेला नहीं हूँ !
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अकेला नहीं हूँ,
अकेला नहीं हूँ,
ज़माना नया साथ है,
और मैं भी
बड़ी ही खुशी से
सदा साथ उसके !

करोड़ों भुजाएँ
मुझे आज बल दे रही हैं,
अथक शक्ति मेरी
बिना रोक के ले रही हैं !
अनेकों क़दम गिर्द मेरे
निरंतर चले जा रहे हैं,
बढ़े जा रहे हैं !
निराशा नहीं है,
निराशा नहीं है,
किसी भी तरह की विवशता नहीं है !
रुकावट ठहरती न
जन-धार के सामने
सब उखड़ती चली जा रही हैं !

कि पिघला बरफ़
किस हिमालय-शिखर का ?
नयी भूमि को जो
बनाये चला जा रहा है,
निडर शान्त बस्ती
बसाये चला जा रहा है !
हरा, लाल, पीला, गुलाबी चमन
आज उसी ने खिलाया,
मनुज को मनुजता बतायी,
दबे चेहरे की / गिरे चेहरे की
चमक भी बढ़ायी !
उसी ज़िन्दगी से मिलाओ चरण !
और हँस-हँस
उसी ज़िन्दगी से लड़ाओ नयन !

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(50) जवानी
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समय तो गुज़रता चला जायगा
पर, जवानी कभी भी मिटेगी नहीं !

करोड़ों युगों से
जवानी का दरिया
हज़ारों रुकावट मिटाकर
निरंतर बहा है,
व बहता रहेगा !

करोड़ों युगों से
जवानी का सरगम
नयी ज़िन्दगी का
नया गीत गाता रहा है,
व गाता रहेगा !

कि झंकार जिसकी
कभी भी दबेगी नहीं,
और
नभ में, दिशा में,
नगर में, डगर में,
बड़े शोर से गूँज
सबको जगाती रहेगी !

व सपनों की दुनिया
अँधेरे की दुनिया
सदा लड़खड़ाती रहेगी !
अँधेरा गिरेगा, अँधेरा मिटेगा,
कभी पर,
जवानी की ज्योति धुँधली पड़ेगी नहीं !

समय तो गुज़रता चला जायगा
पर, जवानी कभी भी मिटेगी नहीं !

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(51) ज्योति-पर्व
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मिट्टी के लघु-लघु दीपों से
जगमग हर एक भवन !

अँधियारे की लहरों से भूमि भरी,
पर, उस पर तिरती झलमल ज्योति-तरी,
जलना है, चाहे हो जाये
तारक-शशि हीन गगन !

जग पर छायी धूमिल वाष्प असुन्दर,
पर, बहता है अविरल स्नेह-समुन्दर,
युग के मन-मरुथल में तुमको
रहना है भाव-प्रवण !

विशृंखल तेज़ प्रभंजन से संसृति,
पर, मुसकाती संग नयी बन आकृति,
टूटेगा बाँध प्रलय का जब
हर नूतन सृष्टि चरण !

कोलाहल हर कोने से फूट रहा,
अब तो सपनों का बंधन टूट रहा,
खो जाएगा नव-जीवन की
हलचल में क्षीण मरण !

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(52) कवि ‘निराला’ के प्रति
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नवीन भावना व कल्पना-प्रसूत काव्य के
प्रवीण अग्रदूत तुम !
प्रवाह-धार-सी उठान गीत की
कि निर्विवाद शक्ति की प्रतीक
एक-एक पंक्ति,
एक-एक शब्द !
हो कहीं बड़े उदार
मधु बहार मय ग़ज़ल बटोर
गा रहे
मधुर स्वतंत्रा कोकिला सदृश !
कहीं-कहीं बड़े कठोर
घोर वज्रपात-से सशक्त
गीत गा रहे !

जगा मनुज जिन्हें विलोक
शोक-भाव, आत्मग्लानि से उठा !
चरण नवीन-काव्य के
चले नयी डगर ;
खुले नये अधर,
मिले नये विचार,
मुग्ध जग निहार !
पा अमोल फूल-बोल
मुग्ध काव्य-वाटिका !

प्रणाम लो !
अमर कला-जनक,
समस्त जन-समाज का
प्रणाम लो !

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(53) साँझ
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उस ऊँचे टीले पर
कुछ सहमी-सी
काली, नंगी, अनगढ़ चट्टान पड़ी है !
सहमी-सी —
शायद, उस पर अब कोई आकर लेटेगा !
कोई ?
हाँ, हो सकता है —
चाँद-सितारों का प्रेमी हो,
कवि हो,
प्रिय से बिछुड़ा हो,
या कि जगत से रूठा हो !

टीले के चारों ओर
बड़ी दूर-दूर तक
भूरी मिट्टी पर
हरा-हरा क़ालीन बिछा है ;
क़ालीन नहीं हो तो
कम्बल हो सकता है
जिसके अन्दर
कोई भी छिप सकता है !

पास सरोवर के
नरम हृदय की लहरों पर
सूरज की ठंडी किरणें
आलिंगन ढीला करती-सी
धीमे-धीमे
कल आने की बात
सुनाती हैं
‘देखो,
जैसे वह विहग-यूथ उड़ा आता है
हम भी आएंगे !
अब तुम सो जाओ’ !

फिर झोंका आया मंद हवा का
जैसे कोई रमणी
जॉरजेट की साड़ी पहने
निकली हो अभी निकट से !

और देखते ही
इस मन-मोहक दृश्य-चित्र पर
क्या कहें !
किस फूहड़ चित्राकार ने
काले रंग का ब्रुश
आहिस्ता-आहिस्ता
कितनी बेरहमी से चला दिया !

फिर क्या होता है
चाहे कितने ही छींटे
व्योम पर सफ़ेदी के फेंकें !

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(54) नयी ज़िन्दगी
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(रंगमंच पर एक युवक, जिसके जिसके रूखे केशों की लटें मुख के आस-पास गिरी हुई हैं, दर्द भरी आवाज़ में गाता है। मंच पर अँधेरा है, केवल युवक पर पीली-पीली रोशनी पड़ रही है। जैसे ही वह गान प्रारम्भ करता है, पर्दे के पीछे से हल्की-हल्की वाद्य-ध्वनि होती है; जो उसकी रागिनी से मेल खाती हुई है —

कितनी बेबसी के बीच गुज़री जा रही है ज़िन्दगी !

हमेशा एक-से दिन, एक-सी रातें,
वही जीवित अभावों की सड़ी बातें,
हृदय पर कर रहीं आघात,
कि कितनी दूर है बरसात ?
प्राणों का अधूरा गीत रह-रह गा रही है ज़िन्दगी !
कितनी बेबसी के बीच गुज़री जा रही है ज़िन्दगी !

वही सपने पुराने कर रहे हैं छल,
वही कंपन, वही धड़कन, वही हलचल,
हृदय पर कर रही अधिकार,
कि कितनी दूर नव-संसार ?
बारम्बार जीवन के वही क्षण पा रही है ज़िन्दगी !
कितनी बेबसी के बीच गुज़री जा रही है ज़िन्दगी !

(पर्दे के पीछे से वाद्य-ध्वनि ज़रा कुछ तेज़ हो जाती है और साथ में नारी-स्वर भी उसी लय में सुनायी देने लगता है जो अभी अस्पष्ट और धीमा है। युवक का गान चलता रहता है —

बड़ी सूखी हवाएँ आसमानों पर,
चलीं आवाज़ करतीं आशियानों पर,
हृदय में काँपता विश्वास,
कि कितनी दूर है मधुमास ?
पतझर बीच हलकी साँस ले मुरझा रही है ज़िन्दगी !
कितनी बेबसी के बीच गुज़री जा रही है ज़िन्दगी !

(वाद्य-ध्वनि और धीमी-धीमी आवाज़ के साथ, अब पास आते हुए नूपुरों की झनकार भी सुनायी देती है। युवक का स्वर कुछ धीमा पड़ जाता है, पर गान का क्रम बिना टूटे चलता रहता है —

थकावट के नशे से चूर सारा तन,
बड़ा दुर्बल, बड़ा मजबूर, हारा मन,
हृदय में रह गये अरमान,
कि कितनी दूर है मुसकान ?
छाया हड्डियों की बन अकेली छा रही है ज़िन्दगी !
कितनी बेबसी के बीच गुज़री जा रही है ज़िन्दगी !

(मंच पर एक दमकती हुई नारी - नयी ज़िन्दगी की तसवीर बन कर नृत्य करती आती है ; जिसके तन पर रंगीन प्रकाश पड़ रहा है। युवक चकित होकर उसकी ओर देखता है, उसका गान रुक जाता है। इसी समय पृष्ठभूमि का यह स्वर प्रखर हो उठता है —

भविष्यत् विश्व का नव-लक्ष्य सुन्दर है,
मगर अभिनव दिशा का पथ न बेहतर है,
बिछे कंटक कठिन, दुर्दम ;
क़दम पर गिर रहे हरदम,
कितनी आफ़तों को चीर हँसती आ रही है ज़िन्दगी !
गहरे इस अँधेरे में किरन बरसा रही है ज़िन्दगी !

(‘हँसती आ रही...’ शब्दों पर नारी का चेहरा मुसकान से भर जाता है। युवक पृष्ठभूमि के स्वरों को दोहराता हुआ ‘नयी ज़िन्दगी’ की ओर बढ़ता है। उसके रुखे केश हवा में उड़ने लगते हैं और ‘नयी ज़िन्दगी’ उसका हाथ पकड़ लेती है। एक क्षण तक वाद्य-ध्वनि, नूपुरों की झनकार और गीत के स्वर गूँजते रहते हैं।)

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(55) ज्वार और नाविक
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नाव नाविक खे रहा है !

सिंधु-उर को चीर अविरल
दौड़तीं लहरें भयंकर,
सनसनाती हैं हवाएँ
उग्र स्वर से ठीक सर पर,
छा रहा नभ में सघन तम
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
पास हिंसक जंतु कोई
साँस लम्बी ले रहा है !

दूर से आ मेघ गहरे
घिर रहे क्षण-क्षण प्रलय के,
घोर गर्जन कर दबाते
स्वर सबल आशा विजय के,
घूरती अवसान-बेला
मृत्यु से अभिसार है, पर
अटल साहस से सतत बढ़
यह चुनौती दे रहा है !

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(56) जिजिविषा
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जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !

पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
घोर गहगह कर घहरतीं आँधियाँ,
पर, अजब विश्वास ले
सो रहा है आदमी
कल्पना की छाँह में !
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !

पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
चल रहा है आदमी
साथ पाने राह में!
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !

बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
हँस रहा है आदमी
आँसुओं में, आह में!
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में!
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‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड – 2] और ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ [खड – 2] में समाविष्ट।