बुधवार, 29 दिसंबर 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह == टूटती शृंखलाएँ

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह == टूटती शृंखलाएँ

-----------------------------

कविताएँ

1 सदियों बाद

2 स्वातंत्र्य-झंझावात

3 घ्वस्त करो

4 नयी दुनिया

5 संग्राम

6 पीयूषधारा

7 युग-विहग

8 जन-समुन्दर

9 मुक्ति की पुकार

10 अजेय

11 ढहता महल

12 संक्रांति-काल

13 पाषाण-उर

14 मानवी-व्यापार

15 इतिहास

16 झंझा में दीप

17 होली जला दो

18 अभियान के बाद

19 प्रलय

20 इन्क़लाब

21 जागरण

22 परिवर्तन

23 उद्बोधन

24 संबल

25 नया द्रश्य

26 नयी रचना

27 हुंकार

28 नयी निशानी

29 युग-निर्माता

30 धधकती आग

31 गाड़ता हुआ

32 शहीदों का गीत

33 मुझे है याद

34 कला

35 युग कवि से

36 मंज़िल कहाँ

37 पिछड़े हुए राष्ट्र से

38 ज़िन्दगी की शाम

39 जब-जब

40 विश्वास है

41 बहुत हुआ बस रहने दो

42 मन

43 कौन से सपने

44 निशा का युग

45 जीवन-दीप

46 रात का आलम

47 सुनहरी आभा

48 प्रभात

49 ज्वार भर आया

50 ज़िन्दगी

51 शिशिर-प्रभंजन

52 नया विश्वास

53 चाह

54 धूल-श्री

55 ध्वंस और सृष्टि

56 मेरे हिन्द की संतान

57 स्नेह की वर्षा

58 बदलो

59 जन-रव

60 पहली बार

-----------------------------

(1) सदियों बाद

सदियों बाद हिले हैं थर-थर

सामंती-युग के लौह-महल,

जनबल का उगता बीज नवल;

धक्के भूकम्पी क्रुद्ध सबल !

सदियों बाद मिटा तम का नभ,

चमका नव संसृति में प्रभात,

बीती युग-युग की मृत्यु रात,

डोला मधु-पूरित मलय वात !

सदियों बाद उठी है आँधी

कर आज दिशाएँ मटमैली,

धूल क्षितिज पर अहनिसि फैली;

शक्ति-विरोधी पंगु अकेली !

सदियों बाद हँसी है जनता

करने नवयुग की अगवानी;

जीवन की अभिरुचि पहचानी,

दफ़नाने को अश्रु-कहानी !

सदियों बाद जगा है मानव

अधिकारों की आवाज़ लगी,

सुन जग की जनता आज जगी

दुख, दैन्य, निराशा भगी-भगी !

-----------------------------

(2) स्वातंत्र्य-झंझावात

चल रहा है वेग से स्वातंत्र्य-झंझावात,

आज जन-जन की पुकारेंअग्नि की बरसात,

आज जनबल की दहाड़ेंमृत्यु का आघात !

दासता की शृंखलाएँ तोड़ देंगे आज,

घोर प्रतिद्वन्द्वी हवाएँ मोड़ देंगे आज,

निज निराशा, फूट, जड़ता छोड़ देंगे आज !

रक्त-रंजित लाल आँखें माँगतीं प्रतिशोध,

ख़ून का बदला मनुज-बल चाहता भर क्रोध,

चाहता जब नाश, कैसा आज लघु-अवरोध ?

चीरती गिरि से चली है तीर-सी जो धार;

म्यान से बाहर निकल ज्यों विकल हो तलवार,

देख जिसको भीत शोषक-वर्ग अत्याचार !

झुक नहीं सकते हजारों व्यक्तियों के शीश,

झुक नहीं सकते हज़ारों नारियों के शीश,

झुक नहीं सकते हज़ारों बालकों के शीश !

रुक नहीं सकते चरण दृढ़ द्रोहियों के आज,

मिट नहीं सकते दमन की आँधियों से आज,

इन्क़लाबी स्वर दबे कब साथियों के आज ?

-----------------------------

(3) ध्वस्त करो

सब जर्जर-जर्जर ध्वस्त करो !

चिर जीर्ण पुरातन ध्वस्त करो !

कण-कण निर्बल क्षीण असुन्दर,

घुन-ग्रस्त, फटा, मैला, झुक कर,

मिटती संसृति में नूतन बल

प्राणों का जीवित वेग भरो !

जीवन की प्राचीन विषमता

रूढ़ि सकल, बंधन, दुर्बलता,

दुःख भरे मानव के व्याकुल

अंतर की शंका, ताप हरो !

-----------------------------

(4) नयी दुनिया

तुम आज विचारों के बल से,

जन ! रच दो दुनिया एक नयी !

यह उजड़ा वेश धरा का तो,

यह ग्रहण लगा शशि-राका तो,

आँखों को लगता बुरा-बुरा

पी ली मानों प्राचीन सुरा

तुम आज सृजन की घड़ियों में

जन ! रच दो दुनिया एक नयी !

तम के बादल काले-काले

गरज रहे हैं बन मतवाले,

घिरती घोर अँधेरी छाया

घेर रही मन को छल-माया,

तुम ज्योतिर्मय नव-किरणों से

जन ! रच दो दुनिया एक नयी !

उठता आता धुआँ गगन से,

व्याकुल मानव क्रूर दमन से,

शोषक-वर्गों का बल संचित

होगा निश्चय आज पराजित,

तुम आश नयी उर में भर कर,

जन ! रच दो दुनिया एक नयी !

-----------------------------

(5) संग्राम

आज जीवन की अमरता सोचना, अभिशाप है !

सामने जब नाश से उलझा हुआ संघर्ष है,

चाहना परलोक ? जब नव चेतना का हर्ष है,

पंथ पर नूतन चरण की शक्तिमय पदचाप है !

आज नूतन का पुरातन पर विजय का नाद है,

सृष्टि नव-निर्माण अविरत-साधना उन्माद है,

वज्र से फौलाद का अंतिम प्रखर आलाप है !

घोर झंझा के झकोरों में मरण से द्वन्द्व है,

प्राण पंछी नापता नभ; क्योंकि अब निर्बन्ध है,

वेदना-बोझिल-हृदय का मिट रहा संताप है !

बंधनों की अर्गला में बद्ध युग-जीवन न हो,

भय भरी उर में मनुज के एक भी धड़कन न हो,

हो मुखर हर आदमी जो आज नत, चुपचाप है !

बन सुदृढ़ संस्कृति सरल नव सभ्यता लो आ रही,

पूर्ण युग-जीवन बदलता औ बदलती है मही,

नव लहर से विश्व का कण-कण बदलता आप है !

-----------------------------

(6) पीयूष-धारा

हो गया संसार मरघट,

आज कवि ! पीयूष की धारा बहाओ !

हो गये सारे गगन चुंबी भवन

लुंठित धरा पर ध्वस्त होकर,

आततायी, अदय, बर्बर

राक्षसों के लोटते हैं शव भयंकर,

आज नव-निर्माण की दृढ़ चेतना,

प्रत्येक जन-मन में जगाओ !

मौन आहुतियाँ अमित, नव बीज

भावी विश्व के बो मिट गयी हैं,

जूझ मानव राक्षसी मति-गति

लहर से खो गये, दुनिया नयी है,

सींच प्रतिपल स्वेद, शोणित,

स्नेह से युग-भूमि को उर्वर बनाओ !

रुग्ण जीवन-डाल, पल्लवहीन,

निर्बल, सूख प्राणों का गया रस,

दृष्टि खोयी-सी, मनुज की चेतना

को नाश के तम ने लिया ग्रस,

जागरण का तूर्य गूँजे,

प्रज्वलित जग, सूर्य-सम, रे जगमगाओ !

युग-चरण विजड़ित नहीं हों,

शक्ति-आशा-स्वर ध्वनित तूफ़ान डोले,

कोटि हाथों से उठे नव-राष्ट्र

जन-मन गर्व से जय मुक्त बोले,

रागिनी नूतन, उषा की रश्मि से

अब मृत्यु की छाया हटाओ !

-----------------------------

(7) युग-विहग

शून्य नभ में युग-विहग तुम

एक गति से ही उड़ोगे,

तुम उड़ोगे !

रुक नहीं सकते कभी भी

पंख उठते और गिरते ही रहेंगे,

थक नहीं सकते कभी भी;

राह पर आ मेघ घिरते ही रहेंगे,

विश्व को संदेश नूतन

मुक्ति का दे, तुम बढ़ोगे,

तुम बढ़ोगे !

अग्नि-पथ पर, स्वस्थ मन से,

आत्म-संबल के सहारे और निर्भय,

पद-प्रदर्शक, ज्ञान-दीपक,

नव-सृजन से, सर्वहारा-वर्ग की जय,

युग-विरोधी शक्तियों को

तुम चुनौती दे चढ़ोगे,

तुम चढ़ोगे !

-----------------------------

(8) जन-समुन्दर

अग्नि-पथ है, प्रज्वलित लपटें गगन में,

स्वार्थ, हिंसा, लोभ, शोषण, नाश रण में,

चल रहे हैं, पर, चरण युग के निरंतर,

साँस में हुंकारते मुठभेड़ के स्वर,

युग-विरोधी शक्तियों को दे चुनौती

हर क़दम पर, हर क़दम पर

बढ़ रहा दृढ़ जन-समुन्दर !

ये चरण युग के चरण हैं, कब झुकेंगे ?

ये शहीदों के चरण हैं, कब रुकेंगे ?

कौन-सा अवरोध आहत कर सकेगा ?

पंथ पर तूफ़ान आहें भर थकेगा !

ये करेंगे विश्व नव-निर्माण बढ़ कर

हर क़दम पर, हर क़दम पर

बढ़ रहा दृढ़ जन-समुन्दर !

नाश को ललकारती है युग-जवानी,

क्रांति का आह्नान करती आज वाणी,

प्राण में उत्साह नूतन ताज़गी है,

युग-युगों की साधना की लौ जगी है,

सामने जिसके ठहरना है असम्भव !

हर क़दम पर, हर क़दम पर

बढ़ रहा दृढ़ जन-समुन्दर !

-----------------------------

(9) मुक्ति की पुकार

बद्ध कंठ से सशक्त मुक्ति ही पुकार !

धैर्य पूर्ण उर सबल

लक्ष्य ओर दृढ़ चरण

व्यर्थ नाश-शस्त्र सब

व्यर्थ क्रूरता दमन

झुक सका न शीश, मिल सकी न क्षणिक हार !

अंध छा गया सघन

आज पर्व है प्रलय

राजनीति का कुहर

भर गया सहज निलय

तोड़-फोड़ सृष्टि-नाट्य ध्वस्त तार-तार !

तीव्र सिंह से गरज

मेघ से विशाल बन

चल पड़े निशंक सब

विश्व के नवीन जन

लाल-लाल सब जहान का बना सिँगार !

-----------------------------

(10) अजेय

मुझको मिली कब हार है !

तुम रोकते हो क्यों मुझे ?

तुम टोकते हो क्यों मुझे ?

धधका निराशा का अनल

तुम झोंकते हो क्यों मुझे ?

हैं अमर मेरे प्राण

मेरा अमर हर उद्गार है !

रुकना मुझे भाता नहीं,

थकना मुझे आता नहीं,

सह लक्ष-लक्ष प्रहार भी

झुकना मुझे आता नहीं,

प्रत्येक क्षण गतिवान जीवन

शक्ति का संसार है !

मैं बढ़ रहा तूफ़ान में,

ले क्रांति-ज्वाला प्राण में,

वरदान मुझको मिल रहा

प्रतिपद अभय बलिदान में,

नौका भँवर में हो फँसी

साहस अथक पतवार है !

-----------------------------

(11) ढहता महल

द्रोह-युग प्रत्येक मानव-वर्ग में संघर्ष,

है कहाँ जन-मुक्ति, सुख, स्वाधीनता का हर्ष !

क्रूर बर्बर घोर हिंसक नाश-वाहक द्वन्द्व,

प्राण जन के त्रस्त, जीवन-मुक्ति के पट बन्द !

कौन छाया-सा भयंकर देखता है घूर

ठीक सिर पर आ गया जो था अभी तक दूर !

बद्ध खूनी लाल पंजे में हुआ समुदाय

चीखता, रोदन करुण, नत प्रति निमिष निरुपाय !

स्वार्थ औ पाखंड-संस्कृति से विनिर्मित भूत

पत्रा, मिल, पूँजी, सबल कल, जाल-सा बुन सूत !

फल गयी मकड़ी, समाजी तन सतत घुल क्षीण

हो रहा जर्जर, धँसी ले आँख पीली दीन !

पर, नयी अब उत्तरी-ध्रुव से उठी आवाज़,

देखता हूँ विश्व, केवल रूस जनता राज !

दे रहा साहस, दिशा, संबल, सृजन की शक्ति

स्तम्भ मानवता सुदृढ़, पा शोषितों की भक्ति !

-----------------------------

(12) संक्रांति-काल

त्रास्त जीवन, खलबली चहुँ ओर, आहत मूक व्याकुल प्राण!

छोड़ता हूँ आज जर्जर क्षीण मृत प्राचीन संस्कृति प्यार,

चल पड़ा खंडित धरित्री पर बसाने को नया संसार,

स्तब्धता, सुनसान, पथ वीरान, गुंजित हो नयी झंकार,

आज फिर से नव सिरे से चाहता हूँ विश्व का निर्माण!

व्योम कुहराच्छन्न, गहरा तम घिरा, कम्पित धरा भयभीत,

विश्व-आँगन में मचा रोदन, खड़ी है दुःख की दृढ़ भीत,

राह जीवन की विषम है, हो रहीं जग-नाश की सब रीत

सूर्य-किरणों से खुलें सब द्वार, जीवन हर्ष हो उत्थान !

सभ्यता कल्याणमय, सुखमय, नवल निर्मित, सबल हो नींव,

एकता आधार पर जग के खड़े हों, जी सकें सब जीव,

ध्वस्त पूँजीवाद तानाशाह भू-नासूर फोड़े पीब,

शक्ति ऐसी चाहता जिससे जगत को दे सकूँ वरदान !

रूढ़ियों की जटिल जकड़ी लौह-कड़ियाँ झनझना कर तोड़,

अंध सब विश्वास, घेरे सर्प-से मन को, निमिष में छोड़

सभ्यता की डाल पर पटकी कुल्हाड़ी आज दूँगा मोड़,

टूटती-गिरती दिवारों पर, लगें फिर गूँजने मधु गान !

शक्ति का संग्राम, सागर में उठा उन्मत्त दुर्दम ज्वार,

तीव्र गति से टूट द्वीपी-तट, प्रखर बढ़तीं अनेकों धार,

शक्ति जन-जन की लगी है,आज किंचित मिल न सकती हार,

कौन कुचलेगा जगत में सर्वहारा वर्ग का अभिमान ?

ध्येय है आगे, चरण पथ पर बढ़ेंगे, है न कोई रोक,

स्वत्व का-अधिकार का संघर्ष झंझा-सा, न कोई टोक,

क्रांति की जलती-भभकती अग्नि में जब तन दिया है झोंक,

है न कोई मोह-ममता का, प्रलोभन का कहीं सामान !

जग बदलता है, जगत का हर मनुज बदले बिना अवरोध,

मानवोचित सभ्यता में हो रहे प्रतिपल निरन्तर शोध,

साधना दृढ़ शांत संयम से बँधी, थोथा नहीं है क्रोध,

मिल रहे जन-राष्ट्र, शोषण लूट भक्षक-नीति का अवसान!

-----------------------------

(13) पाषाण-उर

आज मानव का हृदय तो बन गया पाषाण !

ख़ून से विचलित नहीं होते तनिक भी प्राण !

जल गया है अग्नि में मधु स्नेह,

रिक्त अंतिम बूँद, जर्जर देह,

गिर रहा दुख के घनों से मेह,

टूट कर ढहता सुरक्षित गेह,

कष्ट-कंटक आपदाओं में फँसी है जान !

बढ़ रही है विश्व-भक्षक प्यास,

पी चुका इतना कि अटकी साँस,

है नहीं कोमल अधर पर हास,

क्रूरता, हिंसा, नहीं विश्वास,

कर्ण-भेदी गा रहा फूहड़ घृणा का गान !

उड़ रही मरुथल सरीखी धूल,

साथ उड़ते टूट सूखे फूल,

आश-तरु उखड़े सभी आमूल,

डूब जल में सब गये हैं कूल,

नाश का ज्वालामुखी फूटा, कहाँ निर्माण ?

-----------------------------

(14) मानवी-व्यापार

मानवी-व्यापार कितनी दूर !

दूर जन-जन से सहज उमड़ा हुआ मधु प्यार,

दूर जन-जन से सरल, सुख, शांति का संसार,

हो रहा है पीड़ितों का आत्म-गौरव चूर !

चाहता मानव कि भर लूँ स्वर्ण-निधि से कोष,

कर रहा अभियान निर्भय, है नहीं संतोष,

दानवी-बल नाश-हिंसा-भावना भरपूर !

नाज़ियों-सा क़ाफिला बन कर रहा प्रस्थान,

सत्य-शिव-सुंदर जलाने, सर्वनाशक गान,

देखते बरबाद करने के घृणित ग्रह घूर !

आततायी शक्ति का सूरज कहाँ है अस्त ?

आज ज्वाला-ग्रस्त दुर्बल वर्ग जग का त्रास्त,

आज तो पथ-भ्रष्ट मानव हिंस्र ख़ूनी क्रूर!

-----------------------------

(15) इतिहास

विश्व अस्थिर, प्रति चरण पर

बन रहा है नित्य नव इतिहास !

क्षण गिराते जा रहे हैं,

क्षण मिटाते जा रहे हैं,

आज देशों को धरा से,

युद्ध की गढ़-कन्दरा से,

ऊर्धव अविरत राष्ट्र अगणित,

ले रहे कुछ क्षीण अंतिम साँस !

कल प्रगति के जो शिखर पर

आज निर्बल शक्ति खोकर

पद-दलित हो, रजकणों-सम

हैं धराशायी, तिमिर-भ्रम,

खिल रहा उजड़े चमन में

भव्य आशा का कहीं मधुमास !

नीतियाँ औ वाद कितने,

भिन्न जग के नाद कितने,

दे रही प्रतिपल सुनायी

आज ज़ोरों से मनाही,

बढ़ रही मन में निरन्तर

मनुज के आ विश्व-भक्षक प्यास !

-----------------------------

(16) झंझा में दीप

आज तूफ़ानी निशा है, किस तरह दीपक जलेंगे !

मुक्त गति से दौड़ती है शून्य नभ में तीव्र झंझा,

शीर्ण पत्रों-सी बिखरती चीखती हत त्रास्त जनता,

क्योंकि भीषण ध्वंस करतीं बदलियाँ नभ में चली हैं,

क्योंकि गिरने को भयावह बिजलियाँ नभ में जली हैं,

मेघ छाये हैं प्रलय के, नाश करके ही टलेंगे !

आज जन-जन को जलाना है न, निज गृह दीप-माला,

आज तो होगी बुझानी सर्व-भक्षक विश्व-ज्वाला,

तम धुआँ छा प्रति दिशा में घिर गया गहरा भयंकर

युग-युगों का मूल्य संचित मिट रहा, रोदन भरा स्वर,

कर्ण-भेदी लाल अंगारे स्वयं फटकर चलेंगे !

एकता की ज्योति हो; जिससे मिले मधु स्नेह अविरल,

और तूफ़ानी घड़ी में जल सके लौ मुक्त चंचल,

शक्ति कोई भी न सकती फिर मिटा, चाहे सुदृढ़ हो,

विश्व का हिंसक प्रलयकारी भयंकर नाश गढ़ हो,

फिर नहीं इन आँधियों में दीप जीवन के बुझेंगे !

-----------------------------

(17) होली जलादो

आज मेरी देह की होली जला दो !

घिर गया जब घोर अँधियारा गगन में

घुट रहे हैं प्राण सदियों से जलन में

विश्व ज्योतिर्मय करो भावी मनुज, लो

आज मेरी देह की होली जला दो !

ज्वाल की लपटें समा लें अश्रु-सागर,

हो अशिव सब भस्म जग का मौन कातर,

मात्र उसको हर असुन्दर कण बता दो !

आज मेरी देह की होली जला दो !

ज्वाल होगी जो प्रलय तक साथ देगी

सूर्य-सी जल भू-गगन रौशन करेगी,

इसलिए, तम से घिरों को ला मिला दो !

आज मेरी देह की होली जला दो !

यह जलेगी भव्य शोभा संचिता हो,

घेर लेना विश्व तुम मेरी चिता को,

देखकर बलिदान की धारा बहा दो !

आज मेरी देह की होली जला दो !

-----------------------------

(18) अभियान के बाद

गूँजते रह-रह करुण-स्वर !

रक्त की नदियाँ बहा कर

दिग-दिगन्तों को हिला कर

थम गये निर्मम बवंडर,

आज जन-जन के व्यथित उर !

मुक्त युग-खग के दमित पर !

होम वैभव कर, निरन्तर

नृत्य दानव का भयंकर

हो चुका मानव-अवनि पर,

नाश हिंसा से चकित हर !

विश्व में मानों जड़ित डर !

-----------------------------

(19) प्रलय

उजड़ा पड़ा सारा नगर,

सूनी पड़ी सारी डगर,

चिडियाँ तृषित सहमी खड़ीं,

कुटियाँ सकल टूटी पड़ीं,

छायी अवनि-आकाश में दहशत !

आ सनसनाता है पवन,

क्रोधित प्रखर धधकी जलन,

ज्वाला ग्रसित अगणित सदन,

उर्वर हुआ, सूखा विजन,

दृढ़ उच्च दुख का बन गया पर्वत !

कण-कण गया भू का सिहर,

उर में बही भय की लहर,

हिंसक बढ़े जब घिर अमित,

क्रन्दन, मरण जन-जन दमित,

दुर्बल जगत सारा हुआ आहत !

-----------------------------

(20) इंकलाब

त्रास्त सदियों के घृणित इतिहास पर छा

क्रांति की लपटें धधकती हैं भयंकर,

रुद्ध प्राणों के दमन से बंद थे पट

टूट कर गिरते अवनि पर डगमगा कर !

न्याय के स्वर पर दबी थी विश्व जन-जन

की करुण दुख से भरी वाणी सतायी,

वह कहीं से राह पाकर फूट निकली

है व्यथा से चूर्णरक्षा की दुहायी !

फूट निकली हैं उमड़ती एक के उपरांत

सरिताएँ विजन खोयी हुईं-सी,

फूट निकला है कि लावा गर्म भीषण

गर्भ-भू से, विषमता धोयी हुई-सी !

आज जीवन मुक्ति का आह्नान आया

सुप्त जगती के कणों में चेतना है,

धमनियों में रक्त का संचार अविरल

वज्र-सा बल-वेग, अभिनव प्रेरणा है !

शक्तियाँ नूतन जगत-निर्माण करने

बढ़ रहीं नव-सभ्यता-आदर्श पर हैं,

विश्व के कल्याण के साक्षी बनेंगे

द्रोह जीवन-भावना-संगीत-स्वर हैं !

आँधियाँ काली क्षितिज पर उड़ रही हैं,

जीर्णता प्राचीन मिटती जा रही है,

हो रहे कोँपल नये विकसित अवनि पर,

सृष्टि नूतन वेश प्रतिपल पा रही है !

देश और समाज की क्षय नीतियाँ मिट

नव सरल शासन व्यवस्था बन रही है,

लूट-शोषण की प्रथा को छोड़कर, अब

एक नूतन भव्य दुनिया बन रही है !

भव्य दुनिया वह कि जिसमें रह सकेंगे

सम दुखों में, सम सुखों में वर्ग सारे,

भव्य दुनिया वह कि जिसमें रह सकेंगे

विश्व-मानव एक-सा ही रूप धारे !

-----------------------------

(21) जागरण

संसार के तरुण जगे

प्रत्येक के नयन जगे

विद्रोह-अग्नि से दिशा जली,

दिशा जली !

हुंकार जन-चरण बढ़े

ललकार जन-चरण बढ़े

लो साम्य-सूर्य से निशा मिटी,

निशा मिटी !

जन-शक्ति का प्रहार है,

उन्मुक्त राह-द्वार है,

नव विश्व-सृष्टि है उषा जगी,

उषा जगी !

-----------------------------

(22) परिवर्तन

दुनिया का कण-कण परिवर्तित

गूँजा जीवन-संगीत नवल,

प्रतिक्षण सुंदरतर निर्मिति हित

है व्यस्त सतत जन-जन का बल !

सदियों का सोया जागा है

युग-मानव नव बन आया है,

जल जाएगा विश्व अशिव सब

यह अनबुझ ज्वाला लाया है !

मिथ्या विश्वासों के शव पर

नव-संस्कृति-ज्वाला रही बिखर,

पिछड़ी सोयी मानवता के

नयनों में नव-आलोक प्रखर !

आँसू, लूट, नाश का निर्मम

रक्तिम, वहशी इतिहास गया,

क्षत-विक्षत जग के आँगन का

होता अब तो निर्माण नया !

-----------------------------

(23) उद्बोधन

जीवन मुक्त करो !

सदियों की बद्ध शृंखला,

निष्क्रिय खंडित भ्रमित कला,

तमसावृत सृष्टि अर्गला,

नूतन रवि-रश्मि प्रखर से सब छिन्न करो !

तन-मन मुक्त करो !

जन-जन पीड़ित अपमानित,

बंधन-ग्रस्त अवनि लुंठित,

निर्बल, नत, मूक, पराजित,

स्वाभिमान मर्माहत, जड़ता भंग करो !

जन-जन मुक्त करो !

ठोकर, क्षुधा, अभाव, मरण,

कटु जीवन का सूनापन,

लज्जा का इतिहास, दमन,

सामूहिक हुंकारों से विद्रोह करो !

जग को मुक्त करो !

-----------------------------

(24) सम्बल

प्रगति ही ध्येय जीवन का, बना संबल !

गहन जीवन-समुंदर में

रहीं प्रतिबार उठ-गिर वेग से लहरें,

बना सुख-दुख किनारे

ज़िन्दगी बहती सरल-दृढ़ बन, बिना ठहरे,

उमड़ते ज्वार के सम्मुख

तनिक भी प्राण मानव के नहीं सिहरे,

जटिलता राह की कब कर सकी दुर्बल ?

झुका कब शीश मानव का,

निमिष भर, पत्थरों की चोट से पीड़ित,

हुआ कब धैर्य जीवन में

सबल युग-प्राण का किंचित कहीं विगलित,

प्रहारों से हुआ देदीप्य मुख,

बढ़ती गयी तन कांति हो ज्योतित,

सतत युग-साधना-व्रत चल रहा अविरल !

हिमालय-सी सुदृढ़तम दीर्घ

बाधाएँ खड़ी हैं राह में अड़कर,

बरसते व्योम से शोले, धधकते

लाल, धू-धू जल रहा हर घर,

गिरा देना कठिन पथ पर

हवाएँ चाहतीं बहकर प्रखर सर-सर,

चरण पर, बढ़ रहे हैं, ज्वाल में जल-जल !

बनी तूफ़ान-स्वर साथिन

अमर यौवन भरी ललकार यह मेरी,

डोलती है वायु में उन्मुक्त

जीवन-चेतना-तलवार यह मेरी,

हिला देगी सुदृढ़ पर्वत

शिला-अन्याय की, हुंकार यह मेरी,

हृदय में आग, नवयुग की मची हलचल !

-----------------------------

(25) नया दृश्य

सामने सौ-सौ विपथ के मृदु प्रलोभन

घेर साधक को, रहे कर मुग्ध नर्तन !

मुक्ति औ स्वच्छंदता का उर दबाकर

बाँसुरी तम-युग विजन की कटु बजाकर,

जो सफलता पर अशिव की गा रहा है

समय उसका भी मरण का आ रहा है !

शीघ्र होगा अब दनुजता-मान-मर्दन

आज अंतिम टूटते हैं मनुज-बंधन !

शीघ्र गूँजेगी गगन में महत मानव

लोकवाणी शक्तिशील और अभिनव !

दे सकेगी पीड़ितों को सुदृढ़ संबल

विश्व के सब शोषितों को स्नेह निश्छल !

हत प्रताड़ित नत दुखी बेचैन जन-जन

सुन सकेंगे तूर्य नव उन्मुक्त जीवन !

चिन्ह नवयुग के प्रखर देते दिखायी,

ज्योति नूतन, सृष्टि-कण-कण में समायी !

शीघ्र उभरेगा, जगत का हर दबा स्वर,

इस बदलती शुभ घड़ी में जाग सुंदर !

आज दुर्बल क्षीण स्वर देता न शोभन,

आज कवि का हो सबल नव भाव-चित्रण !

-----------------------------

(26) नयी रचना

नवीन ज्योति की किरण

सुदूर व्योम से

सघन युगीन अंधकार

छिन्न-भिन्न कर

उतर रही मिटा निशा

चमक उठी दिशा-दिशा !

नवीन मेघ की झड़ी

सुदूर व्योम से बरस पड़ी

नहा गया नगर

नहा गयी गली-गली

बहा गयी सभी

पुराण जीर्णता गली-सड़ी !

बरस रही नये विचार की झड़ी

नहा रहा मनुष्य विश्व का,

विकास-पंथ द्वार पर

खड़ा मनुष्य विश्व का,

कि खिल रहे समाज में

नवीन फूल,

सृष्टि ने बदल लिए दुकूल !

नव सुगन्ध से भरी हवा

सुदूर व्योम से

अशेष वेग ले

नवीन लोक का रहस्य विश्व को बता गयी !

अथक प्रयत्न शक्ति दे गयी !

उभर रहा समाज का नवीन शृंग !

बन रहा नया विधान

जन प्रधान

ध्वंस-सृष्टि

संग-संग !

-----------------------------

(27) हुंकार

हुंकार हूँ, हुंकार हूँ !

मैं क्रांति की हुंकार हूँ !

मैं न्याय की तलवार हूँ !

शक्ति जीवन जागरण का

मैं सबल संसार हूँ !

लोक में नव-द्रोह का

मैं तीव्रगामी ज्वार हूँ !

फिर नये उल्लास का

मैं शांति का अवतार हूँ !

हुँकार हूँ, हुंकार हूँ !

मैं क्रांति की हुंकार हूँ !

-----------------------------

(28) नयी निशानी

जन-जन के मानस पर रूढ़ि पुरातन हावी

पर, निश्चय, नव किरणों से चमकेगा भावी !

प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिगामी, प्रतिध्वनि सकल विरोधी

तम का परदा काला, दुर्गमता अवरोधी,

नव लहरों के अविरल धक्कों से हो आहत

हो जाएगा सभी प्रगति के चरणों पर नत !

युग गति का वेग असह्य दुर्जय भारी दुर्दम

सतत प्रखर जिसके हैं विद्युतमय सकल क़दम !

चट्टानें तड़क रहीं, भीषण स्वर, लुंठित

×झा के पीछे हो खंडित शिथिल पराजित !

टूटीं जटिल सभी आज समाजी सीमाएँ,

धू-धू कर धधक रहीं प्राचीन विषमताएँ !

भू-कंपन से उखड़ी जाती जड़ें पुरानी,

दीख रही धरती पर उगती नयी निशानी !

एक नयी दुनिया का संदेश सुना जग ने,

सावधान हो, सोये जन, मुक्त जगे लगने !

सत्य प्रखर हो सम्मुख आया मानवता के,

स्वर फूट पड़े चहुँ ओर नयी ही समता के !

परिवर्तन, विप्लव युग, है व्यस्त सतत मानव,

लाने को अवनी पर ज्योतिर्मय युग अभिनव !

-----------------------------

(29) युग-निर्माता

झंझा में झूले वह जिसको निज पथ की पहचान

आग जलाकर चले वही जिसके चेहरे पर मुसकान !

जगमग उसके नेत्र कि जिसमें जीवन तीव्र प्रकाश,

धड़कन उसके उर में, जिसमें भावी की है आश,

सुप्त पड़ा निर्जीव वही जिसका तन ठंडी लाश

गंभीर हिमालय-सा वह; है जिसका शीश महान !

ज्वाला जिसके अंग-अंग में, दे प्राणद संदेश,

युग-निर्माता वह जिससे दूर नहीं हो जीवन-क्लेश !

सैनिक वह ही केवल जिसका सुदृढ़ अहिंसक वेष,

युग-संचालक, मुखरित हो, जब छाया हो सुनसान !

तलवार वही साधक जिससे कँपता हो संसार,

ढह कर गिर जाए झट, सरके वह आधार !

तूफ़ानी सागर में खे ले नौकावह पतवार,

ऐसा हो जग की जनता के नेता का अभिमान !

-----------------------------

(30) धधकती आग

गीत गाने के लिए मेरे विकल हैं प्राण !

क्षितिज-रेखा पर दिखाई दे रहे हैं

दग्ध उजड़े लोक के ही दाग़,

और चारों ओर धधकी विप्लवी

भीषण मचल कर नाशकारी आग,

दूर हो अभिशापप्रस्तुत सृष्टि का वरदान !

असह, देती हैं हिला, पीड़ा पुकारें,

क्रूर-उर-पाषण भी झकझोर,

आदमी का दर्प पागल बन, धुआँ

ज्वालामुखी-सा फट रहा है घोर,

मिट गया है आज मानव का सकल अभिमान !

देखता हूँ, हो रहा है घोर बर्बर

नृत्य-तांडव, हिंस्र निर्मम ध्वंस,

देखता हूँ, हो रहे हैं राख ज़िंदा

तड़प मानव तोड़कर दम, ध्वंस,

दीखते दीवार पर चित्रित करुण आख्यान !

-----------------------------

(31) गाड़ता हुआ

हो रहा है दुंदभी का घोष द्वार-द्वार पर,

हिल रही है सुप्त कब्र-कब्र नव-पुकार पर !

पूर्व रूप पर नवीन शक्ति जैतवार है,

दर्प की शिला तड़क रही, नया प्रहार है !

ज़िन्दगी ने कर दिये दलित सशक्त-कठघरे,

भूमि पर गिरा दिये कुलाधि पात्र विष भरे !

तारतम्य रोशनी सदृश अटूट चल रहा,

दाघ-दाझना से मिट रहा विपक्ष बल महा !

आफ़तों के बादलों के झुक गये हैं गर्व सिर,

और गर्जनों का है दहाड़ता हुआ विलीन स्वर !

आ रहा है युग नया-नया लथाड़ता हुआ,

दुश्मनों की मौत कर जघन्य गाड़ता हुआ !

-----------------------------

(32) शहीदों का गीत

यह शहीदों का अमर पथ

रोकना इसको असम्भव !

मेटना इसको असम्भव !

चल रहे जिस पर युगों से दृढ़ चरण शत-शत निरंतर,

एक धुन है, स्फूर्तिमय क्रम, गान में ले प्रलय का स्वर,

मध्य की अठखेलियाँ तूफ़ान - झंझावात अगणित

ये थके कब, ये रुके कब, ये झुके कब, प्राण के हित?

चल रहे अविराम गति से

रोकना इनको असम्भव !

यह शहीदों का अमर पथ

मेटना इसको असम्भव !

रोक सकते राह के कंटक नहीं, रोड़े नहीं, भय,

तिमिर भी क्या कर सकेगा, हो चुका पथ पूर्व-परिचय,

शृंखलाएँ बंधनों की तोड़ने ये बढ़ रहे हैं,

स्वत्व के संग्राम में औ मुक्त होने लड़ रहे हैं,

ये अमर बन मिट रहे हैं

रोकना इनको असम्भव !

यह शहीदों का अमर पथ

मेटना इसको असम्भव !

वेदना शत-शत, मरण-दुख, अश्रु, ममता प्यार, क्रन्दन,

कर नहीं सकते विकंपित मोह के अविराम साधन,

दण्ड, अत्याचार, पशुबल, नाश के हथियार भीषण,

कर सकेंगे मुक्ति-पथ से क्या विपथ? जब है, सुदृढ़ मन!

हो चुकी भीषण परीक्षा

रोकना इनको असम्भव !

यह शहीदों का अमर पथ

मेटना इसको असम्भव !

विश्व के कल्याण की शुभ-भावना साकार करने,

मुक्त जीवन की प्रखरता को बसा, दुख-क्लेश हरने,

ये जगे जब-जब जगत में, न्याय के स्वर को दबाया

ये रहे बस मौन जब-तक, ज़ोर शोषण ने न पाया,

शक्तिमय हुंकार इनकी

रोकना जिसको असम्भव !

यह शहीदों का अमर पथ

मेटना इसको असम्भव !

-----------------------------

(33) मुझे है याद

मुझे है याद तेरा क्रूर पागल रूप हत्यारा,

बहायी थी जमीं पर बेरहम जब रक्त की धारा,

जलाये गाँव थे पूरे, उजाड़ी बस्तियाँ अगणित

मुझे है याद ज़ुल्मों का दमन इतिहास वह सारा !

नयन जिनने कि तेरी दानवी तसवीर देखी है,

हृदय जिसने असह घुटती हुई वह पीर देखी है,

कभी क्या भूल सकती हैं दुखी आहें गरीबों की

कि जिनने मूक मिटने की सदा तक़दीर देखी है ?

बग़ावत के गगन में मुक्त हो झंडे उठाये हैं,

शहीदी शान से जिनने अभय हो सिर कटाये हैं,

चरण जिनके सदा गतिशील आगे ही उठे दुर्दम

सतत संघर्ष में हर बार जिनने घर लुटाये हैं !

जलन की आग जो धधकी हृदय रह-रह जलाती है,

कहानी सिसकियाँ-आँसू भरी निर्मम सताती है,

चुनौती आज देता है सबल पुरुषार्थ यह मेरा

कि साँसें हर घड़ी तूफ़ान के धक्के बुलाती हैं !

कि तेरे राज में हमने जवानी को मिटाया है,

ठिठुरते नग्न बच्चों को सदा भूखा सुलाया है,

सुनहली भवन-जीवन-स्वप्न की दुनिया बनाने की

हमारी कामना को धूल में तूने मिलाया है !

जला देगी नयन के आँसुओं से फूटती ज्वाला

सभी बंधन विषमता के, अबुझ प्रतिशोध की हाला,

हमारी धमनियों में रक्त की नूतन भरी लहरें

प्रहारों से मिटेगा वर्ग शोषक क्रूर मतवाला !

-----------------------------

(34) कला

जो सुदूर स्वप्न-राज्य की विहारिका

व्योम पार देश की रही निहारिका

कर्म-मार्ग हीन, स्वर्ण-विश्व साधिका

द्वन्द्व से विमुख, सदा नवीन बाधिका

हेय व्यर्थ युग-उपेक्षिता अमर कला !

धूल से विलग विचार वास्तविक नहीं

झूठ शब्द-जाल चित्र-मात्र है वही

जो मनुष्य भाव-राग से जुड़ा न हो

दर्द-हास तार से सहज बुना न हो

कब समाज में टिका ? कहाँ अरे चला ?

व्यक्त सिर्फ़ आज के सवाल चाहिए

तम नहीं प्रभात लाल-लाल चाहिए

व्यक्ति की करुण कराह है उतारनी

आग जो दबी उसे पुनः उभारनी

सब कुरीतियाँ मिटें, प्रहार ज़लज़ला !

भावना निराश ना मृतक समान हो

अश्रु औ रुदन नहीं, न मोह गान हो,

आज जीर्ण देह तोड़ता मजूर हैµ

पर, समानता समय बहुत न दूर है,

कवि मुखर करो ! य किसलिये कला भला ?

-----------------------------

(35) युग कवि से

ऐसे गीत नहीं गाने हैं !

जो गति का साथ नहीं देंगे

गिरते को हाथ नहीं देंगे

निर्धन त्रास्त उपेक्षित व्याकुल

जनता के भाव नहीं लेंगे,

युग कवि ! तुमको हरगिज़, हरगिज़

ऐसे गीत नहीं गाने हैं !

भूल जगत, मानव-आवाहन

सर्वस्व समझ नभ-आकर्षण

पहले तारक-दल का सुनना

मूक स्वरों का मौन-निमंत्रण,

सपनों के निर्जीव अचेतन

माया गीत नहीं गाने हैं !

जिनमें जीवन का वेग नहीं

दुनिया जिनकी है दूर कहीं

जो मनुज-हृदय को शिथिल करें

जो बदल न पाएँ रूढ़ मही,

उर उत्साह मिटाने वाले

रोदन गीत नहीं गाने हैं !

नक़ली भावों के हलके स्वर

क्या हुए कभी भी कहीं अमर

जब तक सुख-दुख का अनुभव कर

न कहोगे जीवन-सत्य प्रखर,

अनुभूतिहीन मन से निकले

थोथे गीत नहीं गाने हैं !

-----------------------------

(36) मंज़िल कहाँ ?

है अभी मंज़िल कहाँ ?

चल रहा हूँ राह पर अभिनव लिए विश्वास,

लक्ष्य का मिलता कहीं किंचित नहीं आभास,

द्रौपदी के चीर-सा यह बढ़ रहा है पथ,

इति कहाँ ? बीता नहीं दुर्गम अभी तक अथ,

छोर क्या ? आँचल कहाँ ?

रात के घनघोर तम में हिल रहे हैं पेड़,

भूत-सी लगती विजन में मृत्तिका की मेड़

विश्व को उल्लू भयंकर शाप लाया है,

रात रानी-कोप का क्षण पास आया है,

स्नेह के बादल कहाँ ?

जूझना है, जो खड़ी हैं सामने चट्टान,

और करना है नये युग का सबल निर्माण,

दूर जाना है, अथक साहस चरण के बल,

ज्योति-अंतर की जगाकर वेग से अविरल,

चाँद का संबल कहाँ ?

-----------------------------

(37) पिछड़े हुए राष्ट्र से

पिछडे हुए हो तुम

बढ़ो, आगे बढ़ो

जब बढ़ रहा संसार !

नव विश्वास,

नूतन ध्येय संस्कृति का,

अमर वरदान युग का

मुक्ति का, स्वातन्त्र्य का,

दृढ शक्ति का,

उत्सर्ग का !

नूतन प्रगति-पथ पर

सबल रथ

तीव्र गति से राह समतल कर रहे हैं,

पंथ को अवरुद्ध करते

दीर्घतम पाषाण औ

फिसलन भरी भारी शिलाएँ,

घोर प्रतिद्वन्द्वी हवाएँ

दृप्त चरणों से दबाते जा रहे हैं !

टैंक जैसी

विश्व की बढ़ती हुईं

करती हुईं मुठभेड़ अभिनव शक्तियाँ

जब बढ़ रही हैं

गढ़ रही हैं

गान गा स्वातन्त्र्य का;

पद-चिन्ह उनके देखकर

इतिहास के विद्रोह पृष्ठों में,

बढ़ो, तुम भी बढ़ो !

परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर

अज्ञानता की रूढ़ियों को तोड़कर

प्राचीन गौरव-गान के

बंदी उठो, बंदी उठो !

तुम भी प्रगतिमय शीघ्र होकर

विश्व के मुख पर दिखो,

देदीप्य बन नक्षत्र-से चमको !

सजग हो

उठ पड़ो ओ, राष्ट्र सोये,

आज तो हुंकार कर,

ललकार कर !

युग-क्षितिज पर जब

रक्त जैसी लाल आभा छा रही है,

चेतना जीवन

प्रभाती चिन्ह स्वर्णिम रश्मियों के

आज पृथ्वी पर पड़े हैं,

देख जिनको विश्व सारा जग गया है

और तुम सो ही रहे हो ?

जग उठो तुम, जग उठो

जब जग गया संसार !

हो पिछड़े हुए

आगे बढ़ो, आगे बढ़ो

जब बढ़ गया संसार !

-----------------------------

(38) ज़िन्दगी की शाम

यह उदासी से भरी

मजबूर, बोझिल

ज़िन्दगी की शाम !

अपमानित

दुखी, बेचैन युग-उर की

तड़पती ज़िन्दगी की शाम !

.

मटमैले, तिमिर-आच्छन्न, धूमिल

नीलवर्णी क्षितिज पर

आहत, करुण, घायल, शिथिल

टूटे हुए कुछ पक्षियों के पंख

प्रतिपल फड़फड़ाते !

नापते सीमा गगन की दूर,

जिनका हो गया तन चूर !

.

धुँधला चाँद

शोभाहीन

कुछ सकुचा हुआ-सा झाँकता है,

हो गया मुखड़ा

धरा को देखकर फीका,

सफ़ेदी से गया बीता,

कि हो आलोक से रीता !

गया रुक एक क्षण को

राह में सिर धुन पवन

.

सम्मुख धरा पर देख

जर्जर फूस की कुटियाँ

पड़ीं जो तोड़ती-सी दम,

घिरा जिनमें युगों का सघन-तम !

और जिनमें

हाँफ़ती-सी, टूटती-सी

साँस का साथी पड़ा है

हड्डियों को ढेर-सा मानव,

बना शव !

मौनता जिसकी अखंडित,

धड़कता दुर्बल हृदय

अन्याय-अत्याचार के

अगणित प्रहारों से दमित !

अभिशाप-ज्वाला का जला,

निर्मम व्यथा से जो दला

जिसको सदा मृत-नाश का

परिचय मिला !

जो दुर्दशा का पात्र,

भागी, कटु हलाहल घूँट जीवन का

मरण-अभिसार का

निर्जन भयानक पंथ का राही

थका, प्यासा, बुभुक्षित !

.

कह रहा है सृष्टि का कण-कण

मनुजता का पतन !

असहाय हो निरुपाय

मानवता गिरी,

अवसाद के काले घने

अवसान को देते निमंत्रण

बादलों में मनु-मनुजता आ घिरी !

उद्यत हुआ मानव

बिना संकोच, जोकों-सा बना,

मानव रुधिर का पान करने !

क्रूरतम तसवीर है,

है क्रूरतम जिसकी हँसी

विष की बुझी !

.

पर,

दब सकी क्या मुक्त मानवता ?

सजग जीवन सबल ?

यह दानवी-पंजा

अभी पल में झुकेगा,

और मुड़ कर टूट जाएगा !

मनुजता क्रुद्ध हो

जब उठ खड़ी होगी

दबा देगी गला

चाहे बना हो तेज़ छुरियों से !

सबल हुंकार से उसकी

सजग हो डोल जाएगी धरा,

जिस पर बना है

भव्य, वैभव-पूर्ण

इकतरफ़ा महल

(पर, क्षीण, जर्जर और मरणोन्मुख !)

अभी लुंठित दिखेगा,

और हर पत्थर चटख कर

ध्वंस, बर्बरता, विषमता की

कथा युग को सुनाएगा !

जलियानवाला-बाग़-सम

मृत-आत्माओं की

धरा पर लोटती है आबरू फिर;

क्योंकि गोली से भयंकर

फाड़ डाले हैं चरण

दृढ़ स्वाभिमानी शीश

उन्नत माथ !

जिन पर छा गयी

सर्वस्व के उत्सर्ग की

अद्भुत शहीदी आग,

उसमें भस्म होगा

ध्वस्त होगा राज तेरा

ज़ुल्म का, अन्याय का पर्याय !

.

पर, यह ज़िन्दगी की शाम

अगणित अश्रु-मुक्ताओं भरी,

मानों कि जग-मुख पर

गये छा ओस के कण !

चाहिए दिनकर

कि जो आकर सुखा दे

पोंछ ले सारे अवनि के

प्यार से आँसू सजल।

जिससे खिले भू त्रस्त

जीवन की चमक लेकर,

चमक ऐसी कि जिससे

प्रज्वलित हों सब दिशाएँ,

जागरण हो,

जन-समुन्दर हर्ष-लहरों से

सिहर कर गा उठे

अभिनव प्रभाती गान,

वेदों की ऋचाओं के सदृश !

बज उठे युग-मन मधुर वीणा

जिसे सुन जग उठें

सोयी हुईं जन-आत्माएँ !

और कवि का गीत

जीवन-कर्म की दृढ़ प्रेरणा दे,

प्राण को नव-शक्ति

नूतन चेतना दे !

.

-----------------------------

(39) जब-जब

.

जब-जब बढ़ीं क्रुद्ध लहरें गरजती हुईं

तब-तब चलायी थी नौका,

समुन्दर चकित था !

.

जब-जब गिरीं बिजलियाँ ये लरजती हुईं

तब-तब बढ़ाये क़दम दृढ़,

निलय भी नमित था !

.

-----------------------------

(40) विश्वास है !

.

विश्वास है

एक दिन काली घटाओं से घिरा आकाश

खुल कर ही रहेगा !

.

धूप के दिन

एक क्या अगणित

धरा पर

ज्योति में डूबी

सरल उजली हँसी हँसते हुए

आकर रहेंगे !

तुम रुको मत

इस बरसते कल्प में जीवन-प्रवासी,

भीग जाने का कहीं भय

रोक ले गति को न,

तुम इतना करो विश्वास

आगे लाल-किरणें राह में

बिखरी मिलेंगी !

सूख जाएगा सभी जल

आज जो प्रति अंग को कंपित किये है,

हार जाएगा

सतत गतिवान धारा से

विरोधी मेघ

जो जल-कण अमित संचित किये है !

तम भरी गहरी घटाओं के तले

है टिमटिमाता दीप

मानव के अमर विश्वास का !

पर, जो अँधेरे की सघनता में

कहीं खो-सा गया है;

ढूँढ़ उसको तुम

जलाओ दीप अपना,

एक से अगणित जलेंगे दीप जगमग !

जो तमिस्रा भंग कर

नव स्वर्ण-पथ-रचना करेंगे !

क्योंकि

भावी विश्व के विश्वास की

लौ जल रही है !

.

इसलिए विश्वास है

छायी हुई संध्या समय संक्रांति की

धूमिल अँधेरी पार कर

नव लाल जीवन का सबेरा

व्योम से लाकर रहेगी !

.

-----------------------------

(41) बहुत हुआ बस रहने दो

.

दीख रही हैं भरी घृणा से

आज तुम्हारी आँखें,

चेहरे की सिहरन बतलाती है

घोर उपेक्षा के भावों को;

और तुम्हारी मुक्त हँसी में

कितना व्यंग्य भरा है,

कितना अपमान भरा है !

बातों का आशय इतना संशयग्रस्त

कि बिलकुल भी पता नहीं पड़ पाता

सत्य रहस्य तुम्हारा

मेरे प्रति इस निर्मम आकर्षण का !

जिससे मैं बेचैन तड़प उठता हूँ

मूक सिनेमा के चित्रों के पात्रों के समान

होंठ उठाकर रह जाता हूँ मौन !

कंठ से निकले स्वर

अन्दर की अन्दर पी जाता हूँ,

सुन लेता हूँ हर उलटी-सीधी बातें।

पर, मन भर-भर आता है

कि कौन हो तुम जो मेरे चुप रहने पर

आपत्ति करो ?

नाहक मुझको तंग करो ?

उकसाओ, मैं बोलूँ

और तुम्हारी बेहूदी व्यर्थ अनर्गल

बातों का उत्तर दूँ ?

जिनका अर्थ नहीं कोई,

जो रुचि से मेल नहीं खातीं,

जिनको सुनकर भाव-लहरियाँ

न हृदय में आ टकरातीं !

बहुत हुआ बस रहने दो

मत समझो इस चुप्पी का अर्थ

कि मैं निरा मूर्ख बुद्धि-हीन हूँ,

मत समझो तन निर्बल है तो

मन से भी शिथिल दीन हूँ !

मेरे उर का प्याला

लबरेज़ भरा है जीवन-रस से,

मेरे अन्दर की हर धमनी में

नूतन रक्त दौड़ रहा है

बिजली की रेल सरीखा !

मेरी आँखों में

स्नेह भरा है सागर-सा,

आत्मा में

दृढ़ता, बल, स्वाभिमान, ओज भरा है

सूरज की ज्वाला-सा अक्षय !

जिसको

परिवर्तन औ षड्यंत्र

मिटाने में क़ामयाब हो न सकेंगे !

जिसकी

युग-युग से अविरल जलती लौ की

आब म्लान न हो पाएगी;

चाहे एक बड़े पैमाने पर

असमय टूट पड़ें

अगणित सूर्य-ग्रहण !

निश्चय होगा प्रति अंग दहन।

मत जूझो, मत पूछो आगे

बहुत हुआ बस रहने दो !

मेरी जीवन-धारा को

निज पथ पर बहने दो !

.

-----------------------------

(42) मन

.

मोर-सा मन

फूल-सा तन

उल्लसित पुलकित

सरल

हो स्नेहमय

मदमत्त सुख की पा हिलोरें

तप्त-अन्तर-उष्णता भंगी बयारें

हो उठा चंचल

कि देखे जब गगन में

कृष्णवर्णी घोर निम्बस मेघ !

सविता की

प्रखरतम रश्मियों को ढक लिया

मानों विजन मरुथल सहारा से

उठी है धूल

आँधी रेत की

छूने गगन की सरहदें !

.

उत्कर्ष !

मेरी हड्डियों का,

ख़ून का

लघु पावभर के बोझ का

कुछ फड़फड़ाती नस लिए

अंतर उठा रे

हर्ष से-उल्लास से हिल-डोल,

मानो बर्फ़ से कोई

हिमालय के शिखर पर

बद्ध शीतल झील सुंदर

फट पड़ी हो,

खिल पड़ी हो

दूध-सी !

.



(43) कौन से सपने

.

कौन से सपने

लगे अपने

निरन्तर

साधना साकार करने जो

हृदय तन से लगे तपने ?

.

अरे मन !

बोल तो रे

कौन-से सपने ?

भर रहे हैं शक्ति ऐसी

दे रही जो

प्रेरणा, गति, चेतना,

घन फट रहे

उड़ रही है वेदना !

उल्लास की अविरल उमंगें

उर-समुन्दर की तरंगें

उठ रही हैं, गिर रही हैं

और मुखड़े पर

नयी ही आज

रेखाएँ दिखाई दे रही हैं !

कौन-सा सुख-भाव वर है

सुघर, सुन्दर, अमर जो श्रेष्ठतर है,

हो गया हलका

कि जिससे बोझ जीवन का

युगों की कामना का चित्र भी रंगीन

अन्तर-दाह शीतल लीन ?

.



(44) निशा का युग

.

अंधकार में डूबा हुआ

घिरा संसार,

समस्त

नयन की सीमा तक

गहन अंधकार

बेछोर घोर !

.

ग्रस्त सभी

लघु-क्षुद्र वस्तुएँ, विशाल प्रतिमाएँ

शिव सुंदर सत्य सार

घन अंधकार !

स्वच्छ नये जीवन से उभरा स्वस्थ सार

सब अशिव, असुंदर, असत्य भार

उखड़ा जीर्ण निर्जीव भार !

सड़कें, मकान, पशु-पक्षी,

घास, पेड़, धूसरित मैदान,

मनुज, रंगीन मेघ,

झिलमिल असंख्य तारक;

पार्थिक संचय

घन अंधकार लय।

मानों जग को शव समझ

मूक ठंडे दिल से

अदृश-शक्ति ने बिछा दिया हो

काला ला कफ़न !

और जिसके भीतर

जानदार देह तड़प उठती हो

बार-बार,

रह-रह

श्वास-पंथ के लिए छिद्र एक पाने !

.

पथ-हारा मन

भूला-भटका थकित-तृषित

खोज रहा अभिनव आलोक

शोक में डूबा हुआ

जीवन का अभिलाषी

सहम गया

चारों ओर देख अंध-कूप !

.

गतिरोध ?

नहीं,

है शाश्वत इसका

मानव-गति से विरोध,

मानव तो

गतिशील, नित्य अभिनव, परिवर्तित

उसके जीवन का है सत्य यही

क्या उसकी स्वाभाविक गति

रुकी कहीं ?

उसकी छाती पर से

लोहे के इंजन जैसे अगणित

सघन-निशा युग ढल जाएंगे !

सहन किये हैं उसने

बर्फ़ीले युग

आँधी भूकम्पों के युग

ज्वाला के युग,

भयभीत न हो !

घन अंधकार

अरे मिलेगी, अरे मिलेगी

प्रकाश की नयी किरण

भर कर उर में

ज्योतिर्मय जग की आश

अटल विश्वास !

नहीं मन हार

कभी मत हार

माना फैला

घन अंधकार !

.



(45) जीवन-दीप

.

अँधेरा है, अँधेरा है !

कि चारों ओर जीवन में

निविड़ तम का बसेरा है !

कि जिसने सब दिशाओं को

कुटिल भय पाश में भर

मौन घेरा है !

दिखाई कुछ नहीं देता

पलक की नाव मेरी लय

सघन-तम-सिंन्धु में !

देखा क्षितिज में दूर तक

पर, कुछ न सूझा

और भी गहरा उमड़कर तम

धुआँ-सा बन

कड़कते बादलों-सा छा

हृदय में कर उठा चीत्कार

छल, रंगीन यह संसार !

धोखा है कि धोखा है !

सनातन

प्राण का अंतिम बसेरा ही

अँधेरा है !

विवश हो

काँपता मन, काँपता जीवन

जटिल हो बढ़ रही उलझन,

अँधेरा है, अँधेरा है !

.

पर, बह रहा

अविराम जीवन-स्रोत

अनदेखा किये तम

सामने,

जिसमें छिपी हैं

सर्वभक्षक यातनाएँ घोर

चारों ओर !

संशय है; अधूरा ज्ञान है।

.

पर, बह रहा

जीवन सबल झरना;

कि किंचित सोचना रुकना

बुरा होगा यहाँ वरना,

निमिष भर को थकित होकर

अँधेरे से चकित होकर

अशिव के सामने झुकना

बुरा होगा यहाँ वरना !

ज़रा भी ठोकरों से हिल

अवनि पर एक पल झुकना

गिरा देगा,

तुम्हारी बाहुओं का बल

अथक संबल

शिथिल होकर

भयावह काल के सम्मुख

अँधेरे में सदा को

लुप्त हो मिट जाएगा।

मात्र जीवन-शक्ति

अंतर-चेतना से

रह सकेगा मौन

दृढ़ निष्कंप

फैले इस अँधेरे में,

तुम्हारी साधना का दीप,

वांछित कामना का दीप !

.



(46) रात का आलम

.

ठंडी हो रही है रात !

धीमी

यंत्रा की आवाज़

रह-रह गूँजती अज्ञात !

.

स्तब्धता को चीर देती है

कभी सीटी कहीं से दूर इंजन की,

कहीं मच्छर तड़प भन-भन

अनोखा शोर करते हैं,

कभी चूहे निकल कर

दौड़ने की होड़ करते हैं,

घड़ी घंटे बजाती है।

कि बाक़ी रुक गये सब काम,

स्थिर, गतिहीन, जड़, निस्पन्द

खोकर चेतना बेहोश

साँसें ले रही हैं जान

हो अनजान !

.

ऊँघते

मज़दूर, पहरेदार, श्रमजीवी

नशे में नींद के ऐसे

कि मानों संगिनी रह-रह बुलाती

कर सतत संकेत

होने बाँह में आबद्ध

मन से, देह से

चुपचाप एकाकार लय होने

शिथिल !

स्वप्न से फिर जाग

अपने पर हँसी

आ खेल जाती है !

कि ऐसी भूल भी कैसी

सदा जो भूल जाती है !

.

न सीमा है कहीं

बेजोड़ है सारी अनोखी बात,

पर, है सत्य

ठंडी हो रही है रात,

भारी हो रहा अविराम

धुल कर चाँदनी से वात,

ऊपर बन रही है ओस

धुँधली पड़ रही है रात !

.

यह री कल खुलेगा

रेशमी पट

मुग्ध प्रकृति-वधू का गात !

.



(47) सुनहरी आभा

.

छिपा चाँद काले उमड़ते घनों में,

उठी प्रबल झंझा लहरते बनों में !

.

गरजता गगन है,

हहरता पवन है !

.

कि कितनी भयानक

अँधेरी-घनेरी अकेली निशा है,

कि कितनी भयानक

हमारे विजन-पंथ की हर दिशा है !

.

हमें पर उसे भी सरलतम समझकर,

बितानी सबल बन व हँस कर निरन्तर !

.

नहीं है समय स्वप्न को हम निहारें,

नहीं है समय रूप को हम सँवारें,

नहीं है समय जो कहीं पर रुकें हम,

नहीं है समय साँस ही ले सकें हम,

निरन्तर प्रगति ध्येय होगा हमारा

पहुँचना जहाँ श्रेय होगा हमारा

सबेरा तभी प्रेय होगा हमारा !

.

उषा की चमकती हुईं

लाल किरणें मिलेंगी,

नयी ज्योति ऐसी

कि हिल-हिल

सरल नेह कलियाँ खिलेंगी,

व जीवन हमारा

बदलता चलेगा,

समुन्दर हृदय का

लहरता चलेगा !

कि आभा सुनहरी

नयी सृष्टि सारी,

हमें फिर प्रकृति

नव दमकती दिखेगी,

सुखद भाव सुंदर

चमकती दिखेगी !

.



(48) प्रभात

.

रंगीन गगन

ऊँचे पर्वत

घाटी मैदान

कि फैला है सुनसान !

हरे-हरे अगणित पेड़

कतारों में खड़े सघन

हिलते पल्लव

प्रतिक्षण-प्रतिपल

बहता शीतल मंद पवन

रंगीन गगन !

.

मेरा तन

बिस्तर पर लोट लगाता है,

आँखें मीचे

नींद परी को

दूर कहीं से

मौन बुलाता है !

मुन्नी जाग गयी है

कहती जो

सुबह हुई

ओ बाबूजी, उठो-उठो !

.



(49) ज्वार भर आया

.

नदी में ज्वार भर आया !

प्रलय हिल्लोल ऊँची

व्योम का मुख चूमने प्रतिपल

उठी बढ़ कर,

किनारे टूटते जाते

शिलाएँ बह रही हैं साथ,

भू को काटती गहरी बनातीं

तीव्र गति से दौड़ती जातीं

अमित लहरें

नहीं हो शांत

आकर एक के उपरांत !

भर-भर बह रही सरिता

कि मानों लिख रहा कवि

वेग से कविता !

बुलाता क्रांति की घड़ियाँ,

भयंकर नाश का सामान

जन-विद्रोह

भीषण आग,

भावावेश-गति ले

ज्वार भर आया !

नदी में ज्वार भर आया !

.



(50) ज़िन्दगी

.

ज़िन्दगी

एक ढर्रे की बनी,

हर घड़ी अभिशापिनी,

सदियों-सी बड़ी

किस काम की

जब नहीं है सनसनी ?

.

एकरस औ एक स्वर

गूँजता प्रत्येक घर !

.

बोझ से जीवन हुआ भारी

क्या यही है युक्त तैयारी ?

कि धारा राह में ठहरी

व छायी भूत-सी,

इस छोर से उस छोर तक

सुनसान-सी बीहड़ उदासी

मौत की गहरी;

कि फैली है

हृदय में रे

सड़ी-सी लाश की बदबू,

कि गन्दगी ऐसी

कि सारी ज़िन्दगी दूभर

रुक गयी थककर !

.

नहीं है

आज की यह ज़िन्दगी

इन्सान की अपनी सगी !

छिः, यह ज़िन्दगी !

.



(51) शिशिर प्रभंजन

.

शीत ऋतु

तलवार की कटु धार-सा

चलता पवन !

निर्जन गगन में

घन कहीं कड़का,

कहीं पर काँपती करका !

सघन तम,

बरसता है मेह

दलदल राह में

चंचल बड़े जल-स्रोत

सारे खेत हैं जल-मग्न !

.

कुटियाँ भग्न-खंडित,

थरथराता वायुमंडल

विश्व-प्रांगण मध्य हलचल -

गाय बकरी भैंस - पशु,

जन - वृद्ध, शिशु, रोगी, तरुण,

भू तरल पर

पेट में घुटने गड़ाये

सिहरते

केश भूतों-से बिखेरे

वेष भिक्षुक-सा बनाये

काटते भीषण अभावों की

करुण युग-रात्रि क्षण-क्षण,

सह रहे बर्बर-नरक सम यातनाएँ !

दुःख दाहक पा कभी रोते

कृशित-तन नग्न मरणासन्न शिशु

तब विश्व की

दुर्गन्ध सारी गंदगी से युक्त

आँचल को उठा कर

शुष्क स्तन पर नारियाँ

शोषण करातीं खून का !

.

है क्या यही विद्रोह की स्थिति ?

भर गया अब

कष्ट के दुर्दम पवन से

क्रूरता अन्याय का बैलून !

निश्चय -

पास है विस्फोट का क्षण,

दे रहा प्रति पल

यही संकेत !

आवाहन

जगत में क्रांति का अब

हो रहा मुखरित निरंतर !

चल पड़ी है

दूर से आँधी भयंकर

जन-विजय की कामना भर !

.

बेड़ियाँ परतंत्रता की

और कड़ियाँ हर तरह की

झनझनातीं टूटने को,

हर दमित अब छूटने को !

दे रहा दृढ़ स्वर सुनायी

मुक्त नवयुग के प्रखर संदेश का,

है प्रतिचरण

नव क्रांति-पथ पर

नव-सृजन की नींव का

मज़बूत पत्थर !

चल रहा क्रम

भ्रम न किंचित

गिर रहा आकाश से हिम,

आ रहा देता निमंत्रण

शीत का सन्-सन् प्रभंजन !

.



(52) नया विश्वास

.

बर्फ़ की इन आँधियों में

आश की चिनगारियाँ कब तक जलेंगी ?

चिनगारियाँ:

जिन पर रहीं बिछ

राख की परतें जलीं !

रे और कब तक

उर-सुलगती ज्वाल जीवन की रहेगी ?

काँपतीं रवि-रश्मियाँ नभ से चलीं,

अति शीत लहरों से

रही घिर रात जीवन की घनी !

.

रात

जो बढ़ती गयी प्रतिपल

सती उस द्रौपदी के चीर-सी;

बात ठंडी है सभी

हिम-नीर-सी !

.

विश्वास

पीले पत्र-सा

रे झुक गया है हार कर,

अब और कब-तक व्योम की छत

प्राण की रक्षा करेगी ?

ओट आँचल की कहाँ तक

मत्त तूफ़ानी घड़ी में

दीप अन्तर का बचाये रह सकेगी ?

बुझ न जाये;

क्योंकि बाक़ी है

अभी तो स्नेह,

क्या वह स्नेह

यों ही व्यर्थ जाएगा ?

.

नहीं !

अविरल जलेगा वह

प्रलय तक

और अंतिम बूँद तक,

हर श्वास तक,

जग उलझनों में !

दीप जीवन का प्रखर

हर क्षण

रखेगा ज्योति में डूबा हुआ !

.

चिनगारियाँ हैं:

बर्फ़ से हिम नीर से

ये बुझ न पाएंगी कभी,

आँधियों से तो

जलेंगी और ऊँची बन

गगन में तीव्र लपटों-सी !

न सोचो

दीप यह यों ही बुझेगा,

न सोचो

थक गया है

ज्वार सागर का उमड़ता;

देख लेना

कल उठेगा बाँधने को व्योम को फिर !

क्योंकि

मेरी बाहुओं में

शक्ति बनती और बढ़ती जा रही है,

क्योंकि

अंतर-बल सतत

आती हुई हर साँस पर बेचैन है !

रह-रह

नया विश्वास जीवन में

उभरता जा रहा है !

बर्फ़ की इन आँधियों में

आदमी

बेख़ौफ़ सरगम गा रहा है !

.



(53) चाह

.

मेरी भावनाओं की अगर तसवीर बन जाये

तो खुशहाल; उजड़े विश्व की तक़दीर बन जाये !

.

फूलों से मुहब्बत की, बहुत चाहा खिले उपवन

पर, पतझर-विजन की धूल में आया कहाँ जीवन ?

.

मंगल कल्पनाओं में ग्रहण धुँधला समाया जो,

नूतन धारणाओं पर पुराना ज़ंग छाया जो,

.

कर अवरुद्ध मेरी ज़िन्दगी की राह, बन पत्थर

काले रंग जैसा दूर सूने व्योम में भर-भर,

.

मुझको रोक, जाने क्या नयन में घोल देता है,

हो सरहद्द में मेरी’ — कभी यह बोल लेता है !

.

अभिनव रोशनी का सनसनाता तीर आ जाये

तो युग-वेदना में हर्ष सुख का नीर आ जाये !

.

मेरी भावनाओं की अगर तसवीर बन जाये

तो खुशहाल; उजड़े विश्व की तक़दीर बन जाये !

.



(54) धूल-श्री

.

सौंफिया हरी-हरी

डाल-डाल आज री भरी !

.

हज़ार लाख बेशुमार

हिल रहीं कतार पर कतार,

पा पवन दुलार-प्यार

सन-सनन उठी पुकार,

भर नया उभार

री उतर रही सरल युवा परी !

सौंफिया हरी-हरी

डाल-डाल आज री भरी !

मंद रंग लाल-लाल

व्योम की विशाल गाल पर गुलाल,

आज रस भरी डँगाल

है किये सिँगार,

देखभाल कर सँवार पत्र-जाल

री सुहावनी हरीत चूनरी !

सौंफिया हरी-हरी

डाल-डाल आज री भरी !

.



(55) ध्वंस और सृष्टि

.

ध्वंस की आँधी चली है,

मौत की घंटी बजी है !

चीत्कारें

दुख भरी व्याकुल पुकारें !

रक्त की नदियाँ;

बहीं बन लाश की लड़ियाँ भयंकर !

नाश की घड़ियाँ गरजती आ रही हैं !

विश्व के भू-खंड के प्रत्येक कण-कण से

जहाँ भी टारनेडो-वेग भर

ज्वाला बढ़ी है;

और आगे साध साधे

क्रूर बढ़ती जा रही है

दृश्य पुनरावृत्ति !

अग्नि की धू-धू शिखाओं से

जली है पूर्ण मानवता !

कि गूँजा जग कराहों से

कि चीखे जन

बचाओ रे, बचाओ रे !

प्रलय की अग्नि से आहत

मरण की कल्पना से डर

प्रखर स्वर बोलते करुणा भरे

हा, हा बचाओ रे !

.

कि गरजे ज़ोर से बादल,

कि बरसे ज़ोर से बादल,

जगत में मच रही हलचल !

.

नयी दुनिया

बनाएंगे, बसाएंगे !

उजड़ती बस्तियाँ हैं तो

उजड़ने दो,

नये युग के लिए

बलिदान होने दो !

अशिव कर दूर दानवता मिटा,

फिर से

नयी दुनिया बसाएंगे !

नया भूतल उठाएंगे !

बहा देंगे

समुन्दर प्रेम का,

समता, प्रगति, स्वातंत्र्य का चहुँ ओर !

आये मेघ जीवन के

गरजते घोर !

.



(56) मेरे हिन्द की संतान

.

मेरे हिन्द की संतान !

तेरे नेत्रा हों द्युतिमान

तेरे मुक्त, बल से युक्त,

विद्युत से चरण गतिमान !

मेरे हिन्द की संतान !

.

भूखी नग्न शोषित त्रस्त

तेरी भग्न जर्जर देह नत

प्राचीनता के

डगमगाते जीर्ण चरणों पर,

कि हालत आज है बेहद बुरी

मानो कसाई की छुरी से चोट खा

बेचैन हो चिल्ला उठा बकरा,

दमित यह सर्वहारा वर्ग

कितना रे गया गुज़रा !

करोड़ों मूक श्रमजीवी

उठो,

प्रतिशोध लो नूतन सबेरे में,

तुम्हारे देश के

उन्मुक्त विस्तृत वायुमंडल में

नयी किरणें

लगीं गिरने !

कि मुट्ठी बाँध कर गाओ

नया स्वाधीनता का गान !

मेरे हिन्द की संतान !

.

हर सोया हुआ इन्सान

करवट ले उठा,

जागा,

कि जिसको आततायी देख

उलटे पैर ले भागा,

जगे हैं सिंह निद्रा से !

मिटा पापी अँधेरा अब।

.

ठहर जा ओ अरे हिंसक !

कुचलता हूँ

अभी मैं शीश यह तेरा,

कि बस अब डाल दो घेरा !

सभी ने यों पुकारा है !

.

करोड़ों के चरण फौलाद-से

अन्याय की चट्टान से जूझे,

किसी को आज क्या सूझे ?

असत् सत् का

चमक तम का

हुआ अभियान !

खड़ी हो जा

गठीली स्वस्थ फैली मुक्त छाती तान !

मेरे हिन्द की संतान !

.



(57) स्नेह की वर्षा

.

मेरे स्नेह की वर्षा !

नहा लो

त्रस्त प्राणों के उबलते ज्वार,

कर लो शांत जीवन के

धधकते लाल सब अंगार !

मेरे प्यार की वर्षा !

.

घुमड़ कर हिन्द सागर से

सजल बादल

घिरे नभ के किनारों तक,

बढ़े शीतल पवन के साथ

करने शक्ति भर दृढ़ वार,

ऊँचे दुःख से निर्मित

हिमालय से बने पर्वत !

अभागे देश के ऊपर

कि मूसलधार जल-वर्षा !

नहा लो

त्रस्त प्राणों के उबलते ज्वार,

मेरे स्नेह की वर्षा !

.

उठी हैं अग्नि की लपटें प्रखर

है सिन्धु-गंगा भूमि उर्वर

बंग श्यामल कुंतला धरणी

झुलस आहत

गगन से याचना कर आज

जीवन माँगती है

नाश-सीमा पर खड़ी होकर !

तुम्हारे बिन्दु दो केवल

हिला शव को जगा देंगे,

बरस लो आज

देकर पूर्ण अपने स्नेह-कण

निर्मल, सजल, कोमल !

सरल अनुराग की वर्षा !

कि मूसलधार जल-वर्षा !

नहा लो

आज जीवन के

मलिन सब भाव धो डालो !

युगों से त्रस्त

पीड़ा ग्रस्त

मेरे देश के मानव !

सहे तुमने

अनेकों युग दमन के,

वेदना निर्मम जलन के,

आग में झोंके गये

तृण से जले,

अपमान क्या ?

सब लूट कर भी ले गये

कटु आततायी क्रूर,

हँसते व्यंग्य से हो दूर !

जिनने कर दिया है

देश की प्रत्येक जर्जर झोंपड़ी का

चोट से प्रति अंग चकनाचूर !

मेरे स्नेह की वर्षा,

नहा लो

त्रास्त प्राणों के उबलते ज्वार !

मेरे प्यार की वर्षा,

मेरे स्नेह की वर्षा !

.



(58) बदलो!

.

अपने पथ को बदलो,

बदलो !

.

चिर-प्राचीन विषम

मग के प्रेमी

विश्वासी

रूढि-ग्रस्त,

बदलो

अपने पथ को बदलो !

.

अभ्यस्त चरण

बढ़ जाते हैं राह बनी पर

भेड़ सरीखे,

नूतन-पथ का आज सुनो

नव आवाहन,

जीवन का स्वर !

उन्नति प्रगति निरन्तर,

निर्भय सुदृढ़ अथक

अपराजित !

.

बदलो

अपने पथ को बदलो !

.



(59) जन-रव

.

आलोकित विस्तृत जन पथ !

खड़े हुए विद्युत-गतिमय

युग के जिस पर नूतन रथ !

प्रस्तुत,

शक्ति सुसज्जित !

मन्वन्तर कर

नव संस्कृति निर्मिति हित।

प्रेरक स्वर

उन्मुक्त प्रखर अविजित,

गूँज रहा जन-रव

जन पथ पर जन-रव !

.

मानव

दुर्दम इस्पाती अडिग सबल

चरणों के बल

क़दम-क़दम पर

दे नव-आवाहन

.

चीर रहा छाये

उच्छृंखल अर्थ-व्यवस्था के घन।

उपचार समाजी घावों का कर,

परिवर्तित आनन्दित

वसुधा को कर !

सुख-सम्पन्न सभी

धन-अन्न समस्त जनों को दे,

करने प्रतिपादित

नयी सभ्यता, दर्शन अभिनव।

जनयुग का

संयमित सबल जन-रव !



(60) पहली बार

विश्व के इतिहास में

जनता सबल बन

आज पहली बार जागी है,

कि पहली बार बाग़ी है !

पुरानी लीक से हटकर

बड़ी मज़बूत चट्टानी रुकावट का

प्रबलतम धार से कर सामना डट कर,

विरल निर्जन कँटीली भूमि पथरीली

विलग कर, पार कर

जन-धार उतरी

मानवी जीवन धरातल पर

सहज अनुभूति अंतस-प्रेरणा बल पर !

कि पहली बार छायी हैं

लताएँ रंग-बिरँगी ये

कि जिनकी डालियों पर

देश की संकीर्ण रेखाएँ

सभी तो आज धुँधली हैं !

क्योंकि

अंतर में सभी के

एक से ही दर्द की

व्याकुल दहकती लाल चिनगारी

नवीना सृष्टि रचने की प्रलयकारी !

क़दम की एकता यह आज पहली है,

तभी तो हर विरोधी चोट सह ली है !

गुज़र गये हैं

हहरते क्रुद्ध भीषण अग्नि के तूफ़ान

जिनका था नहीं अनुमान

सभी के स्वत्व के संघर्ष में युग-व्यस्त

भावी वर्ष-सम साधक

भुवन प्रत्येक जन-अधिकार का रक्षक !

केलीफ़ोर्निया की मृत्यु-घाटी से,

कलाहारी, सहारा, हब्स, टण्ड्रा से

मिटी अज्ञान की गहरी निशा,

ज्योतित नये आलोक से रे हर दिशा !

निर्माण हित उन्मुख जगत जनता

विविध रूपा

विविध समुदाय

बैठा अब नहीं निरुपाय

उसको मिल गया

सुख-स्वर्ग का नव मंत्र

मुक्त स्वतंत्र !

उसका विश्व सारा आज अपना है,

नहीं उसके लिए कोई पराया, दूर सपना है !

युगान्तर पूर्व युग-जीवन विसर्जन

दृढ़ अटल विश्वास के सम्मुख सभी

अन्याय पोषित भावनाओं का

हुआ अविलम्ब निर्वासन !

बुझते दीप फिर से आज जलते हैं,

कि युग के स्नेह को पाकर

लहर कर मुक्त बलते हैं !

सघन जीवन-निशा विद्युत लिये

मानों अँधेरे में बटोही जा रहा हो टॉर्च ले

जब-जब करें डगमग चरण

तब-तब करे जगमग

उभरता लोक-जीवन मग !

कल्मष नष्ट,

पथ से भ्रष्ट!

दूर कर आतंक

नहीं हो नृप न कोई रंक !

अभी तक जो रहे युग-युग उपेक्षित

वे सँभल कर सुन रहे

विद्रोह की ललकार !

पहली बार है संसार का इतना बड़ा विस्तार,

कि पहली बार इतनी आज कुर्बानी अपार !



रचना-काल : सन्‌ 1944-1948

प्रकाशन-वर्ष : सन्‌ 1949

प्रकाशन : कारवाँ प्रकाशन, इंदौर, .प्र.

सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 1],

महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 2] में।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें