महेंद्रभटनागर का कविता-संग्रह --- विहान
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कविताएँ
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1 जलो-जलो
2 जागो
3 जीवन-दृष्टि
5 नव-पथ-राही
6 अन्तर्राष्ट्रीय गान
7 युग-गायक
8 अभय
9 युग-कवि
10 जय-बेला
11 शांति-लोक
13 क़ैदी
14 तुम
15 उत्सर्ग
16 आशिष्
17 असह
18 अन्तर्बोध
19 प्रतिकूलता
20 आशा-किरण
21 जीवन-ज्वाला
22 निवेदन
23 स्वावलंब
24 समरस
25 सुख-दुख
26 काम्य
27 नयी कला
28 नवयुग
29 प्रात
30 नव-जीवन
31 सन्ध्या
32 बरसात
33 विश्व-कवि
34 हरिजन
35 भिखारिन
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(1) जलो-जलो
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संघर्षों की ज्वाला में जलो, जलो !
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बलिदान-त्यागमय जीवन हो,
कारागृह भी शांति-सदन हो,
जन-हित, बीहड़ पथ पर भी चलो, चलो !
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तम से ग्रस्त अवनि ज्योतित हो,
मुरझाया उपवन कुसुमित हो,
मधु-ऋतु के हित युग-हिम में गलो, गलो !
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1944
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(2) जागो
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जागो, हे जीवन जागो !
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कूल बढ़े हैं नदियों के,
सोये जागे सदियों के,
मूक-व्यथाएँ खो जाएँ ;
बंदी युग-यौवन जागो !
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उत्सर्ग भरे गानों से,
प्राणों के बलिदानों से
त्रस्त-मनुज के उद्धारक ;
हे नवयुग के मन जागो !
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चंचल चपला के उर में,
ज्वालागिरि के अंतर में,
जो हलचल ; उसको लेकर ;
जगती के कण-कण जागो !
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1944
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. (3) जीवन-दृष्टि
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जीवन में तुमको होना है
श्रमशील अथक उन्मुक्त निडर !
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दीपक की लौ को उकसाकर,
पूजा के सामान जुटाकर,
वरदान अमरता का प्रतिपल
मत माँगो रे जड़ पाहन से
गा-गा अगणित वंदन के स्वर !
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इतना भी रे क्या पागलपन,
इतनी भी क्या यह मौन लगन,
अर्पित करते मृत-पुतलों को
तन-मन-धन, जीवन-सुख, वैभव
दुनिया के किस आकर्षण पर ?
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यह मानवता का धर्म नहीं,
यह मानवता का मर्म नहीं,
संघर्षों से घबराकर जो
सभय पलायन धारण करता
कह, ‘मिथ्या जग, जीवन नश्वर’!
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जीवन जब है एक समस्या—
कर्मों का ही नाम तपस्या,
प्राणों के अंतिमतम पल तक
जग में जमकर संघर्ष करो
बहता जाए जीवन-निर्झर !
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1943
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(4) बलिपंथी
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हम कब पथ में रुकते हैं ?
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परिणामों की परवाह न, हम तो कर्मों में तत्पर ;
पल-पल का उपयोग यहाँ, खोने पाये कब अवसर ?
आज़ादी-आन्दोलन में सिर देने वाले सैनिक
अत्याचारों से डर कर कब दुर्बल बन झुकते हैं ?
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जब आँधी आती है तब जर्जरता मिट जाती है,
विप्लव होता जब जग में, शांति तभी ही आती है,
ज़ंजीरों को तोड़े बिन हम चैन तनिक ना लेंगे —
निज उद्देश्यों के हित, जीवन में सब सह सकते हैं !
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1942
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(5) नव-पथ-राही
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हम नव-जीवन-पथ के राही!
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नयी व्यवस्था के संचालक, उन्मुक्त नये युग के मानव,
बहता निर्मल रक्त नसों में,हममें नव-गति,साहस अभिनव!
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अंतिम पल तक संघर्ष अथक, अपराजित-बल, अक्षय-वैभव,
हम निर्भय, मानव-उद्बोधक, राग सुनाते हैं, युग-भैरव!
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करते ध्वस्त पुरातन, जर्जर जग में लाकर दुर्दम विप्लव,
शीश हथेली पर रखकर हम बढ़ने वाले निडर सिपाही !
हम नव-जीवन-पथ के राही !
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1945
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(6) अंतर्राष्ट्रीय गान
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हम नव प्राणद संदेश लिए बलिदान सिखाने को आये !
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हम परिवर्तन की प्यास लिए,
पीड़ित जग में उल्लास लिए,
नव-नव आशा मधुमास लिए,
युग-गान सुनाने को आये !
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विद्रोही का उच्छ्वास लिए,
धू-धू लपटों-सी श्वास लिए,
पर, मानव पर विश्वास किए,
नव विश्व बनाने को आये !
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1942
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(7) युग-गायक
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गीत गाता जा रहा हूँ !
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रक्त की संस्कृति मिटाने को सुनाता हूँ नये स्वर,
मैं दिशा भूले जगत को, हूँ चलाता नव डगर पर,
हर मनुज को घोर तम से रोशनी में ला रहा हूँ !
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कर रहा हूँ मैं नयी युग-सृष्टि का अविराम चिंतन,
उस नये युग का कि जिसमें है जटिल जीवन न दर्शन,
और जिसको, साँस पर हर, पास अपने पा रहा हूँ !
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नग्न, दुर्बल, त्रास्त, पीड़ित, नत, बुभुक्षित जो रहे हैं,
दुःख क्या अपमान कटुतर ही सदा जिनने सहे हैं,
जो तिरस्कृत आज तक, उनको उठाता जा रहा हूँ !
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1945
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(8) अभय
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हैं अमर ये गान मेरे, है अमर मेरी कहानी !
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हूँ नये युग का मनुज मैं, बद्ध हो पाया न जीवन,
मार्ग में रुकना कहाँ जब पा रहा युग का निमंत्रण,
यदि बदल पाया ज़माना, है तभी सार्थक जवानी !
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तोड़ बंधन, आज जग को मुक्ति के पथ पर चला दूँ,
हर सड़े विश्वास मिथ्या खोद कर जड़ से बहा दूँ,
है यही कर्त्तव्य मेरा, इसलिए ही मुक्त वाणी !
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है नहीं भाता मुझे यह, दूर जा दुनिया बसाऊँ,
चाहता अति तार-स्वर से मैं प्रलय के गीत गाऊँ,
प्रतिध्वनित हो हर हृदय में, रागिनी खोये पुरानी !
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1945
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(9) युग-कवि
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विश्व के उस पार की, कवि कौन है जो आज गाता ?
॰
सुन न पड़ती अब अलंकृत रीति-कवि की और वाणी,
मिट चुकी बीते युगों की ईश की कल्पित कहानी,
विश्व ने नव-भावनाओं से नया जीवन रचा है ;
अब विगत युग-भव्यता की, कवि दुहाई दे न पाता !
॰
आज नव-नव गीत मेरे, आज नव-नव गीत जग के
आज नवयुग, आज गतियुग आज हम बंदी न अग के
लुप्त होती हैं व्यथाएँ और खिलते फूल नव-नव
अब न जीवन में अधूरे छोड़ जग अरमान जाता !
॰
झूठ, मिथ्या-कल्पनाओं का नहीं है अब ठिकाना
मिट चुकी हैं पूर्ण जड़ से, अब न उनका है बहाना,
टिक सकीं बातें अरे क्या खोखलीं जो सब तरफ़ से
आज कण-कण ढह चुका है, कौन जो उसको उठाता ?
॰
1944
॰
(10) जय-बेला
॰
विषाद की नहीं क़यामती-निशा,
न डर कि हिल रही है हर दिशा!
उफ़न रहा समुद्र क्रुद्ध हो,
हरेक व्यक्ति बस प्रबुद्ध हो !
दवारि, साथ लो नवीन जल,
दलिद्र है सभी पुराण बल !
॰
1945
॰
(11) शांति-लोक
॰
युद्ध की उद्वेग की अब
त्रस्त घड़ियाँ जा रही हैं !
॰
सकल दुनिया आज उत्सुक
स्नेह से भर नयन दीपक
गर्म स्वागत के लिए ही गीत मीठा गा रही है !
॰
आ रहे सुख के बड़े दिन
आ रहा नव मुक्त-जीवन
आज तो युग-कोकिला मधुमास भू पर ला रही है !
॰
1944
॰
(12) नया संसार
॰
बन रहा इतिहास नूतन
जाग शोषित देख सम्मुख
है नया संसार !
॰
स्वार्थ में जब विश्व सारा डूब हिंसा कर रहा था,
मनुज अत्याचार से था त्रास्त प्रतिपल डर रहा था,
चल पड़ी तब घोर आँधी
और विप्लव ज्वार !
॰
नष्ट जिसमें हो गये सब आततायी क्रूर राक्षस,
और पूँजीवाद तानाशाह की तोड़ी गयी नस,
मुक्त जनता-युग हमारे
सामने-साकार !
॰
1944
॰
(13) क़ैदी
॰
रात्रि के नीरव प्रहर में
बज उठीं कड़ियाँ,
जब कठिन
घड़ियाँ बिताना हो रहा था
याद सहसा आ गयी —
खामोश ऐसी रात में ही
एक दिन
वे बज उठी थीं
प्रिय तुम्हारे
पैर की पायल !
॰
आज तो निस्तब्ध काली रात में
दृढ़ लौह-कड़ियों-सीखचों के बीच
रह-रह खनखनाती बेड़ियाँ निर्मम
और बीते जा रहे
भावों-विचारों में
थके-उलझे हुए
कुछ क्षण !
॰
1943
॰
(14) तुम
॰
तुम सहसा आ आलोक-शिखा-सी चमकीं !
॰
जब तम में जीवन डूब गया था सारा,
सोया था दूर कहीं पर भाग्य-सितारा,
तब तुम आश्वासन दे, विद्युत-सी दमकीं !
॰
सूखे तरुवर पतझर से प्रतिपल लड़कर
सर्वस्व गवाँ मिटने वाले थे भू पर,
तब तुम नव-बसंत-सी उर में आ धमकीं !
॰
जब पीड़ित अंतर ने आह भरी दुख की,
जब सूख गयी थीं सारी लहरें सुख की,
तब घन बनकर तुमने नीरसता कम की !
॰
1945
॰
(15) उत्सर्ग
॰
तुमने क्यों काँटे बीन लिए ?
॰
जब हम-तुम दोनों साथ चले
सुख-दुख लेकर जीवन-पथ पर,
कुश-काँटों से आहत उर को
आपस में सहला-सहला कर,
पर, अनजाने में, तुमने क्यों
मेरे सारे दुख छीन लिए ?
॰
आधे पथ तुम ले जाओगी
क्या तुमने सोचा था मन में ?
अंतिम मंज़िल मैं, ले जाता
निर्जन वन के सूनेपन में !
पर, हाय! कहाँ वह मध्य मिला ?
पग सह न सके, गति हीन किये !
॰
1945
॰
(16) आशिष्
॰
मैं लिए हूँ
प्राण की यह रिक्त झोली
माँगता हूँ स्नेह-निर्मल,
देखना बस चाहता हूँ
हाथ ममता का
उपेक्षित शीश पर !
॰
यदि पा गया तो —
प्राण में भर वेग दुर्दम
और धुन तूफ़ान-सी लेकर
अभावों को मिटाने
बढ़ चलूंगा !
॰
वेदना-अवसाद के,
अवसान के युग
जाएंगे बन
हर्ष के
उत्थान के क्षण !
॰
1941
॰
(17) असह
॰
अब न रहा जाता !
॰
प्रिय दूभर जीना ;
मूक हृदय-वीणा,
आघात समय का
अब न सहा जाता !
॰
करुण कथा कितनी,
गरल व्यथा कितनी,
लय में छंदों में
अब न कहा जाता !
॰
जीवित नेह कहाँ ?
सुन्दर गेह कहाँ ?
मन दुख-सरिता में
अब न नहा पाता !
॰
हैं मौन सुखद स्वर,
जीवन शांत लहर,
बीहड़ पथ से रे
अब न बहा जाता !
॰
1945
॰
(18) अन्तर्बोध
॰
जब-जब मैंने सोचा मन में —
क्या सार रखा है जीवन में ?
है जब क़दम-क़दम पर फिसलन
औ’ अपमान, व्यथाएँ, बंधन ;
पर, मिटने की जब-जब ठानी
मम वसुधा-सम प्राण न माने !
॰
इति का कहना क्या, जब अथ में
दुख-ही-दुख है जीवन-पथ में,
शूलों का अम्बार लगा है,
कटुता का बाज़ार लगा है,
पर, रुकने की जब-जब ठानी
मम ध्रुव-सम ये प्राण न माने !
॰
1945
॰
(19) प्रतिकूलता
॰
स्नेह हीन जीवन-दीपक की
होती जाती है ज्योति मंद !
॰
मिलती प्रतिपग पर असफलता,
बढ़ती जाती है व्याकुलता,
जीवन-सुख के सब द्वार बंद !
॰
जड़ता का अँधियारा छाया,
बरखा-आँधी का युग आया,
हलचल प्रतिपल अन्तर्द्वन्द्व !
॰
1945
॰
(20) आशा-किरण
॰
जीवन में
प्रतिकूल समय के
कुटिल प्रहारों को
सहने दो !
॰
गत जीवन के
रंग-बिरंगे, मधुमय
सपनों के चित्रों को
मत देखो,
मत सोचो उन पर
दूर कहीं
विस्मृत-सागर के तल में
बहने दो !
॰
एक समय आएगा ऐसा
जब सुख की बरखा होगी,
दुख की खेती मिट जाएगी !
जो इस आशा पर हँसते हैं
उनको हँसने दो !
॰
1941
॰
(21) जीवन-ज्वाला
॰
यह मम जीवन-ज्वाला इसको
तुम धू-धू स्वर में गाने दो !
॰
प्राणों के सारे अशिव-भाव
इस ज्वाला में जाएंगे जल,
जीवन के राग-विराग सभी
इसमें हो जाएंगे ओझल,
मन को कलुषित करने वाला
धूम्र विषैला उड़ जाने दो !
॰
आँसू मत लाना, आँसू से
ज्वाला ठंडी पड़ जाएगी,
आहें मत भरना; आहों से
वह सीमित ना रह पाएगी,
इसको तो प्रतिपल जीवन के
सम्पूर्ण गगन में छाने दो !
॰
1941
॰
(22) निवेदन
॰
अभिशाप भले ही दे दो, पर
वरदान नहीं देना मुझको !
॰
जब सविता जैसा चमक पडूँ,
जब मधुघट बनकर छलक पडूँ,
तब लघुता मुझमें भर देना,
अभिमान नहीं देना मुझको !
॰
मूक ग़रीबी का साया हो,
जब सुख माया-ही-माया हो,
संघर्षों में मिटने देना,
पर, दान नहीं देना मुझको !
॰
1945
॰
(23) स्वावलंब
॰
मैं बुझते दीपक का न कभी
धूमिल नीरव उच्छ्वास बना !
॰
जीवन के कितने ही भ्रम में,
भूला न कभी अपने क्रम में,
मैं तो अविरल बहने वाली
सरिता के उर की साँस बना!
॰
मैं अपना ख़ुद पतवार बना,
मैं अपना ख़ुद आधार बना,
निज की निर्भरता पर रखता
अविचल जीवित विश्वास घना !
॰
1945
॰
(24) समरस
॰
मैंने आज न पहले भी अपने पर अभिमान किया !
॰
जब जीवन-नभ में चमका
मैं स्वर्ण-सितारा बन कर,
सब की मुझ पर आँख उठी
देखा जब ऐसा अवसर,
पर, मैंने न कभी अपने क्षणिक-सुखों का गान किया !
॰
अंतर में समझा होता
इस उन्नति का मूल्य अगर,
गर्वीली रेखाएँ आ
बरबस छा जातीं मुख पर,
पर, लोचन झुक-झुक जाते, सुन मैंने बलिदान किया !
॰
1944
॰
(25) सुख – दुख
॰
सुख-दुख तो मानव-जीवन में बारी-बारी से आते हैं !
जो कम या कुछ अधिक क्षणों को मानव-मन पर छा जाते हैं !
॰
मानव-जीवन के पथ पर तो संघर्ष निरंतर होते हैं,
पर, गौरव उनका ही है जो किंचित धैर्य नहीं खोते हैं !
॰
यह ज्ञात सभी को होता है, जीवन में दुख की ज्वाला है,
यह भास सभी को होता है, जीवन मधु-रस का प्याला है !
॰
हैं सुख की उन्मुक्त तरंगें, तो दुख की भी भारी कड़ियाँ,
ऊँचे-ऊँचे महल कहीं तो, हैं पास वहीं ही झोंपड़ियाँ !
॰
कितनी विपदाओं के झोंके आते और चले जाते हैं !
कितने ही सुख के मधु-सपने भी तो फिर आते-जाते हैं !
॰
क्या छंदों में बाँध सकोगे जन-जन की मूक-व्यथाओं को ?
औ’ सुख-सागर में उद्वेलित प्रतिपल पर नव-नव भावों को ?
॰
1941
॰
(26) काम्य
॰
ओ मेरे मन ! तुम आकांक्षाओं के भंडार बनो,
नव-नव स्वस्थमना इच्छाओं के रे आगार बनो !
॰
जीवन में प्रतिपल मादकता हो, गति हो, सिहरन हो,
अंतर में जीने का नव-उत्साह भरा कंपन हो !
॰
रुद्ध अचेतन कुण्ठित हो न कभी भावों की सरिता,
प्राणों की वेगवती बहती जाये जीवित कविता !
॰
अनुभव हो न कभी जीवन में हृदय शिथिल होने का,
अवसर आये न कभी असमय संयम-बल खोने का !
॰
भाग्य अधीन नहीं हो किंचित विस्तृत भावी का पथ
संघर्षों में ही बढ़े अथक प्रतिपल जीवन का रथ!
॰
1944
॰
(27) नयी कला
॰
नूतन गति दो आज कला को !
॰
ओ कवि ! निकले तेरे उर से
स्वर नव-युग के नव-जीवन के,
शांति-सुधा की मधु-लहरों-से
कल-कल निर्झर मधुर स्वरों-से
विश्व नहाता जिनमें जाये
मुसकान मधुर मानव पाये
झूम-झूम कर मस्ती में भर
सुन्दर-सुन्दर कहता जाये
॰
दो नूतन स्वर, नूतन साहस
दो मस्ती का राज कला को !
नूतन गति दो आज कला को !
॰
1944
॰
(28) नवयुग
॰
रेशमी युगीन-तार हैं नये-नये !
ज़िन्दगी नयी
अकाम भाव बह गये !
॰
समाज से विलीन हो रही है पीर,
कंटका-विहीन हो रहा करीर
॰
डाल-डाल स्वस्थ गुदगुदी
शुष्कता हृदय से हो चुकी जुदी !
॰
देव-देव आज व्यक्ति हर
कर गया निडर निनार पान विष प्रखर !
यातुधान है वही कि जो
ज़रा अड़ा, ज़रा लड़ा
आग देखकर भगा, डरा....
॰
है विदीर्ण अब प्रमाद
क्योंकि बन गया नवीन !
व्यर्थ आज उस मनुष्य का प्रयास
गर्व की पुकार
व्यर्थ, व्यर्थ, व्यर्थ !
॰
1945
॰
(29) प्रात
॰
पवन के साथ भर कर डग
करो पूरा असीमित मग
दिखो वरदान-से दीपित
दिशाएँ हो सकल ज्योतित,
सबेरा आ, सबेरा आ !
॰
बसेरा अब नहीं तेरा
उठा अपना सभी डेरा,
किरण-भय से बिना स्वर कर
अभी उलटे चरण धर कर
अँधेरा जा, अँधेरा जा !
॰
1944
॰
(30) नव-जीवन
॰
गा रहा मधु-गान निर्झर !
आज सरि की हर लहर में नृत्य की गति-लय मनोहर,
सृष्टि की आभा नयी बन निखरती जाती निरन्तर,
गा रहा मन गीत सुन्दर
भावनाओं से हृदय भर
कल्पनाओं से हृदय भर !
॰
दे रहा वरदान कण-कण !
वेदना-दुख को मिटाकर स्वर्ण का संसार आया,
विश्व के दुर्बल हृदय में शक्ति का सागर समाया,
गूँजता स्वर नभ-अवनि में
आज आया मुक्त-जीवन
आज भाया मुक्त-जीवन !
॰
1944
॰
(31) संध्या
॰
नीला-नीला व्योम कि जिसमें छाये कुछ काले-काले घन,
संध्या की बेला है जगती का सूना-सूना-सा आँगन !
॰
चरती भैंसें मैदानों में, कुछ मेड़ों-खेतों के ऊपर,
धीरे-धीरे बजता है गति के क्रम से घंटी का मधु-स्वर !
॰
आँख-मिचौनी खेल रहे हैं मेघ निकट जा-जा सूरज के,
उड़ता लंबी पाँति बनाकर बगलों का दल-बल सजधज के!
॰
कवि ऊँचे टीले पर बैठा दिन का ढलना देख रहा है,
प्रकृति-वधू का चुप-चुप तन से वस्त्रा बदलना देख रहा है!
॰
1943
॰
(32) बरसात
॰
सांध्य का वातावरण धूमिल गहन तम में
छिप गया दिन भी शिशिर-सा शुष्क-मौसम में !
॰
तप्त धरती पर उमड़कर छा रहे बादल
बह रहीं मोहक बयारें सिंधु से शीतल !
॰
ताप में अब डूबती घड़ियाँ बिताओ मत
त्रस्त हो आकाश में आँखें लगाओ मत,
॰
दूर दक्खिन से नयी बरसात आयी है
यह तभी बिजली गगन में चमचमायी है !
॰
1945
॰
(33) विश्व-कवि
॰
तंरगों में पवन के,
युग-अँधेरे में
सिहर कर स्वर सभी थे मौन
जिस क्षण
विश्व कवि की रुक गयी थी श्वास !
॰
होता था नहीं विश्वास
मुख पर था वही ही तेज
जीवन-साधना आभा
नहीं थीं शोक-रेखाएँ,
मनुज-उर भव्यता की
मधु-सरल मुसकान छायी थी।
॰
दिये संसार को जिसने सबल स्वर
मुक्त गीतों का अतुल भंडार
ऐसे गीत जो हैं प्रति निमिष गतिवाह,
करते दूर उर का दाह,
हर निर्जीव तन में रक्त नूतन
कर रहे संचार,
नव-संदेश-वाहक !
॰
कर रहे हर प्राण का उत्थान !
संस्कृत मानवी उत्थान !
॰
1941
॰
(34) हरिजन
॰
नगर के एक सिरे पर हरिजन-बस्ती। सीकों की अनेक झाडू और टोकरियाँ दरवाज़ों के आसपास पड़ी हैं।
गरमी में समस्त वायुमंडल तप रहा है। कुछ हरिजन अपनी कुटियों से बाहर निकलकर पेड़ के नीचे बैठे हैं,
जिनमें औरतें, बुड्ढ़े-बालक व जवान सभी हैं। शहर में आज इनकी हड़ताल है।
आज कुचले हुए सिरों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी है —
॰
एक युवक —
॰
(पड़ा-पड़ा गुनगुनाता है)
बीत चुके हैं चार दिवस
हम गये नहीं अपने कामों पर
दृष्टि नगर के जन-जन की
हम पर ही आज लगी है,
क्योंकि नहीं है काम हमारा
औरों के बलबूते !
वर्तमान जीवन के
अभिन्न अंग बने हम,
आज हमारे बिना हुआ
रहना सभ्य मनुजता का
कठिन
असम्भव !
॰
युवक की माँ —
॰
रहने दे रे
कुछ न चलेगी तेरी
यों ही कहता फिरता है,
पढ़ आज गया जो थोड़ा-सा
उसके बल
महल हवाई गढ़ता रहता है !
वाचाल ! तुझे क्या पता नहीं
तेरे पुरखे सारे
इनके ही सूखे टुकड़ों पर
पलते आये हैं
पलते जाएंगे !
क्यों कब्र खोदना चाह रहा अपनी
सब की !
॰
युवक —
॰
तू क्या जाने जग की आँधी
है साथ हमारे वह गांधी
जिससे ‘गोरे’ तक डरते हैं
अत्याचार नहीं करते हैं
जिसके पीछे हिन्दुस्तान
करोड़ों इंसान !
॰
युवक का दादा —
॰
पर, यह कह देने से
क्या होता है ?
हम तो हैं अब भी
दबे, दुखी औ’ दीन पतित !
बाबू लोगों की गाली के
गुस्से के
एकमात्र इंसान
क्या ?
ना रे इंसान
कहाँ इंसान ?
कुत्तों से भी बदतर !
॰
युवक —
॰
यह कैसे कहते हो, दादा !
चाल ज़माना चलता जाता
हम भी क़दम-क़दम बढ़ते जाते
॰
मंदिर सारे
आज हमारे लिए खुले हैं !
॰
दादा —
मंदिर आज हमारे लिए खुले हैं
तो क्या उनको लेकर चाटें ?
उनसे न मिलेगी
रहने का़बिल आज़ादी !
भगवान हमारा यदि साथी होता
तो क्या इस जीवन से
पड़ता पाला ?
मंदिर तो धनिकों के
ऐयाशी के अड्डे हैं !
तू क्या जाने !
॰
युवक —
॰
बस, चाह रहा मैं यह ही तो
समझ सकें हम इन सबका
नंगा रूप
कि बाहर आएँ
युग-युग के बंदी अंध-कूप से
फिर कौन बिगाड़ सकेगा अपना
(कुछ रुक कर)
ऊपर उठ जाएंगे,
नव-जीवन पा जाएंगे !
॰
दूसरा युवक —
॰
देखो, सचमुच
कितना बदला आज ज़माना,
चारों ओर सहानुभूति का
और मदद का
धन से, तन से, मन से
मचा हुआ है आन्दोलन !
॰
दादा —
ये पंडित पोथीवाले
लाल तिलक वाले
पगड़ी वाले लाला लोग
कि जो रोज़ लगाते मोहन-भोग
आज हमारे जानी दुश्मन !
इनने ही बरबाद किया है जीवन !
॰
माँ —
॰
उफ़, न कहो
है लंबी दर्द भरी
युग-युग की करुण कहानी !
क्या होता याद किये से
बीती बातें व्यर्थ-पुरानी !
॰
पार्श्व से —
उठो ! पीड़ित, तिरस्कृत
आज युग-युग के सभी मानव,
जगाता है तुम्हें
नूतन जगत का अब नया यौवन !
अमर हो क्रांति
मानव-मुक्ति की नव-क्रांति !
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1942
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(35) भिखारिन
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सावन की घनघोर घटाएँ उमड़ी पड़ती थीं अम्बर में,
काशी के एक मुहल्ले में, मैं बैठा था अपने घर में !
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ऊपर की मंज़िल का कमरा था शांत ; परंतु किवाड़ खुले,
सूख रहे थे छाँह-गोख में कुछ धोती-कपड़े धुले-धुले।
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सघन तिमिर की चादर ने छा सारी वसुधा ढक डाली थी,
पर, थोड़ी-सी ज्योति गोख ने दीपक के कारण पा ली थी!
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धोती की फर-फर की आहट ने ली दृष्टि खींच जब सहसा,
नेत्र गड़े-से, स्वर मौन रहे, उस क्षण की देख अजीब दशा!
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करुणा की प्रतिमा-सी युवती चुपचाप खड़ी थी मुख खोले,
जिस पर थीं भय की रेखाएँ, सोच रही थी, क्या वह बोले !
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फटी-पुरानी साड़ी उलटे पल्ले की पहने थी नारी,
बिखरे-बिखरे सूखे केशों पर सुन्दरता थी बलिहारी !
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श्याम-वर्ण था, कोकिल से भी मीठी थी जिसकी स्वर-लहरी,
वह बोल उठी हलके स्वर में भरकर व्यथा हृदय में गहरी —
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कुछ ही महिने बीते मुझको बाबू बंगाला से आये
अन्न अकाल पड़ा था भारी, था जीना दुर्लभ बिन खाये,
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भूख-भूख की इस ज्वाला में सारा परिवार विलीन हुआ,
घर का धन क्या, शिशुओं तक को बेचा, उर ममताहीन हुआ!
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जीवन के दुख-दुर्गम पथ पर नश्वर काया की अनुरागिन,
हाय रही जाने क्यों जीवित अब तक मैं ही एक अभागिन !
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कुछ पैसों की भिक्षा को अब फिरती हूँ नगर-नगर घर-घर,
ऊब चुकी हूँ इस जीवन से सचमुच, जग में रहना दूभर !
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कुछ दे दो ओ बाबू ! तुम भी दुनिया में खूब फलो-फूलो !
भूखी और दुखी आत्मा की यही दुआ है, सुख में झूलो !’
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फिर वह दुखिया आँसू भर कर इतना कह बैठ गयी थक कर,
मैं सोच रहा था, दुनिया भी क्या है नग्न विषमता का घर !
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मेरे उर में जाग उठी थी जीवन की उत्कट अभिलाषा,
पूछूँ इसका पूरा परिचय बतला देगी, थी कुछ आशा।
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फिर लिखने को युग की गाथा मिल जाएगा सच्चा जीवन,
मिल जाएगा अवसर, करने युग की हीन दशा का चित्रण।
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जाने कितने दिन की होगी भूखी-प्यासी यह सोच तनिक,
मैंने सोचा इन बातों को अच्छा हो टालूँ सुबह तलक।
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फिर उसको भोजन-आश्रय दे मैं भी सोने तत्काल गया,
एक प्रहर इस उलझन में ही बीता कब होगा प्रात नया।
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सुबह-सुबह उठकर जब देखा, केवल पाया अबला का शव,
इसी तरह दम तोड़ रहे हैं जग में जाने कितने मानव !
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उसको कोई जान न पाया, कितना करुण अकेला जीवन,
कहना,सचमुच, यह मुश्किल है कितना मर्मान्तक था वह क्षण!
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1944
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