डॉ0 महेंद्रभटनागर का कविता संग्रह ------ जीने के लिए
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कविताएँ
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1 जीने के लिए
2 आग्रह
3 शुभैषी
4 कामना
5 कविता-प्रार्थना
6 धर्म
7 गौरैया
8 पहचान
9 आतंक के घेरे में
10 धर्मयज्ञ
11 आरज़ू
12 सन् 1986 ई. में
13 अग्नि-परीक्षा
14 नये इंसानों से
15 दूसरा मन्वन्तर
16 इतिहास-सृष्टाओ !
17 दरिद्र-नारायण
18 माहौल
19 विजय-विश्वास
20 मंत्र
21 चरम-बिन्दु
22 महत्त्वपूर्ण
23 अनुवाद: एक सेतु
24 भवन
25 मुक्ति-बोध (1)
26 मुक्ति-बोध (2)
27 उमंग
28 सम्मोहन
29 अननुभूत: अस्पर्शित
30 अतृप्ति-भेंट
31 इतवार का एक दिन
32 वास्तविकता
33 लाचारी
34 विरुद्ध
35 कृतकार्य
36 विश्लेषण
37 उपलब्धि
38 एक साध: अधूरी
39 कृतज्ञता
40 अपूर्ण
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(1) जीने के लिए
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दहशत दिशाओं में
हवाएँ गर्म
गंधक से, गरल से;
किन्तु मंज़िल तक
थपेड़े झेलकर
अविराम चलना है !
शिखाएँ अग्नि की
सैलाब-सी
रह-रह उमड़ती हैं ;
किन्तु मंज़िल तक
चटख कर टूटते शोलों-भरे
वीरान रास्तों से
गुज़रना है,
तपन सहना
झुलसना और जलना है !
सुरंगें हैं बिछी
बारूद की
चारों तरफ़
नदियों पहाड़ों जंगलों में ;
किन्तु मंज़िल तक
अकेले
खाइयों को ; खंदकों को
लौह के पैरों तले
हर बार दलना है !
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(2) आग्रह
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आदमी को
मत करो मजबूर !
इतना कि
बेइंसाफ़ियों को झेलते —
वह जानवर बन जाय !
या
बेइंतिहा
दर्द की अनुभूतियों को भोगते —
वह खण्डहर बन जाय !
आदमी को
मत करो मज़बूर
इतना कि उसको
ज़िन्दगी
लगने लगे
चुभता हुआ
रिसता हुआ
नासूर !
आदमी को
मत करो
यों
इस क़दर मजबूर !
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(3) शुभैषी
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बद्दुआओं का
असर होता अगर ;
वीरान
यह आलम
कभी का
हो गया होता !
जाग उठता
हर क़दम पर
आदमी का दर्प-दुर्वासा !
चिरन्तन
प्रेम का सोता
रसातल में
कभी का
खो गया होता !
कहाँ हो तुम
पुनीत शकुन्तले !
अभिशाप की
जीवन्त पंकिल प्रतिक्रिया !
कहाँ हो तुम ?
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(4) कामना
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कभी तो ऐसा हो
कि हम
अपने को ऊँचा महसूस करें,
भले ही
चंद लमहों के लिए।
कभी तो ऐसा हो
कि जी सकें हम
ज़िन्दगी सहज
कृत्रिम मुसकान का
मुखौटा उतार कर,
बेहद तरस गया है
आदमी
सच्चे क़हक़हों के लिए !
कभी तो हम
रू-ब-रू हों
आत्मा के विस्तार से,
कितना तंग-दिल है
आदमी
अपरिचित
परोपकार से !
अंधकार भरे मन में
कभी तो
विद्युत कौंधे !
बड़ा महँगा
हो गया है
रोशनी का मोल ;
अदा कर रहा
हर आदमी
एकमात्र कृपण महाजन का
मसख़रा रोल !
कभी तो हम
तिलांजलि दें
अपने बौनेपन को
अपने ओछेपन को,
और अनुभव करें
शिखर पर पहुँचने का उल्लास !
कभी तो हो हमें
भले ही
चंद लमहों के लिए,
ऊँचे होने का अहसास !
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(5) कविता-प्रार्थना
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आदमी को
आदमी से जोड़ने वाली,
क्रूर हिंसक भावनाओं की
उमड़ती आँधियों को
मोड़ने वाली,
उनके प्रखर
अंधे वेग को — आवेग को
बढ़
तोड़ने वाली
सबल कविता —
ऋचा है, / इबादत है !
उसके स्वर
मुक्त गूँजें आसमानों में,
उसके अर्थ ध्वनित हों
सहज निश्छल
मधुर रागों भरे
अन्तर-उफ़ानों में !
आदमी को
आदमी से प्यार हो,
सारा विश्व ही
उसका निजी परिवार हो !
हमारी यह
बहुमूल्य वैचारिक विरासत है !
महत्
इस मानसिकता से
रची कविता —
ऋचा है, इबादत है !
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(6) धर्म
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प्यार करना
ज़िन्दगी से: जगत से
आदमी का धर्म है !
प्यार करना
मानवों से
मूक पशुओं पक्षियों जल-जन्तुओं से
वन-लताओं से
द्रुमों से
आदमी का धर्म है !
प्यार करना
कलियों और फूलों से
विविध रंगों-सजी-सँवरी
तितलियों से
आदमी का धर्म है !
प्यार करना
इन्द्रजालों से रचे
अद्भुत
विशृंखल-सूत्र
सपनों से,
मधुरतम कल्पनाओं में
गमन करती
सुकोमल-प्राण परियों से
आदमी का धर्म है !
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(7) गौरैया
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गौरैया
बड़ी ढीठ है,
सब अपनी मर्ज़ी का करती है,
सुनती नहीं ज़रा भी
मेरी,
बार-बार कमरे में आ
चहकती है ; फुदकती है,
इधर से भगाऊँ
तो इधर जा बैठती है,
बाहर निकलने का
नाम ही नहीं लेती !
जब चाहती है
आकाश में
फुर्र से उड़ जाती है,
जब चाहती है
कमरे में
फुर्र से घुस आती है !
खिड़कियाँ-दरवाजें बंद कर दूँ ?
रोशनदानों पर गत्ते ठोंक दूँ ?
पर, खिड़कियाँ-दरवाज़े भी
कब-तक बंद रखूँ ?
इन रोशनदानों से
कब-तक हवा न आने दूँ ?
गौरैया नहीं मानती।
वह इस बार फिर
मेरे कमरे में
घोंसला बनाएगी,
नन्हें-नन्हें खिलौनों को
जन्म देगी,
उन्हें जिलाएगी.... खिलाएगी !
मैंने बहुत कहा गौरैया से —
मैं आदमी हूँ
मुझसे डरो
और मेरे कमरे से भाग जाओ !
पर, अद्भुत है उसका विश्वास
वह मुझसे नहीं डरती,
एक-एक तिनका लाकर
ढेर लगा दिया है
रोशनदान के एक कोने में !
ढेर नहीं,
एक-एक तिनके से
उसने रचना की है प्रसूति-गृह की।
सचमुच, गौरैया !
कितनी कुशल वास्तुकार हो तुम,
अनुभवी अभियन्ता हो !
यह घोंसला
तुम्हारी महान कला-कृति है,
पंजों और चोंच के
सहयोग से विनिर्मित,
तुम्हारी साधना का प्रतिफल है !
कितना धैर्य है गौरैया, तुममें !
इस घोंसले में
लगता है —
ज़िन्दगी की
तमाम ख़ुशियाँ और बहारें
सिमट आने को आतुर हैं !
लेकिन ; यह —
सजावट-सफ़ाई पसन्द आदमी
सभ्य और सुसंस्कृत आदमी
कैसे सहन करेगा, गौरैया
तुम्हारा दिन-दिन उठता-बढ़ता नीड़ ?
वह एक दिन
फेंक देगा इसे कूडे़दान में !
गौरैया ! यह आदमी है
कला का बड़ा प्रेमी है, पारखी है !
इसके कमरे की दीवारों पर
तुम्हारे चित्र टँगे हैं !
चित्र —
जिनमें तुम हो,
तुम्हारा नीड़ है,
तुम्हारे खिलौने हैं !
गौरैया ! भाग जाओ,
इस कमरे से भाग जाओ !
अन्यथा ; यह आदमी
उजाड़ देगा तुम्हारी कोख !
एक पल में ख़त्म कर देगा
तुम्हारे सपनों का संसार !
और तुम
यह सब देखकर
रो भी नहीं पाओगी।
सिर्फ़ चहकोगी,
बाहर-भीतर भागोगी,
बेतहाशा
बावली-सी / भूखी-प्यासी !
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(8) पहचान
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इन अट्टालिकाओं का
गगन-चुम्बी
कला-कृत
इन्द्र-धनुषी
स्वप्न-सा
अस्तित्व
कितना घिनौना है
हमें मालूम है !
इनकी ऊँचाइयों का रूप
कितना
क्षुद्र, खंडित और बौना है
हमें मालूम हैं !
परियों-सी सजी-सँवरी
इन अंगनाओं का
अवास्तव छद्म आकर्षण
कितना सुशोभन है
हमें मालूम है !
गौर-वर्णी
कमल-पंखुरियाँ छुअन
कितनी
सुखद, कोमल व मोहन है
हमें मालूम है !
परिचित हम
सुगन्धित रस-भरे
इन स्निग्ध फूलों की
चुभन से,
कामना-दव से
दहकती
देह की आदिम जलन से,
वासना-मद से
महकती
देह की आदिम तपन से,
इनका बिछौना
कितना सलोना है
हमें मालूम है !
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(9) आतंक के घेरे में
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एक बहुत बड़ी और गहरी
साज़िश की गिरफ़्त में है देश !
चालाक और धूर्त गिरोहों के
चंगुल में फँसा
छद्म धर्म और बर्बर जातीयता के
दलदल में धँसा,
एक बहुत बड़ी और घातक
जहालत में है देश !
आत्मीय रिश्तों का पक्षधर
दोस्ती के
सपनों व अरमानों का घर,
एक बहुत बड़ी और भयावह
दहशत में है देश !
संलग्न
सभ्य और नये इंसानों की अवतारणा में,
संलग्न
शांति और अहिंसा की
कठिनतम साधना में,
एक बहुत बड़ी और भारी
मुसीबत में है देश !
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(10) धर्मयज्ञ
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आधुनिक विश्व में
‘धर्म’ के नाम पर
कैसा जुनून है ?
सभ्य प्रदेशों में
ज़िन्दा
बर्बर ‘कानून’ है,
सर्वत्र —
ख़ून-ही-ख़ून है !
नये इंसानो !
बेहतर की कामना करो,
धर्म के ठेकेदारों का
सामना करो !
विकृत धर्मों की
खुलकर अवमानना हो
(चाहे व्यापक विनाश सम्भावना हो।)
मनुष्य — मनुष्य है,
पशु नहीं !
उसे प्रबोध दो,
वह समझेगा, सँभलेगा, बदलेगा !
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(11) आरज़ू
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कितना अच्छा होगा
जब दुनिया में सिर्फ़ रहेंगे
ईश्वर से अनभिज्ञ,
प्राणी-प्राणी प्रेम-प्रतिज्ञ !
फिर
ना मंदिर होंगे, ना मसजिद
ना गुरुद्वारे, ना गिरजाघर !
कितनी होगी हैरत !
मारेगा कौन किसे ?
फिर कौन करेगा नफ़रत ?
सिर्फ़ मुहब्बत होगी,
होगी गै़रत !
सब ‘तनखैया’ होंगे,
भैया-भैया होंगे !
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(12) सन् 1986 ई. में
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इसने
उसको
भून दिया
गोली से;
क्योंकि
भिन्न था
वह
बोली से !
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(13) अग्नि-परीक्षा
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काली भयानक रात,
चारों ओर
झंझावात,
पर, जलता रहेगा —
दीप...
मणिदीप
सद्भाव का,
सहभाव का !
उगती जवानी
देश की
होगी नहीं गुमराह !
उजले देश की
जाग्रत जवानी
लक्ष्य युग का भूल
होगी नहीं गुमराह
तनिक तबाह !
मिटाना है उसे —
जो कर रहा हिंसा,
मिटाना है उसे —
जो धर्म के उन्माद में
फैला रहा नफ़रत,
लगाकर घात
गोली दाग़ता है
राहगीरों पर
बेक़सूरों पर !
मिटाना है उसे —
जिसने बनायी ;
धधकती बारूद-घर
दरगाह !
इन गंदे इरादों से
नये युग की जवानी
तनिक भी
होगी नहीं गुमराह !
चाहे रात काली और हो,
चाहे और भीषण हों
चक्रवात-प्रहार,
पर,
सद्भाव का: सहभाव का
ध्रुव-दीप / मणि-दीप
निष्कम्प जलता रहेगा !
साधु जीवन की
सतत साधक जवानी
आधुनिक,
होगी नहीं गुमराह !
भले ही
वज्रवाही बदलियाँ छाएँ,
भले ही
वेगवाही आँधियाँ आएँ,
सद्भावना का दीप
सम्यक् धारणा का दीप
संशय-रहित हो
अविराम / यथावत्
जलता रहेगा !
एक पल को भी
न टूटेगा
प्रकाश-प्रवाह !
विचलित हो,
नहीं होगी
जवानी देश की
गुमराह !
उभरीं विनाशक शक्तियाँ
जब-जब,
मनुजता ने
दबा कुचला उन्हें
तब-तब !
अमर —
विजय विश्वास !
इतिहास
चश्मदीद गवाह !
जलती जवानी देश की
होगी नहीं गुमराह !
एकता को
तोड़ने की साज़िशें
नाकाम होंगी,
हम रहेंगे
एक राष्ट्र अखंड
शक्ति प्रचंड !
सहन
हरगिज़ नहीं होगा
देश के प्रति
छल-कपट विश्वासघात
गुनाह !
मेरे देश की
विज्ञान-आलोकित जवानी
अंध-कूपों में
कभी होगी नहीं गुमराह !
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(14) नये इंसानों से
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पहले
सोचते हैं हम
अपने घर-परिवार के लिए।
फिर —
अपने धर्म
अपनी जाति
अपने प्रांत
अपनी भाषा, और
अपनी लिपि के लिए !
आस्थाएँ: संकुचित।
निष्ठाएँ: सीमित परिधि में कै़द।
हम अपने इस सोच की
रक्षा के लिए
मानव-रक्त की
नदियाँ बहा देते हैं,
पड़ोसियों को
गोलियों से भून देते हैं,
वहशी बन जाते हैं
आदमख़ोर हिंस्र
जानवर से भी अधिक,
भयानक शक़्ल
धारण कर लेते हैं !
हमारे ‘महान’ और ‘शहीद’ बनने का
एक मात्र रास्ता यही है !
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
यह सोच
हमारी चेतना का
अंग बन चुका है,
हम इससे मुक्त नहीं हो पाते !
बार-बार हमारा ईश्वर
हमें उकसाता है —
हम दूसरों के ईश्वरों की
हत्या कर दें
उनके अस्तित्व चिन्ह तोड़ दें
और स्वर्ग का स्थान
केवल अपने लिए
सुरक्षित समझें।
साक्षी है इतिहास
कि देश हमें नहीं दिखता,
विश्व-मानवता का लिबास
हमें नहीं फबता।
इस पृथ्वी पर मात्र
हम रहेंगे —
हमारे धर्म वाले
हमारी जाति वाले
हमारे प्रांत वाले
हमारी ज़बान वाले
हमारी लिपि वाले,
यही हमारा देश है,
यही हमारा विश्व है !
कौन तोड़ेगा
इस पहचान को ?
ख़ाक करेगा
इस गलीज़ जहान को ?
नये इंसानो !
आओ, क़रीब आओ
और मानवता की ख़ातिर
धर्म-विहीन, जाति-विहीन
समाज का निर्माण करो
देशों की
भौगोलिक रेखाएँ मिटा कर !
विभिन्न भाषाओं
विभिन्न लिपियों को
मानव-विवेक की
उपलब्धि समझो !
नये इंसानो !
अब चुप मत रहो
तटस्थ मत रहो !
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(15) दूसरा मन्वन्तर
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भविष्य वह
आएगा कब
जब —
मनुष्य कहलाएगा
मात्रा ‘मनुष्य’ !
उसकी पहचान
जुड़ी रहेगी कब-तलक
देश से
धर्म से
जाति-उपजाति से
भाषा-विभाषा से
रंग से
नस्ल से ?
मनुष्य के मौलिक स्वरूप को
किया जाएगा रेखांकित कब ?
मनुष्य को
‘मनुष्य’ मात्र
किया जाएगा लक्षित कब ?
उसका लोक एक है
उसकी रचना एक है
उसकी वृत्तियाँ एक हैं
उसकी आवश्यकताएँ एक हैं,
उसका जन्म एक है
उसका अन्त एक है
मनुष्य का विभाजन
कब-तलक
किया जाता रहेगा ?
वह आख़िर कब-तलक
बर्बर मन की
चुभन-शताब्दियाँ सहेगा ?
तोड़ो —
देशों की कृत्रिम सीमा-रेखाओं को,
तोड़ो —
धर्मों की
असम्बद्ध - अप्रासंगिक,
दक़ियानूस
आस्थाओं को,
तोड़ो —
जातियों-उपजातियों की
विभाजक व्यवस्थाओं को।
अर्जित हैं
भाषाओं-विभाषाओं की भिन्नताएँ,
प्रकृति नियंत्रित हैं
रंगों-नस्लों की
बहुविध प्रतिमाएँ !
ये सब
मानव को मानव से
जोड़ने में
बाधक न हों,
ये सब
मानव को मानव से
तोड़ने में
साधक न हों !
अवतरित हो
नया देवदूत, नया पैग़म्बर, नया मसीहा
इक्कीसवीं सदी का
महान मानव-धर्म
प्रतिष्ठित हो,
अन्य लोकों में पहुँचने के पूर्व
मानव की पहचान
सुनिश्चित हो !
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(16) इतिहास-सृष्टाओ!
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इंसान की तक़दीर को
बदले बिना —
इंसान जो
अभिशप्त है : संत्रस्त है
जीवन-अभावों से !
इंसान जो
विक्षत प्रताड़ित क्षुब्ध पीड़ित
यातनाओं से, तनावों से !
उस दुखी इंसान की
तक़दीर को बदले बिना ;
संसार की तसवीर को
बदले बिना —
संसार जो
हिंसा, विगर्हित नग्न पशुता ग्रस्त,
रक्त-रंजित,
क्रूरता से युक्त
घातक अस्त्र-बल-मद-मस्त !
उस बदनुमा संसार की
तसवीर को बदले बिना ;
इतिहास-द्रष्टाओ !
सुखद आरामगाहों में
तनिक सोना नहीं, सोना नहीं !
संघर्ष-धारा से विमुख
होना नहीं, होना नहीं !
हर भेद की प्राचीर को
तोड़े बिना,
पैरों पड़ी ज़ंजीर को
तोड़े बिना,
इतिहास-सृष्टाओ !
सतत श्रम-साध्य
निर्णायक विजय-अवसर
अरे, खोना नहीं, खोना नहीं ।
इंसान की तक़दीर को
बदले बिना,
संसार की तसवीर को
बदले बिना,
सोना नहीं, सोना नहीं !
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(17) दरिद्र-नारायण
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दो जून
रोटी तक जुटाने में
नहीं जो कामयाब,
ज़िन्दगी
उनके लिए —
क्या ख़ाक होगी ख़्वाब !
कोई ख़ूबसूरत ख़्वाब !
उनके लिए तो
ज़िन्दगी —
बस,
कश-म-कश का नाम,
दिन-रात
पिसते और खटते
हो रही उनकी
निरन्तर
उम्र तमाम !
वंचित
उच्चतर अनुभूतियों से जो —
भला उनके लिए
संस्कृति-कला का
अर्थ क्या ?
उपयोग क्या ?
सब व्यर्थ !
(जो न समर्थ।)
यद्यपि; सतत श्रम-रत;
किन्तु जीवन-भर
निराश-हताश !
जिनके पास
थोड़ा चैन करने को
नहीं अवकाश !
उनके लिए है
नृत्य-नाटक-काव्य के
सारे प्रदर्शन,
दूरदर्शन
व्यंग्य मात्र !
वे - केवल हमारे
खोखले ओछे अहं के
तुष्टि-पूरक-पात्र !
पहले चाहिए उन्हें —
शोषण-मुक्ति,
महिमा-युक्त गरिमा,
मान की सम्मान की रोटी,
सुरक्षा और शिक्षा !
चाहिए ना एक कण भी
राज्य की या व्यक्ति की
करुणा, दया, भिक्षा !
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(18) माहौल
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देश के असली खेवनहार
नेता अफ़सर ठेकेदार !
सारी दौलत के हक़दार,
राष्ट्र-भक्त झण्डाबरदार !
इनकी तिकड़म का संसार
करदे शासन को लाचार,
हमको तुमको बे-घरबार
ये मशहूर बड़े बटमार !
दुष्टाचारी हैं मक्कार,
है धिक्कार इन्हें धिक्कार !
.....
गूँजी किसकी यह ललकार —
जागी जनता, भागो यार !
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(19) विजय-विश्वास
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लड़ाई हमारी
अधूरी रहेगी नहीं,
बीच में ही
रुकेगी नहीं
जो —
मेहनतकश सबल साहसिक शूर है
नाम: ‘मज़दूर’ है
उसकी लड़ाई
अन्तिम विजय तक
थमेगी नहीं !
और होगी कड़ी
और होगी बड़ी,
संसार में
फैलती जायगी यह
लगातार !
बर्बर दमन से
कभी ख़त्म होगी नहीं,
कमज़ोर धीमी
पड़ेगी नहीं !
आश्वस्त हम —
यह युद्ध
शोषण-विरुद्ध,
अवरुद्ध होगा नहीं !
हर रुकावट
मिटाकर,
लड़ाई हमारी
सतत
भय-मुक्त
जारी रहेगी !
रुकेगी नहीं !
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(20) मंत्र
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स्थापित हो
समता
मानव-मानव में समता
युग-युग वांछित-इच्छित समता !
प्रजाति-जाति-वर्ण-धर्म मुक्त
हो मनुष्य-लोक,
हो नहीं
मनुष्य के मिलाप में
भेद-भाव, रोक-टोक !
पहचान मनुज की
मात्र एक —
मानव तन, मानव मन।
अनुभव-चिन्तन से
उपजे विवेक
पहचान मनुज की
मात्र एक।
अवतरित हो
ममता
मानव-मानव में ममता
मादक मादन मायल ममता।
ध्वस्त करो
अन्धी पौराणिकता
मानव-मानव के प्रति पाशविकता।
मानव ! मत भटको अब,
कल्पित भाग्य-विधानों पर
मानव ! मत अटको अब।
मूरखता, मूरखता, मूरखता।
केवल वंचकता, वंचकता।
इससे मुक्त करो
जीवन और मनुज को,
धृष्ट-दुष्ट
धर्मध्वजियों धूर्तों से
रक्षित हो मानवता।
हो सदा-सदा को दूर
विषमता,
जागे दलितों में
अपराजित अद्भुत क्षमता।
स्थापित हो
इंसानी दुनिया में
ख़ुशहाली
माली समता,
सामूहिक सामाजिक
गौरवशाली समता।
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(21) चरम-बिन्दु
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एक लमहा
फ़र्क है —
होने,
न होने में !
बहुत सूक्ष्म सीमा है
अस्तित्व
और
अनस्तित्व के मध्य,
फ़र्क है
सिर्फ़ रेखा भर
हँसने
और रोने में !
बहुत सूक्ष्म अन्तर है
अभिव्यक्ति में
अन्तःकरण की !
सम्भव नहीं है
खींचना सरहद
जनम की, मरण की !
स्थितियाँ —
समतुल्य हैं लगभग !
युग-युग सँजोयी साध
कब किस क्षण अचानक
मूर्त हो जाए ;
अमूर्त हो जाए ;
एक पल झपकी
बहुत है
पाने और खोने में !
एक लमहा
फ़र्क है —
होने;
न होने में !
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(22) महत्त्वपूर्ण
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चीजें —
कोई रूप-स्वरूप तो लें,
आख़िर कोई तो रूप लें !
हम पहुँचे तो सही
(ग़लत या सही)
किसी नतीज़े पर,
किसी घर.....दर
किसी ठिकाने भर !
यों वियाबान में
कब-तक भटकेंगे ?
यों आग की भट्ठी में
कब-तक
तरल-तरल तड़पेंगे ?
चीजें —
कोई शक़्ल तो लें !
आखि़र कोई तो शक़्ल लें !
मंसूबों की रेखाएँ —
स्पष्ट या धुँधला
कोई आकार-चिन्ह लें तो
आख़िर, कोई आकार-चिन्ह तो लें !
कि हम जान सकें
दिशाएँ
दूरियाँ
विस्तार !
विचार —
अमूर्त विचार साकार तो हों,
चिन्तन-लोक की गहराइयों में
किसी तरह तो हों साकार
अमूर्त विचार,
कि हम बना सकें दिमाग़
और पहना सकें
उन्हें
कोई भाषा-प्रारूप।
कहीं से
कोई तो रोशनी की किरन फूटे
अन्धकार तो छँटे
और हम अन्ध-कूप से
आएँ बाहर,
कम-से-कम बाहर तो आएँ,
चीजें —
रंग-रूप तो लें
हवा-धूप तो लें !
चीजें —
कोई रूप-स्वरूप तो लें !
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(23) अनुवाद: एक सेतु
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अनुवाद
मात्र भाषान्तर नहीं
वह सेतु है !
एक मन को दूसरे से
जोड़ने का,
परस्पर अजनबीपन
तोड़ने का !
विश्व-मानव के
शिथिल सम्बन्ध-सूत्रों को
पिरोने और कस कर बाँधने का,
आत्म-हित में
दृढ़ अटूट प्रगाढ़
मैत्री साधने का !
अनुवाद —
साधन है
देशान्तरों के - व्यक्तियों के
बीच निर्मित
अतल गहराइयों में
पैठने का,
निःशंक हो
द्विविधा रहित
मिल बैठने का।
लाखों-करोड़ों मानवों के मध्य
सह-संवाद है
अनुवाद।
अनजान मानव-लोक के
बाहर व भीतर व्याप्त
गहरे अँधेंरे का
दमकती रोशनी में
सफल रूपान्तर।
नहीं है
मात्र भाषान्तर !
माध्यम है —
अपरिचय को
गहन आत्मीयता में बदलने का,
हर संकीर्णता से मुक्त हो
बाहर निकलने का !
सभ्यता-संस्कार है !
अनुवाद !
भाषिक चेतना का
शक्त एक प्रतीक है,
सम्प्रेषण विधा का
एक रूप सटीक है !
अनुवाद —
मानव-विवेक
प्रतिष्ठ सार्थक
केतु है !
अनुवाद —
मात्र भाषान्तर नहीं;
वह सेतु है !
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(24) भवन
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कुएँ की दीवारों जैसा
ऊँचा परकोटा,
सँकरे-सँकरे गलियारों जैसा
हर कमरा छोटा,
जिसमें,
ना उपवन
ना आँगन
आधुनिक वास्तु-कला का अंकन ?
या
संकुचित हृदय की
प्रतिकृति,
स्वकेन्द्रित मन का
दर्पण !
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(25) मुक्ति-बोध (1)
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लगता है,
बहुत कुछ बदला हुआ !
नया-नया !
लगता है,
बरसों का चढ़ा जुआ
सहसा उतर गया !
बरसों से,
लम्बी सँकरी
कँकरीली-पथरीली
अनइच्छित सड़कों से
तन पर, मन पर
भारी बोझा ढोते
गुज़रता रहा,
नट की तरह
रोज़-रोज़
एक ही खम्भे पर
चढ़ता-उतरता रहा !
शुक्र है,
अब मुक्त हूँ
हवा की तरह,
कहीं भी जाऊँ,
उडूँ, नाचूँ, गाऊँ !
शुक्र है,
उन्मुक्त हूँ,
लहर की तरह !
जब चाहूँ -
लहराऊँ — बल खाऊँ,
चट्टानों पर लोटूँ
पहाड़ियों से कूदूँ
वनस्पतियों पर बिछलूँ,
दौडूँ
बेतहाशा दौडूँ
या
किसी सरोवर में पसर जाऊँ,
बूँद-बूँद बिखर जाऊँ !
मुक्त हूँ,
कुछ इस तरह
जैसे कि
पिँजरे का द्वार
अचानक खुल जाए
पंख फड़फड़ाता तोता
दूर आकाश में उड़ जाए,
हम-उम्र हमजोलियों में मिल जाए,
हम-ख़्वाबा के साथ खेले
उसे आगोश में ले ले
नोचे चूमे !
जो चाहे
जब चाहे
बोले —
ऊँचे या धीमे
आतुर या हौले !
लगता है —
बरसों के लिपटे नागफाँस
कट गए,
ज़हरीली बारिश के मेघ
हट गए !
अब
चंदन-वृक्षों पर
कस्तूरी फूल खिलेंगे
मधुर-स्रवा-सम
फूलों के गुच्छ लगेंगे !
जो कभी हुआ नहीं
लगता है —
अब होगा !
क्योंकि —
बहुत-कुछ
दिखता है
नया - नया
बदला हुआ !
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(26) मुक्ति-बोध (2)
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अब
बेफ़िक्री से सोऊँगा,
बेफ़िक्री से टहलूँगा
‘जनक-ताल’ तक टहलूँगा,
अब नहीं होगी हड़बड़ी
तोड़ दी है हथकड़ी
हर कड़ी !
घंटों नहाऊँगा,
सुरे-बेसुरे
नाना गीत गा-गा कर
नहाऊँगा !
कहाँ हैं
मेरे
‘पाकीज़ा’ और गीतादत्त के रिकार्ड ?
रात के सन्नाटे में
बार-बार बजाऊँगा !
जब-तब गुनगुनाऊँगा !
ओ मेरे उपवन के पौधो !
तुम्हें अब कोई शिकायत नहीं होगी,
जी-भर देखूंगा
सींचूँगा
बाँहों में बाँधूँगा !
ओ कनेर, कचनार, अमरूद !
अब उदास मत रहो
ओ रजनीगंधा ! ओ बेला !
अब हताश मत रहो,
तुम्हारी गंध
रोम-रोम से अनुभूत होगी,
हर साँस जैसे
प्रसून-प्रसूत होगी !
अनजान में भी
अब नहीं रौंदूँगा
ओ मेरे उपवन की
सब्ज़ घास !
रहूंगा पास,
मख़मली तन पर लोटूंगा
आदिम कामना से भर,
सुकोमल हाथ फेरूंगा
ओ स्निग्ध रचना !
हो
प्रफुल्ल-वदना !
हर क्षण अपना है,
सच सपना है !
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(27) उमंग
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सान्ध्य काल
धूप-छाँह बीच,
गिर रही फुहार
रिमझिमा रहा
गगन !
बार-बार
द्वार थपथपा रहा
समय / अ-समय
किस क़दर
उतावला पवन !
दूर-पास
खेत हाट चौक में
अधीर
जान-बूझ
भीग-भीग
थरथरा रहा
प्रिया बदन !
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(28) सम्मोहन
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मधु-ऋतु
आगमन पर
बंधु,
इतराओ नहीं !
इतना भरोसा मत करो
मधु-ऋतु मोहिनी पर,
इस क़दर
धरती-गगन में झूम कर
उल्लास-रस गाओ नहीं !
अस्तित्व
इसकी सुरभि का
कुछ दिनों का,
भोग-अनुभव
कुछ क्षणों का !
मधु-ऋतु गंध पर
विश्वास कर
निर्भर नहीं इतना रहो
मन !
भावना की तीव्र धारों में
नहीं इतना बहो
मन !
यह अल्प-जीवी
बिखर कर
छितर जाएगी,
रख न पाओगे
तनिक भी
बाँध कर तुम !
यह मनोरम गंध
मधु-ऋतु की !
वस्तु —
लहराती हुई,
आकाश की ऊँचाइयाँ
छूती हुई,
उन्मुक्त अल्हड़
मंद शीतल वायु की
जुड़वाँ सहेली !
मत करो इच्छा
समझने-जानने की
गूढ़ उलझी जटिल और अबूझ
पहेली !
चेतना हत
भूल कर
होना न सम्मोहित,
समर्पित;
स्पर्श पा
मधुमास का,
उसकी सुखद
मधु-श्वास का !
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(29) अनुभूत: अस्पर्शित
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ओ,
लहकती बहकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ !
अनुराग भर-भर
गुँजा फागुनी स्वर
न ठहरो
न गुज़रो
इधर से
बसन्ती हवाओ !
भटकती बहकती
बसन्ती हवाओ !
मुझे ना डुबाओ
उफ़नते उमड़ते
भरे पूर रस के
कुओं में, सरों में,
मधुर रास-रज के
कुओं में, सरों में,
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ।
ओ, बसन्ती हवाओ !
दहकती चहकती
बसन्ती हवाओ !
अभिशप्त
यह क्षेत्र वर्जित
सदा से,
न आओ इधर
यह विवश !
एक
सुनसान वीरान मन को
समर्पित
सदा से,
न आओ इधर
ओ, बसन्ती हवाओ !
गमकती खनकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ !
तप्त प्यासे
कुओं में, सरों में
नहीं यों
भिगोओ मुझे !
इन
अवश अंग
युग-युग पिपासित
कुओं में, सरों में
नहीं यों
भिगोओ मुझे !
ओ, बसन्ती हवाओ !
मचलती छलकती
बसन्ती हवाओ !
छुओ मत मुझे
इस तरह
मत छुओ !
यह
अननुभूत ओझल अस्पर्शित
सदा से !
न आओ इधर
यह
उपेक्षित अदेखा अचीन्हा
सदा से !
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(30) अतृप्ति: भेंट
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अब
क्या दे सकता हूँ तुम्हें —
एक गढ़ी-बनी
स्थिर मूर्ति के सिवा !
बिखरी विभूति के सिवा !
जो हूँ
बन चुका हूँ
ढल चुका हूँ,
प्रदत्त कोश की अधिकांश साँसें
गिन चुका हूँ,
फल चुका हूँ !
अब नहीं मुमकिन —
प्रयोग बतौर
तोडूँ-तराशूँ और,
अधबना रह जाएगा,
शेष न कह पाएगा !
ज़िन्दगी के इस चरण पर
कमज़ोर कंधों पर उम्र के
उतरता-डूबता सूरज मैं
क्या दे सकता हूँ तुम्हें
ऊष्मा की
पहचानी मांसल अनुभूति के सिवा।
तुम हो
उफ़नते अतल सागर की तरह,
जलती धधकती वासनाएँ तुम्हारी
अनापे अम्बर की तरह,
तुम्हें क्या दे सकता हूँ भला
हे भाविनी,
कल्पना प्रभूति के सिवा,
उत्तेजना आपूर्ति के सिवा !
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(31) इतवार का एक दिन
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पूरा दिन
बीत गया इन्तज़ार में,
तमाम लोगों के इन्तज़ार में।
नहीं आया अप्रत्याशित भी,
नहीं टकराया अवांछित भी।
बीत गया
पूरा दिन,
लमहे-लमहे गिन।
इतवार इस बार का
नहीं लाया कोई समाचार
अच्छा या बुरा
रुचिकर या क्षुब्धकारक।
निरन्तर ऊहापोह में
गुज़र गया पूरा दिन।
इस या उस के
दर्शन की चाह में,
घूमते-टहलते
कमरों की राह में।
बस, सुबह-सुबह
आया अख़बार,
और दूध वाले ने
प्रातः - सायं बजायी घंटी
नियमानुसार।
अन्यथा कहीं कोई
पत्ता तक न खड़खड़ाया,
एक पक्षी तक
मेरे आकाश के इर्द-गिर्द
नहीं मँडराया।
बीत गया पूरा दिन
इन्तज़ार बन,
मूक लाचार बन।
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(32) वास्तविकता
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ज़िन्दगी ललक थी; किन्तु भारी जुआ बन गयी,
ज़िन्दगी फ़लक थी; किन्तु अंधा कुआँ बन गयी,
कल्पनाओं रची, भावनाओं भरी, रूप - श्री
ज़िन्दगी ग़ज़ल थी; बिफर कर बददुआ बन गयी !
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(33) लाचारी
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आरोपित अचाही ज़िन्दगी जी ली,
हरक्षण, हर क़दम शर्मिन्दगी जी ली,
हम से पूछते इतिहास अब क्या हो
दुनिया की जहालत गन्दगी जी ली !
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(34) विरुद्ध
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असलियत हम छिपाते रहे उम्र भर
झूठ को सच बताते रहे उम्र भर,
आप-बीती सुनायी, कहानी बता
दर्द में गुनगुनाते रहे उम्र भर !
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(35) ‘कृतकार्य’
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जी, वाह ! क्या वाहवाही मिली,
ता-उम्र कोरी तबाही मिली,
दौलत बहुत, दर्द की, बच रही
सच, ज़िन्दगी भारवाही मिली !
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(36) विश्लेषण
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गँवाया ही गँवाया,
कुछ नहीं पाया,
ज़िन्दगी में कुछ नहीं पाया !
जो बच पाये
नुकीले शूल हैं,
जो उठा लाये
बेरंग बासी फूल हैं,
पास में
देखो धूल
कितनी धूल है !
राह पर
हर मोड़ पर,
घर में
या कि बाहर,
हाट में, बाज़ार में
विश्वास के हाथों
सदा लुटते रहे !
अपनों से
परायों से
हमेशा
छल-कपट की
तेज़ धारों की कटारों के तले
बेहद सरलता से
अरे, कटते रहे !
लोगों की
तमाम रची-बुनी
चतुराइयों-चालाकियों से
उनकी हीनताओं-क्षुद्रताओं से
बहुत चाहा —
बचना;
किन्तु
ओढ़ी सौम्यता शालीनता की
आरोपित मुखौटों की
कठिन
बेहद कठिन
पहचानना रचना !
उनके छद्म से बचना !
नहीं है शेष
कोई भी विरासत,
ढह गयी
जो
श्रम-पसीने से
बनायी थी इमारत !
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(37) उपलब्धि
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उछलती-कूदती
विपरीत
लहरों से
निरन्तर जूझते,
जीवन-मरण के बीच
अस्थिर झूलते,
दिन रात
कितनी कश-म-कश के बाद
कूल मिला !
धीरज से
कठिनतम साधना के बाद,
जीवन-सत्त्व-स्पन्दन भर
जड़ों को सींच
टटका
मुसकराता
एक
फूल खिला !
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(38) एक साध: अधूरी
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जी करता है
आज का दिन
ज़िन्दगी की कश-म-कश से
हटकर
बंद कमरे में
सोए-सोए गुज़ार दूँ !
न जाने
कितने बरसों से
निश्चिन्त बेख़बर हो
आदिम-राग का, अनुराग का
अहसास भर
सोया नहीं !
जी करता है
आज का दिन
निश्चेष्ट शिथिल चुप रह
चित्रमाला में अतीत की
खोए-खोए गुज़ार दूँ !
न जाने
कितने बरसों से
उजड़े गाँवों की राहों में
छूटे नगरों की बाँहों में
खोया नहीं !
जी करता है
आज का दिन
सारे वादे, काम, प्रतिज्ञाएँ
भूल कर
गंगा की लहरों-सी
तुम्हारी याद में
रोए-रोए गुज़ार दूँ !
न जाने
कितने बरसों से
तुम्हारी तसवीर से
रू-ब-रू हो
रोया नहीं !
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(39) कृतज्ञता
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छोड़ दो
यह ठोर
मन !
किसका इन्तज़ार यहाँ
अब और
मन !
ढल गया दिन
उतर आयी शाम,
घिर रहा
चारों दिशाओं में
अँधेरा
घनेरा !
करो स्वीकार
मन !
यह अकेलापन,
बड़े सुख से
करो स्वीकार
मन !
हे ख़ुदा !
शुक्रगुज़ार,
तेरा
बेहद
शुक्रगुज़ार !
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(40) अपूर्ण
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कुछ रह गया
अनकहा !
क्षेपक कहें
या चुप रहें
कुछ रह गया
अन सहा !
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रचना-काल : सन् 1977-1986
प्रकाशन-वर्ष : सन् 1990
प्रकाशक : सर्जना प्रकाशन, ग्वालियर — 474 002 [म.प्र.]
सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 3],
: ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 3] में।
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