शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ==== संवर्त

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ==== संवर्त
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कविताएँ

1 संवर्त
2 अपेक्षित
3 समवेत
4 सुलक्षण
5 पुनरपि
6 पातालपानी की उपत्यका से
7 हेमन्ती धूप
8 हिमागम
9 तिघिरा की एक शाम (1)
10 तिघिरा की एक शाम (2)
11 अनभिव्यक्त
12 प्रश्न
13 विक्षोभ
14 अप्रत्याशित
15 नव वर्ष
16 मेरे ही लिए
17 सुकर: दुष्कर
18 दिनान्त
19 अनुदर्शन
20 जी लिया बसन्त
21 अनुशय
22 नियति
23 भिक्षा
24 विश्वास
25 जिजीविषु
26 जीवन प्राप्त जो
27 मोह-भंग
28 दृष्टिकोण
29 वेदना: एक दृष्टिकोण
30 संत्रस्त
31 वस्तु-स्थिति
32 उपलब्धि
33 स्वाँग
34 विपर्यस्त
35 ईर्ष्या
36 आत्म-बोध
37 वर्तमान
38 ऊहापोह
39 परिवेश के प्रति
40 वात्याचक्र
41 जीवन-संदर्भ
42 श्रमजित
43 संकल्प
44 आश्वस्त
45 विचित्र
46 वैषम्य
47 परिणति
48 प्रतिबद्ध
49 योगदान
50 नवोन्मेष

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(1) संवर्त
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पथ का मोड़
भाता है मुझे !

बहुत लम्बी डगर से
ऊब जाता हूँ,
अकारण ही
थकावट की शिथिलता में
न समझे डूब जाता हूँ !

सनातन
एक-से पथ पर
नयापन जब नज़र आता नहीं
मुझसे चला जाता नहीं !

तभी तो
हर नवागत मोड़ का
स्नेहिल
हृदयहारी
भाव-भीना
मुग्ध स्वागत !

इसमें हर्ज़ क्या है —
पथ का मोड़
यदि इतना सुहाता है मुझे ?
पथ का मोड़ भाता है मुझे !

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(2) अपेक्षित
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सरस अधरों पर
प्रफुल्लित कंज-सी
मुसकान हो !
या उमंगों से भरा
मधु-गान हो !

मुसकान की
मधु-गान की
अभिशप्त इस युग में कमी है !
अत्यधिक अनवधि कमी है !
मात्र —
नीरव नील होठों पर
बड़ी गहरी परत
हिम की जमी है !

प्रत्येक उर में
वेदना की खड़खड़ाती है फ़सल,

आह्लाद-बीजों का नहीं अस्तित्व,
केवल झनझनाते अंग,
मानव —
चित्र-रेखा-वत्
खोजता सतरंग !

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(3) समवेत
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संगीत-सहायिनी
सुकण्ठी

जीवन की तृष्णा को
गा !

सप्त-सुरों से
स्पन्दित हो
अग-जग,
संगीतक बन जाये
सूना मग !

ला —
सुरबहार-वीणा-मृदंग
विविध वाद्य ला
बजा,
सुकण्ठी गा !
जीवन की तृष्णा को
गा !

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(4) सुलक्षण
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सुबह से आज
किस अव्यक्त से
उर उल्लसित !

सहसा
सुभाषित राग,
दायीं आँख
रह-रह कर
विवश स्पन्दित !

दूर कलगी पर
बिखरती
अजनबी गहरी सुनहरी आब,
पहली बार
गमले में खिला है
एक लाल गुलाब !
न जाने किस
अजाने
आत्म-शुभ सम्भाव्य की
यह भूमिका !
रोमांच पुष्पों से
लदी तन-यूथिका !
शायद,
आज तुमसे भेंट हो !

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(5) पुनरपि
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मानस में
अप्रत्याशित अतिथि से तुम
अचानक आ गये !
माना —
नहीं था पूर्व-प्रस्तुत
आर्द्र अगवानी सजाये,
हार कलियों का लिए,
हर द्वार बन्दनवार बाँधे,
प्रति पलक
उत्सुक प्रतीक्षा में !

तुम्हीं प्रिय पात्र,
अभ्यागत !
बताओ —
नहीं हूँ क्या
सदा से स्वागतिक मैं तुम्हारा ?

हर्ष-पुलकित हूँ,
अकृत्रिम भूमि पर मेरी
सहज बन
अवतरित हो तुम !
सुपर्वा
धन्य हूँ,
कृत-कृत्य हूँ !

पर, यह सकुच कैसी ?
रुको कुछ देर
अनुभूत होने दो
अमित अनमोल क्षण ये !

जानता हूँ —
तुम प्रवासी हो,
अतिथि हो
चाहकर भी
मानवी आसक्ति के
सुकुमार बन्धन में
बँधोगे कब ?

अरे फिर भी....
तनिक... अनुरोध
फिर भी ....!

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(6) पातालपानी की उपत्यका से
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तुम्हारे अंक में
विश्रांति पाने आ गया
भटका प्रवासी
मैं !

अनावृत वक्ष-ढालों पर
सहज उतरूँ
सबल चट्टान रूपी बाँह दो,
शीतल अतल-की छाँह दो !
तप्त अधरों को
सरस जलधार का सुख-स्पर्श दो,
युग मूक मन को हर्ष दो,
अतृप्त आत्मा को
सुखद अनुराग-संगम बोध दो !
एकांत में
कल-कल मधुर संगीत से
दो स्वप्न का अधिवास बहुरंगी !
ओ गहन घाटी !
आ गया हूँ मैं
तुम्हारा प्राण
चिर-संगी !

कुछ क्षणों को बाँध लूँ
अल्हड़ तुम्हारी धार से
बेबस उमड़ती भावना का ज्वार !
फिर इस जन्म में
इस ओर
आना हो, न हो !

क्या मुझ प्रवासी का
नहीं इतना तनिक अधिकार
छोड़ जाऊँ जो
प्यार सूचक
चिन्ह ही
दो .. चार .... ?

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(7) हेमन्ती धूप
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कितनी सुखद है
धूप हेमन्ती !

सुबह से शाम तक
इसमें नहाकर भी
हमारा जी नहीं भरता,
विलग हो
दूर जाने को
तनिक भी मन नहीं करता,
अरे, कितनी मधुर है
धूप हेमन्ती !

प्रिया-सम
गोद में इसकी
चलो, सो जायँ,
दिन भर के लिए खो जायँ !

कितनी काम्य
कितनी मोहिनी है
धूप हेमन्ती !
कितनी सुखद है
धूप हेमन्ती !

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(8) हिमागम
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सच, अब नहीं !
सौगन्ध ले लो
अब नहीं !
अवहेलना-अवमानना
हरगिज़ नहीं !
ज्योतिर्मयी
सुखदा
सुनहरी धूप
आओ !

थपथपाओ मत,
खुले हैं
द्वार, वातायन, झरोखे सब,
उपेक्षा अब नहीं
सौगन्ध ले लो।
अब नहीं !

प्रतीक्षातुर तुम्हारा
भेंट लो;
प्रति अंग को
उत्तेजना दो,
उष्णता दो !
ओ शुभावह धूप
अंक समेट लो,
हेमाभ कर दो !

ओढ़ लूँ तुमको
बहे जब तक हिमानिल,
मन कहे तब-तक
दिवा-स्वप्निल तुम्हारे लोक में
खोया रहूँ,
जी भर दहूँ, जी भर दहूँ !
तन रश्मियाँ भर दो !

सुनहरी धूप
आओ !
अब नहीं
अवहेलना-अवमानना,
हरगिज़ नहीं !
सौगन्ध ले लो !

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(9) तिघिरा की एक शाम (चित्र : एक)
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तिघिरा के शान्त जल में
तुम्हारा गोरा मुखड़ा
रहस्य भरे
निर्निमेष मुझे देखता
तैर रहा है !
सुडौल मांसल गोरी बाँह उठा
अरुणिम करतल पर हिलती
चक्रोंवाली अंगुलियाँ
दूर तिघिरा के वक्षस्थल से
मुझे बुलातीं !

मैं —
जो तट पर।
देख रहा छबि
बाइनाक्युलर लगाये
वासना बोझिल आँखों पर !

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(10) तिघिरा की एक शाम (चित्र : दो)
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तिघिरा के सँकरे पुल पर
नमित नयन
सहमी-सहमी
तुम !

तेज़ हवा में लहराते केश,
सुगठित अंगों को
अंकित करता
फर-फर उड़ता
कांजीवरम् की साड़ी का फैलाव,
दो फ़ुर्तीले हाथों का
कितना असफल दुराव !

हौले-हौले
चलते
नंगे गदराए गोरे पैर,
सपने जैसी
अद्भुत रँगरेली रोमांचक सैर !

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(11) अनभिव्यक्त
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व्यक्ति -
अपनी अकल्पित हर व्यथा की
सर्व-परिचित परिधि !

किंचित् अनाकृत अतिक्रमण
अपने-पराये के लिए रे
अतिकथा,
अरुचिकर अतिकथा !
अनुभूत जीवन-वेदना
बस
बाँध रक्खो
पूर्व निर्धारित परिधि में,
व्यक्ति के परिवेश में,
अवचेतना के देश में।

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(12) प्रश्न
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किसने
अनास्था के हज़ारों बीज
मानस-भूमि पर
छितरा दिये ?

किसने
हमारी अचल निष्ठा के
विरल अनमोल माणिक
संशयावह राह पर
बिखरा दिये ?

रीती अश्रद्धा के
नुकीले शूल
चरणों में चुभा
विश्वास की
अक्षय धरोहर छीन ली ?

किसने
अचानक
खोखले दर्शन-कथन से,
सत्य
अनुभव-सिद्ध
जीवन-मान्यताओं की
अकुण्ठित ज्ञान-गुरुता हीन की ?

किसने
विनाशक आँधियों के वेग से
विचलित किये
उन्नत गगन-चम्बी
हमारी लौह-आस्था के शिखर ?

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(13) विक्षोभ
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इच्छाएँ हमारी —
त्रस्त हैं,
उद्विग्न हैं,
आकार पाने के लिए !

आसंग इच्छाएँ —
जिन्हें हमने
बड़े ही यत्न से
गोपन-सुरक्षित स्थान पर रक्खा सदा
वांछित अनागत की प्रतीक्षा में !

विविक्षित भावनाएँ
आकुलित हैं,
आक्रमित हैं,
वास्तविक अनुभूति का
आधार पाने के लिए !

पर, वायुमण्डल में
न जाने किस तरह की
अश्रुवाही वाष्प है परिव्याप्त ;
जिससे हम विवश हैं
मूक रोने के लिए,
आक्रोश तृष्णा भार
ढोने के लिए !

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(14) अप्रत्याशित
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सदा.... सदा की तरह
नव मेघों के उपहारों की
लेकर बाढ़
आया आषाढ़ ;
पर, तीव्र पिपासाकुल चातक ने
कुछ न कहा,
सूनी-सूनी आँखों से
बस देखता रहा,
आगत का स्वागत नहीं किया,
जीवन-रस नहीं पिया !

सदा....सदा की तरह
झर-झर सावन बरसा,
रतिकर कंपित वक्षस्थल ले
उमड़ी / तड़पीं
श्याम घटाएँ
हरित सजल आँचल फैलाये,
पर, नृत्य मयूरों ने नहीं किया,
भादों बीत गया नीरस
मौन गगन ने
कजली गीतों का स्वर नहीं दिया।

सदा... सदा की तरह
आयीं शारद-ज्योत्स्ना रातें
शीतल।
याद दिलाने
मांसल विधु-वदनी की बातें !
पर, शुक्लाभिसारिका
निज गृह से नहीं हिली,
पथ —
सुनसान बनाये
प्रति निशि जागा,
शान्त सरोवर में
नहीं मोरपंखी कहीं चली !

सदा...सदा की तरह
लह-लह मधु-माधव आया,
नव पल्लव
रंग-बिरंगे पुष्पों के गजरे लाया
पर, वासन्ती नहीं खिली,
मधुकण्ठी की पीड़ा भी नहीं सुनी !

बोझिल तिथियों का,
धूमिल स्मृतियों का,
एक बरस
बी...त...ग...या...!

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(15) नव वर्ष
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हे नव वर्ष !
तुम्हारा स्वागत-सत्कार
चाहते हुए भी
न कर सका !

तुम्हारे शुभागमन के पूर्व
कई दिनों से
विविध आयोजनों की
रूपरेखा बनाने का विचार
मन में आता रहा,
न जाने
क्या-क्या अभिनव-अनूठा समाता रहा ;
पर, कार्यरूप में
तनिक भी
परिणत न कर सका उसे !

हे नव वर्ष !
तुम आ गये
बिना किसी धूमधाम के ?

तुम्हें प्यार भरी भुजाओं में
चाहते हुए भी
न भर सका !

हे नव वर्ष !
तुम सचमुच
कितने उदास हो रहे होगे !
तुम्हारे अभिनन्दन में
इस बार
एक क्या अनेक कविताएँ
लिखना चाहते हुए भी
एक पंक्ति भी तुम्हें
समर्पित न कर सका !

अरे, यह क्या हुआ ?
कुछ भी तो स्मरणीय विशिष्ट
घटित हो जाता —
जीवन-नाटक का
मंगलाचरण
या
पटाक्षेप !
पर, कुछ भी तो नहीं हुआ ;
मात्र पूर्वाभ्यास का बोध होता रहा !

हे नव वर्ष !
तुम्हें जीवन-क्रमणिका में
महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने की साध लिए
जागता... सोता रहा !
चाहते हुए भी
न जी सका,
न मर सका !

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(16) मेरे ही लिए
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शिशिर की
मूक ठण्डी रात —
मेरे ही लिए !

सितारे सब अपरिचित
वृक्ष सोये
सामने बस एक
तम का गात —
मेरे ही लिए !

न जानें
किन अक्षम्य अभूत पापों का
कुफल ;
मधुलोक खोया
हर मनुज,
पर, मात्र मैं —
परिश्रान्त विह्नल !

यह अकेली स्तब्ध
बोझिल
हिम ठिठुरती रात —
मेरे ही लिए !

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(17) सुकर: दुष्कर
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महज़
दिन बिताना सरल है,
जीना कठिन !

ज़िन्दगी को काटना
कितना सहज है !

खण्डित व्यक्तित्व के
धागों / रेशों को
सहेजना
सँवारना
सीना कठिन !

केवल
समय-असमय
उगलने को गरल है
पीना कठिन !
महज़
दिन बिताना सरल है
जीना कठिन !

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(18) दिनान्त
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आज का भी दिन
हमेशा की तरह
चुपचाप बीत गया !
अनिच्छित असह
ब्राह्ममुहूर्त का कर्कश
अलार्म बजा,
दिनागम की खुशी में
एक पक्षी भी न चहका !

भोर
घर-घर बाँट आयी स्वर्ण !
मेरे बन्द द्वारों पर
किसी ने भी
न दस्तक दी
न धीरे से किसी ने भी
पुकारा नाम !

प्रौढ़ा दोपहर
प्रत्येक की दैनन्दिनी में
लिख गयी
विश्रान्ति के क्षण ;
मात्र मुझको
ऊब
केवल ऊब !

अलसाया शिथिल
अब देखता हूँ
आ रही सन्ध्या
अरुणिमा,
तुम भला क्या दे सकोगी ?
मौन उत्तर था —
‘अँधेरा....
घन अँधेरा !’

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(19) अनुदर्शन
============

उड़ गये
ज़िन्दगी के बरस रे कई,
राग सूनी
अभावों भरी
ज़िन्दगी के बरस
हाँ, कई उड़ गये !

लौट कर
आयगा अब नहीं
वक़्त
जो —
धूल में, धूप में
खो गया,
स्याह में सो गया !

शोर में
चीखती ही रही ज़िन्दगी,
हर क़दम पर विवश,
कोशिशों में अधिक विवश !

गा न पाया कभी
एक भी गीत मैं हर्ष का,
एक भी गीत मैं दर्द का !

गूँजता रव रहा
मात्र :
संघर्ष....संघर्ष... संघर्ष !
विश्रान्ति के
पथ सभी मुड़ गये !
ज़िन्दगी के बरस,
रे कई
देखते...देखते
उड़ गये !

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(20) जी लिया बसन्त
================

हमने भी
जी लिया बसन्त !

सुना था —
बसन्त में फूल खिलते हैं,
हर डाल कोंपलों
नव पल्लवों से लद जाती है,
नव-रस से भर जाती है !

बसन्त में
मदिर-मधुर भावनाओं के
फूल खिलते हैं,
सारी सृष्टि
रंग-बिरंगे परिधानों से सज जाती है,
अन्तर में विविध स्वर
अनायास बज उठते हैं,
सब तरफ़ अजानी झंकारों की गूँज
लहरती है
छा जाती है !
हर सुनसान
अभिनव स्पन्दन पा जाता है,
हर अंधकार
आशा के स्वर्णिम आलोक से
जगमगा जाता है !
हर श्लथ-निश्चेष्ट हृदय
अपरिचित उमंगों से
सिहरता
कसमसाता है !

हर अधर
अभोगे दर्द की अनुभूति पा
फड़फड़ाता है
गुनगुनाता है !
हाथ
कल्पना के उच्चतम शिखरों को
छू लेते हैं !

पर, हमने, यह सब,
कुछ भी तो न जाना,
कुछ भी तो न देखा !
जीवन की कश-म-कश में
बीत गया बसन्त !
हमने भी जी लिया बसन्त !

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(21) अनुशय
============

हँसकर और रोकर
रे, बिता दी
ज़िन्दगी हमने,
जी न पाये !

जागकर दिन
रात सो कर
हाँ, बिता दी
ज़िन्दगी हमने,
जी न पाये !

होश में रह
या कि हो बेहोश
कैसे यह
बिता दी
ज़िन्दगी हमने ?
जी न पाये !

पाकर तनिक
पर, सब गँवाकर
हा, बिता दी
ज़िन्दगी हमने,
जी न पाये !

तरसकर / तड़पकर
बनते-बिगड़ते
मूक-मुखरित
एक यदि संगत —
असंगत अन्य
कुछ सपने निरखते ही
बिता दी
ज़िन्दगी हमने,
जी न पाये !

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(22) नियति
============

संदेहों का धूम भरा
साँसें
कैसे ली जायँ !

अधरों में
विष तीव्र घुला
मधुरस
कैसे पीया जाय !

पछतावे का ज्वार उठा
जब उर में
कोमल शय्या पर
कैसे सोया जाय !

बंजर धरती की
कँकरीली मिट्टी पर
नूतन जीवन
कैसे बोया जाय !

============
(23) भिक्षा
============

संपीडित अँधेरा
भर दिया किसने
अरे !
बहूमूल्य जीवन-पात्रा में मेरे ?
एक मुट्ठी रोशनी
दे दो
मुझे !

संदेह के
फणधर अनेकों
आह !
किसने
गंध-धर्मी गात पर
लटका दिये ?

विश्वास-कण
आस्था-कनी
दे दो
मुझे !

एक मुट्ठी रोशनी
दे दो
मुझे !

============
(24) विश्वास
============

जीवन में
पराजित हूँ,
हताश नहीं !

निष्ठा कहाँ ?
विश्वासघात मिला सदा,
मधुफल नहीं,
दुर्भाग्य में
बस
दहकता विष ही बदा !

अभिशप्त हूँ,
पग-पग प्रवंचित हूँ,
निराश नहीं !

क्षणिक हैं —
ग्लानि
पीड़ा
घुटन !
वरदान समझो
शेष कोई
मोह-पाश नहीं !

============
(25) जिजीविषु
============

गहरा अँधेरा
साँय....साँय पवन,
भवावह शाप-सा
छाया गगन,
अति शीत के क्षण !

पर, जियो इस आस पर —
शायद कि कोई
एक दिन
बाले रवि-किरण-सा
राग-रंजित
हेम मंगल-दीप !

सुनसान पथ पर
मूक एकाकी हृदय तुम,
भारवत् तन
व्यर्थ जीवन !

पर, चलो इस आस पर —
शायद किसी क्षण
चिर-प्रतीक्षित
अजनबी के
चरण निःसृत कर उठें संगीत !

खो गया मधुमास,
पतझर मात्र पतझर ;
फूल बदले शूल में
सपने गये सन धूल में !

ओ आत्महंता !
द्वार-वातायन करो मत बंद,
शायद —
समदुखी कोई
भटकती ज़िन्दगी आ
कक्ष को रँग दे
सुना स्वर्गिक सुधाधर गीत !

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(26) जीवन प्राप्त जो
===============

जीने योग्य
जीवन के सुनहरे दिन —
सुकृत वरदान-से,
आनन्दवाही गान-से,
मधुमय-सरस-स्वर-गूँजते दिन
आह ! जीने योग्य !
हर पल
हर्ष पीने योग्य !

जीवन के
सतत प्रतिकूलता के दिन,
उदासी-खिन्नता
अति रिक्तता से सिक्त
बोझिल दिन —
अशुभ अभिशाप-से,
विष-दंश-वाही-ताप-से,
कटु विद्ध दुर्भर दिन
आह ! जीने योग्य !
हर पल
मर्ष पीने योग्य !

जीवन प्राप्त जो —
अच्छा
बुरा
अविराम जीने के लिए !
अनिवार्य जीने के लिए !

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(27) मोह-भंग
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स्वीकार शायद
जो कभी भी था न
तुमको
भ्रांति उस अधिकार की
यदि आज
मानस में प्रकाशित हो गयी
सुन्दर हुआ
शुभकर हुआ !

अस्थिर
प्रवंचित मन !
न समझो —
प्राप्य
जीवन की
बड़ी अनमोल अति दुर्लभ
धरोहर खो गयी !

मूच्र्छा नहीं,
निश्चय
सजगता।
मोह का कुहरा नहीं,
परिज्ञान
जीवन-वास्तविकता।

अर्थ जीवन को मिलेगा अब
नये आलोक में,
उद्विग्न मत होना तनिक भी
शोक में !

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(28) दृष्टिकोण
============

अतीत का मोह मत करो,
अतीत —
मृत है !
उसे भस्म होने दो,
उसका बोझ मत ढोओ
शव-शिविका मत बनो !
शवता के उपासक
वर्तमान में ही
एक दिन
स्वयं निश्चेष्ट हो रहेंगे
अनुपयोगी
अवांछित
अरुचिकर !

जो व्यतीत है —
अस्तित्वहीन है !
वह वर्तमान का नियंत्रक क्यों हो ?
वह वर्तमान पर आवेष्टित क्यों हो ?
वर्तमान को
अतीत से मुक्त करो,
उसे सम्पूर्ण भावना से
जियो, भोगो !
वास्तविकता के
इस बोध से —
कि हर अनागत
वर्तमान में ढलेगा !
अनागत —
असीम है !

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(29) वेदना: एक दृष्टिकोण
===================

हृदय में दर्द है
तो मुसकराओ !

दर्द यदि
अभिव्यक्त —
मुख पर एक हलकी-सी
शिकन के रूप में भी,

या सजगता की
तनिक पहचान से उभरे
दमन के रूप में भी,

निंद्य है !
धिक् है !
स्खलित पौरुष्य !

उर में वेदना है
तो सहज कुछ इस तरह गाओ
कि अनुमिति तक न हो उसकी
किसी को !

सिक्त मधुजा कण्ठ से
उल्लास गाओ !
पीत पतझर की
तनिक भी खड़खड़ाहट हो नहीं
मधुमास गाओ !
सिसकियों को
तलघरों में बन्द कर
नव नूपुरों की
गूँजती झनकार गाओ !
शून्य जीवन की
व्यथा-बोझिल उदासी भूलकर
अविराम हँसती गहगहाती
ज़िन्दगी गाओ !
महत् वरदान-सा जो प्राप्त
वह अनमोल
जीवन-गंधमादन से महकता
प्यार गाओ !

यदि हृदय में दर्द है
तो मुसकराओ !
दूधिया
सितप्रभ
रुपहली
ज्योत्स्ना भर मुसकराओ !

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(30) संत्रस्त
============

दृष्टि-दोषों से सतत संत्रस्त
अर्थ-संगति हीन,
अद्भुत,
सैकड़ों पूर्वाग्रहों से ग्रस्त
हम, सन्देह के गहरे तिमिर से घिर
परस्पर देखते हैं
अजनबी से !

और...
अनचाहे
विषैले वायुमण्डल में
घुटन के बोझ से
निष्कल तड़पते जब —

घहर उठता तभी
अति निम्नगामी
क्षुद्रता का सिन्धु,
अनगिनत
भयावह जन्तुओं से युक्त !
मनुजोचित सभी
शालीनता के बंधनों से मुक्त !

==============
(31) वस्तु-स्थिति
==============

सर्वत्र
कड़वाहट सुलभ
दुर्लभ मधुरता !

सर्वत्र
घबराहट प्रकट
जीवट विरलता !

सर्वत्र
झुलझलाहट-प्रदर्शन
लुप्त स्थिरता !

सर्वत्र
आडम्बर-बनावट
दूर कोसों वास्तविकता !

============
(32) उपलब्धि
============

अप्राप्य रहा —
वांछित,
कोई खेद नहीं।

तथाकथित
आभिजात्य गरिमा के
अगणित आवरणों के भीतर
नग्न क्षुद्रता से परिचय,
निष्फलता की
उपलब्धि !
कोई खेद नहीं।

सहज प्रकट
तथाकथित
निष्पक्ष-तटस्थ महत् व्यक्तित्व का
अदर्शित अभिनय;
असफलता की
उपलब्धि !
कोई खेद नहीं।

============
(33) स्वाँग
============

मुझे
कृत्रिम मुसकराहट से चिढ़ है !

कुछ लोग
जब इस प्रकार मुसकराते हैं
मुझे लगता है
डसेंगे !
अपने नागफाँस में कसेंगे !

यही
अप्रिय मुसकराहट
शिष्टाचार का जब
अंग बन जाती है,

कितनी फीकी
नज़र आती है !
मुझे
इस कृत्रिम फीकी मुसकराहट से
चिढ़
बेहद चिढ़ है !

============
(34) विपर्यस्त
============

बुद्धि के उच्चतम शिखरों तक पहुँचे
हम
विज्ञान युग के प्राणी हैं
महान
समुन्नत
सर्वज्ञ !

हमारे लिए
जीवन के
सनातन सिद्धान्त
शाश्वत मूल्य
अर्थ-हीन हैं !

हमारे शब्द-कोश में
‘हृदय’
मात्रा एक मांस-पिण्ड है
जो रक्त-शोधन का कार्य करता है
तन की समस्त शिराओं को
ताज़ा रक्त प्रदान करता है,
उसकी धड़कन का रहस्य
हमारे लिए नितान्त स्पष्ट है,
कमज़ोर पड़ जाने पर
अथवा
गल-सड़ जाने पर
हम उसको बदल भी सकते हैं।
हृदय से सम्बन्धित
पूर्व-मानव का
समस्त राग-बोध
उसके
समस्त कोमल-मधुर उद्गार
हमारे लिए
उपहासास्पद हैं !

हमारे लिए
पूर्व-मानव की
पारस्परिक प्रणय भावनाएँ
विरह-वियोग जनित चेष्टाएँ
सब
बचकानी हैं
अस्वस्थ हैं
निरर्थक हैं !

यह हमारे लिए
मानव इतिहास में
समय का सबसे बड़ा अपव्यय है !

हमारे लिए
आकर्षण —
इन्द्रिय सुख की कामना का पर्याय !
हाव —
आंगिक अभिनय का अभ्यासगत स्वरूप,
नाट्य-शालाओं में
प्रवेश प्राप्त कर
सहज ही ग्राह्य!
प्रेमालाप —
कृत्रिम
चमत्कारपूर्ण वाणी-विलास !
मिलन —
मात्रा स्थूल इन्द्रिय सुख के निमित्त !
स्मृति —
ढोंग का दूसरा नाम
या
अभाव की पीड़ा !
प्रेम —
भ्रम / धोखा
अस्तित्वहीन
‘ढाई आखर’ का शब्द-मात्र !

============
(35) ईर्ष्या
============

ईर्ष्या
करो नहीं,
ईर्ष्या से
डरो नहीं !

किसी की ईर्ष्या-अभिव्यक्ति
संकेतित हो
वाचिक हो
क्रियात्मक हो
तुम्हारी सफलता
बोधिका है !
आत्म-गहनता
शोधिका है !

उससे त्रस्त क्यों होते हो ?
इतने अस्तव्यस्त क्यों होते हो ?

ईर्ष्या
जितनी स्वाभाविक है
उसका दमन
उतना ही आवश्यक है।

ईर्ष्या का
दलन करो,
वरण नहीं !

ईर्ष्या-आश्रय को
सन्तुलित करो,
प्रगति-प्रेरित करो।
उसे विकास के
अवसर दो,
उसके हलके मानस में
गरिमा भर दो।

फिर कोई ईर्ष्या नहीं करेगा,
फिर कोई ईर्ष्या से नहीं डरेगा।

जिस दिन —
मानवता
ईर्ष्या के घातों-प्रतिघातों को
सह जाएगी,
उस दिन से —
वह मात्र
संचारी-भाव-विवेचन में
महत्त्वहीन हो
काव्य-शास्त्र का साधारण विषय
रह जाएगी !

============
(36) आत्म-बोध
============

हम मनुज हैं —
मृत्तिका की सृष्टि
सर्वोत्तम
सुभूषित,

प्राणवत्ता चिन्ह
सर्वाधिक प्रखर,
अन्तःकरण
परिशुद्ध ;
प्रज्ञा
वृद्ध !

लघुता —
प्रिय हमें हो,
रजकणों की
अर्थ-गरिमा से
सुपरिचित हों,
परीक्षित हों।

मरण-धर्मा
मृत्यु से भयभीत क्यों हो ?
चेतना हतवेग क्यों हो ?
दुर्मना हम क्यों बनें ?
सदसत् विवेचक
मूढ़ग्राही क्यों बनें ?

============
(37) वर्तमान
============

युग
अराजकता-अरक्षा का,
सतत विद्वेष-स्वर-अभिव्यक्ति का,
कटु यातनाओं से भरा,
अमंगल भावनाओं से डरा !
धूमिल
गरजते चक्रवातों ग्रस्त !
प्रतिक्षण
अभावों-संकटों से त्रस्त !

युग
निर्दय विघातों का,
असह विष दुष्ट बातों का !
अभोगी वेदना का,
लुप्त मानव-चेतना का !

घोर
अनदेखे अँधेरे का !
अजनबी
शोर,
रक्तिम क्रूर जन-घातक
सबेरे का !

============
(38) ऊहापोह
============

प्रश्न —
अविकल स्थिर
अपनी जगह पर।
पंगु
सारी तर्कना,
विखण्डित
कल्पना !
अनिश्चित की शिलाओं तले
रोपित प्रश्न !
सूत्राभाव
पूर्व...उत्तर...सर्वत्र
ठहराव !

यह कश-म-कश
और कब तक ?
विवश मनःस्थिति
और कब तक ?
और कब तक
ओढ़े रहोगे प्रश्न ?
उलझी ऊबट सतह पर।

सब पूर्ववत्
अपनी जगह पर।

===============
(39) परिवेश के प्रति
===============

कितनी तीखी ऊमस से
परिपूर्ण गगन,
लहराती अग्नि-शिखाओं से
कितना परितप्त भुवन !
कितना क्षोभ-युक्त
भाराक्रांत
दमित
मानव-मन !
जीवन का
वातावरण समस्त
थका-हारा,
काराबद्ध !

आओ
इसको बदलें,
गतिमान करें,
मल्लार-राग से भर दें
जलवाह !
पवन-संघातों से
निःशेष करें
दिग्दाह !

============
(40) वात्याचक्र
============

अंधड़
आ रहा सम्मुख
उमड़ता
सनसनाता
वेगवाही
धूलि-धूसर !

कुछ क्षणों में
घेर लेगा बढ़
तुम्हारा भी गगन !
जागो उठो
दृढ़ साहसिक मन
हो सचेत-सतर्क !
थपेड़े झेलने का प्रण
अभी
तत्काल
निश्चय आत्मगत कर।

अंधड़ों की शक्ति
तुमको तौलनी है,
संकटों पर
आत्मबल सन्नद्ध हो
जय बोलनी है,
प्राण की सोयी हुई
अज्ञात-मेधा को सचेतन कर !

हिमालय-सम
सुदृढ़ व्यक्तित्व के सम्मुख
गरजता क्रूर अंधड़
राह बदलेगा !
मरण का तीव्र धावन
तिमिर अंधड़
राह बदलेगा !

==============
(41) जीवन-संदर्भ
==============

आओ
जीवन की गीता को
अभिनव संदर्भ प्रदान करें !
बदला
जब परिवेश मनुज का
आओ
नयी ऋचाओं का निर्माण करें !

नव मूल्यों को स्थापित कर
जीवन-धर्मी कविता के
अन्तर-बाह्य स्वरूपों को
अभिनव रचना दे !
जीवन्त नये आदर्शों की आभा दें !
जगमग स्वर्णिम गहने पहना दें !
जीवन की प्रतिमा को
नयी गठन
नव भाव-भंगिमा से सज्जित कर;
मानव को
चिर-इच्छित
संबंधों की गरिमा से
सम्पूरित कर
युग को महिमावान करें !
आओ
नव राहों के अन्वेषी बन
नूतन क्षितिजों की ओर
प्रवह प्रयाण करें !

============
(42) श्रमजित्
============

श्रम करेंगे तो —
हमारे स्वप्न सब साकार होंगे !
सुदृढ़ आधार होंगे !

उन्मुक्त हो,
सम्पन्नता सुख शान्ति के
नव लोक में
जीवन जिएंगे हम,
सभ्यता-संस्कृति वरण कर
ज्ञानमय आलोक में
प्रतिक्षण रहेंगे हम !
हमारी कल्पनाएँ मूर्त होंगी
श्रम करेंगे तो —
सतत ज्वाला उगलते
अग्नि-भूधर क्षार होंगे !
हमारे स्वप्न सब साकार होंगे !
श्रम करेंगे तो —
अभावों की गहनतम रिक्तता
भर जायगी,
हर हीनता को रौंद
श्रम-जल-धार
जीवन पुण्यमय कर जायगी !
श्रम करेंगे हम —
उपस्थित आज आगत के लिए,
भावी अनागत के लिए !
हम
वर्तमान-भविष्य के
अविजित
नियन्ता हो, नियामक हों !
विचक्षण
अभिलषित-जीवन-विधायक हों !

============
(43) संकल्प
============

शक्तिमत्व हो,
दीपाराधन हो !
मरणान्तक रावण की शर्तें
निविड़-तमिस्रा की पर्तें
टूटेंगी,
टूटेंगी !

कृत-संकल्पों के राम जगे
जन-जन के अन्तर में !
आग्नेय-अस्त्र
पुष्पक-मिग
संचालक उत्पन्न हुए
घर-घर में !
सीमाओं के प्रहरी
बने अजेय हिमालय,
मानवता की निश्चय जय !

दीपोत्सव हो,
दीपोत्सव हो !
ज्योति-प्रणव हो !
हर बार
तमस्र युगों पर
प्रोज्ज्वल विद्युत आभा
फूटेगी,
फूटेगी !

शक्तिमत्व हो,
दीपाराधन हो !
गर्विता अमा का
कण-कण बिखरेगा,
दीपान्विता धरा का
आनन निखरेगा !

============
(44) आश्वस्त
============

चैराहा हो
या सतराहा
किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं,
दिग्भ्रम होने का
भय मन पर आरूढ़ नहीं।

माना
पथ से इतनी पहचान नहीं है,
मंज़िल तक हो आने का
परिज्ञान नहीं है,
पर,
लक्ष्य-दृष्टि है साफ़ अगर
तो पढ़ लेगी
पथ पर अंकित —
क्रोशों की संख्या,
उत्तर-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
स्थित
नगरों के नाम सभी।
फिर —
चैराहों-सतराहों से
आगे बढ़ना
नहीं कठिन,
फिर —
चैराहों-सतराहों पर
होना नहीं मलिन।

नाना मत,
नाना शासन-पद्धतियाँ,
अगणित राहें,
अगणित नारे-झण्डे,
अनगिनती
आपस में तीव्र विरोधी आवाजें,
पर,
यदि युग को पढ़ सकने की
क्षमता है,
यदि जन-मन की धड़कन से
निज अन्तर की समता है,
तो असमंजस का प्रश्न न होगा,
निष्ठा निर्मूल न होगी,
चैराहों-सतराहों के मोड़ों से
पथ भूल न होगी !

============
(45) विचित्र
============

पृथ्वी का क्षेत्राफल
चाहे कितना भी हो,
हमें रहने को मिली है
यह कब्र जैसी
कोठरी !
जिसमें —
ज़िन्दा होने का
भ्रम होता है,
जिसमें —
ख़ुद को मुर्दा समझकर ही
बमुश्किल

जीया जा सकता है !
बरसाती रातों में
यह सोचना
कितना अद्भुत लगता है µ
मुर्दों की कब्रें
अच्छी हैं इससे
उनकी छतें तो नहीं टपकतीं ;
शव
धरती माँ की गोद में
आराम से तो सोते हैं !
हम तो गीले बिस्तर पर
रात भर जगते हैं,
तत्त्ववेत्ताओं जैसे
चुपचुप रोते हैं !

============
(46) वैषम्य
============

हर व्यक्ति का जीवन
नहीं है राजपथ —
उपवन सजा
वृक्षों लदा
विस्तृत
अबाधित
स्वच्छ
समतल
स्निग्ध !
सम्भव नहीं
हर व्यक्ति को
उपलब्ध हो
ऐसी सुगमता,
इतनी सुकरता।

सम दिशा
सम भूमि पर
आवास सबके हैं नहीं प्रस्थित,
एक ही गन्तव्य
सबका है नहीं
जब
अभिलषित।

कुछ को
पार करनी ही पडेंगी
तंग-सँकरी
कण्ट-कँकरीली
घुमावोंदार
ऊँची और नीची
जन-बहुल
अंधारमय
पगडण्डियाँ — गलियाँ
पसीने-धूल से अभिषिक्त,
प्रति पग पंक से लथपथ।

नहीं,
हर व्यक्ति का जीवन
सकल सुविधा सहित
आलोक जगमग
राजपथ !

जब भूमि बदलेगी,
मार्ग बदलेगा !

============
(47) परिणति
============

आजन्म
अपमानित-तिरस्कृत
ज़िन्दगी
पथ से बहकती यदि —
सहज;
आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
आशा-हत
सतत संशय-भँवर उलझी
पराजित ज़िन्दगी
अविरत लहकती यदि —
सहज;
आश्चर्य क्या है ?

आजन्म
वंचित रह
अभावों-ही-अभावों में
घिसटती ज़िन्दगी
औचट दहकती यदि —
सहज;
आश्चर्य क्या है ?

============
(48) प्रतिबद्ध
============

हम
मूक कण्ठों में
भरेंगे स्वर
चुनौती के,
विजय-विश्वास के,
सुखमय भविष्य
प्रकाश के,
नव आश के !

हर व्यक्ति का जीवन
समुन्नत कर
धरा को
मुक्त शोषण से करेंगे,
वर्ग के
या वर्ण के
अन्तर मिटा कर
विश्व-जन-समुदाय को
हम
मुक्त दोहन से करेंगे !

न्याय-आधारित
व्यवस्था के लिए
प्रतिबद्ध हैं हम,
त्रस्त दुनिया को
बदलने के लिए
सन्नद्ध हैं हम !

============
(49) योगदान
============

नयी फ़सल के लिए
प्राण श्रम-वारि-कण कुछ
समर्पित,
धरा की रगों को
विमल रक्त-कण कुछ
समर्पित !
सजल हो
सबल हो !
अभीप्सित जगत हेतु
बोया हुआ हर नवल बीज
रे पल्लवित हो,
सुफल हो !
मधुर रस सदृश
हर हृदय में
भरे भावना...कामना

इसलिए —
सृष्टि की साधना में
निवेदित
नयी चेतना के प्रवर स्वर !
निःसृत
लोक-हित-निष्ठ
आराधना के सुकर स्वर
समर्पित !

============
(50) नवोन्मेष
============

खण्डित पराजित
ज़िन्दगी ओ !
सिर उठाओ।
आ गया हूँ मैं
तुम्हारी जय सदृश
सार्थक सहज विश्वास का
हिमवान !

अनास्था से भरी
नैराश्य-तम खोयी
थकी हत-भाग सूनी
ज़िन्दगी ओ !
सिर उठाओ,
और देखो
द्वार दस्तक दे रहा हूँ मैं
तुम्हारे भाग्य-बल का
जगमगाता सूर्य तेजोवान !

ज़िन्दगी
इस तरह
टूटेगी नहीं !

ज़िन्दगी
इस तरह
बिखरेगी नहीं !

======================
रचना-काल : सन् 1962-1966
प्रकाशन-वर्ष : सन् 1977

प्रकाशक : लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद

सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 2],
‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 3]

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ----- संकल्प

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ----- संकल्प
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कविताएँ
--------------

1 सहभाव
2 अन्तर्ध्वन्सक
3 बाधाएँ चुनौती हैं
4 यथा-पूर्व
5 एकस्थ से हट कर
6 अब नहीं
7 प्रतीक्षक
8 मेरा देश
9 नहीं तो
10 हमारे इर्द-गिर्द
11 एक नगर और रात की चीखें
12 आकस्मिक
13 बस एक बार !
14 निकष
15 नियति
16 अन्तःशल्य
17 आत्म-कथा
18 अनचहा
19 समाधि-लेख
20 ग़लतफ़हमियों का बोझ
21 प्रक्रिया
22 पुनर्वार
23 प्रतिज्ञा-पत्र
24 भले ही
25 स्व-रुचि
26 टूटा व्यक्तित्व
27 जीवनी
28 अंध-काल
29 आओ जलाएँ
30 समता का गान
31 होली
32 विश्व-श्री
33 जनतंत्र-आस्था
34 गणतंत्र-स्मारक
35 प्रण

-----------------------------------------
(1) सहभाव
-----------------------------------------

आओ —
दूरियाँ
देशान्तरों की
व्यक्तियों की
अत्यधिक सामीप्य में
बदलें।
बहुत मज़बूत
अन्तर-सेतु
बाँधें !
आओ —
अजनबीपन
हृदय का
अनुभूतियों का
सांत्वना
आश्वास में
बदलें।
परस्पर मित्रता का
गगन-चुम्बी केतु
बाँधें !
आओ —
अविद्या-अज्ञता
धर्मान्तरों की
भिन्नता विश्वास की
समधीत सम्यक् बोध में
बदलें।
सुनिश्चित
विश्व-मानव-हेतु
साधें!

-----------------------------------------
(2) अन्तर्ध्वन्सक
-----------------------------------------

कौन है,
वह कौन है ?
जो —
हमारे स्वप्नों में
ख़लल डालता है,
हमारे
बनाये-सजाये
चित्रों को विकृत कर
बदल डालता है,
उनकी विराटता को
बौना कर देता है,
उनकी उन्मुक्तता में
कुण्ठा भर देता है !

वह कौन है ?
वह दुस्साहसी कौन है ?
जो —
हर संगत लकीर को
जगह-जगह से तोड़ कर
असंगत लिबास पहना देता है,

परिवेश की अर्थवत्ता छीन कर
अनर्गल वैशिष्ट्य से गहना देता है !
सही परिप्रेक्ष्य से
विस्थापित कर
हास्यास्पद भूमिकाओं की
चितकबरी प्लास्टर झड़ी
दीवारों पर
उल्टा टाँग देता है !

हमारे विश्वासों की
जीवन्त प्रतिमाओं को
खण्डित कर
कोलतारी स्वाँग देता है !

यह
किसका अट्टहास है ?
चारों ओर लहराते
नागफाँस हैं !

पर, सावधान !
मैं
इतिहास को दोहराने नहीं दूँगा,
आतताइयों को
निरीह लाशों को रौंदते
विजय-गान गाने नहीं दूँगा !

इन स्वप्नों की
इन चित्रों की
गत्यात्मकता,
अनुभूत-सिद्ध वास्तविकता

दूर-पास फैले
असंख्य-अदृश्य
भेदियों के जालों को
तोड़ेगी,
मानव-मानव के बीच
पहली बार
सच्चा रिश्ता जोड़ेगी !

-----------------------------------------
(3) बाधाएँ: चुनौती हैं!
-----------------------------------------

बाधाएँ —
निरुत्साहित नहीं करतीं हमें,
प्रतिक्षण बनातीं
बल सजग।
कठिनाइयों के सामने
पग डगमगाते हैं नहीं,
प्रत्युत्
लगा कर पंख बिजली के
धरा-आकाश का विस्तार लेते नाप !

बाधाएँ —
‘विकट, दुर्लंध्य, अविजित’
है निरा अपलाप !

बाधाएँ —
बनातीं परमुखापेक्षी नहीं हमको,
बाधाएँ —
बनाती हैं न किंचित दीन
उद्यमहीन हमको।

वे जगातीं
सुप्त अन्तर-शक्तियाँ सारी
न भय रहता, न लाचारी !

कौंधती बिजली सबल तन में
उभरते दृढ़ नये संकल्प मन में !

बाधाएँ: चुनौती हैं !
इन्हें स्वीकारना —
पर्याय:
मानवता-महत्ता का !
इन्हें स्वीकारना —
उद्घोष:
जीवन की चिरन्तन
ऊर्ध्व सत्ता का !
इन्हें स्वीकारना —
पहचान :
तेजस्वी,
सतत गतिमान
मानव के पराक्रम की !
इन्हें स्वीकारना —
अनुभूति :
चिर-परिचित
मनुज-इतिहास-प्रमाणित
अथक श्रम की !

बाधाएँ —
हतोत्साहित नहीं करतीं कभी
बाधाहरों को !
वे बनातीं
और भी दृढ़
धारणाओं को।

कठिन के सामने मेधा
कभी होती नहीं दूषित,
वरन् उद्भावना उन्मेष से भर
और हो उठती प्रखर !

प्रत्येक बाधा
हीन होगी,
नष्टशून्य-विलीन होगी !

-----------------------------------------
(4) यथा-पूर्व
-----------------------------------------

हमें
सामर्थ्य-क्षमता का
परिज्ञान कैसे हो ?

हमें
सम्भावनाओं का
अनुमान कैसे हो ?

हम अपरिणामी, तटस्थ, अयुक्त
स्थितियों में
जीते हैं !

-----------------------------------------
(5) एकस्थ से हटकर
-----------------------------------------

स्थितियाँ
जब बदलती नहीं —
गतिशीलता
अवरुद्ध होती है,
कहीं एकस्थ हो
आवेश का विस्तार खोती है।

स्थितियों का
बदलना / टूटना
बेहद ज़रूरी है,
भले ही —
नयी स्थितियाँ
नितान्त विरुद्ध हों
संदिग्ध हों।

-----------------------------------------
(6) अब नहीं
-----------------------------------------

अब सम्भव नहीं
बीते युगों की नीतियों पर
एक पग चलना,
निरावृत आज
शोषक-तंत्र की
प्रत्येक छलना।

अब नहीं सम्भव तनिक
बीते युगों की मान्यताओं पर
सतत गतिशील
मानव-चेतना को रुद्ध कर
बढ़ना।

सकल गत विधि-विधानों की
प्रकट निस्सारता,
किंचित नहीं सम्भव
मिटाना अब
बदलते लोक-जीवन की
नयी गढ़ना।

शिखर नूतन उभरता है
मनुज सम्मान का,
हर पक्ष नव आलोक में डूबा
निखरता है
दमित प्रति प्राण का,
नव रूप
प्रियकर मूर्ति में
ढल कर सँवरता है
सबल चट्टान का।

-----------------------------------------
(7) प्रतीक्षक
-----------------------------------------

अभावों का मरुस्थल
लहलहा जाये,
नये भावों भरा जीवन
पुनः पाये,
प्रबल आवेगवाही
गीत गाने दो !

गहरे अँधेरे के शिखर
ढहते चले जाएँ,
उजाले की पताकाएँ
धरा के वक्ष पर
सर्वत्र लहराएँ,
सजल संवेदना का दीप
हर उर में जलाने दो !
गीत गाने दो !

अनेकों संकटों से युक्त राहें
मुक्त होंगी,
हर तरफ़ से
वृत्त टूटेगा
कँटीले तार का
विद्युत भरे प्रतिरोधकों का,
प्राण-हर विस्तार का !

उत्कीर्ण ऊर्जस्वान
मानस-भूमि पर
विश्वास के अंकुर
जमाने दो !
गीत गाने दो !

-----------------------------------------
(8) मेरा देश
-----------------------------------------

प्रत्येक दिशा में
आशातीत
प्रगति के लम्बे डग भरता,
‘वामन-पग’ धरता
मेरा देश
निरन्तर बढ़ता है !
पूर्ण विश्व-मानव की
सुखी सुसंस्कृत अभिनव मानव की
मूर्ति
अहर्निश गढ़ता है !
मेरा देश
निरन्तर बढ़ता है !

प्रतिक्षण सजग
महत् आदर्शों के प्रति,
बुद्धि-सिद्ध
विश्वासों के प्रति।

मेरा देश
सकल राष्ट्रों के मध्य अनेकों
सहयोगों के,
पारस्परिक हितों के,
आधार सुदृढ़
निर्मित करता है !
तम डूबे
कितने-कितने क्षितिजों को
मैत्री की नूतन परिभाषा से
आलोकित करता है !
समता की
अनदेखी
अगणित राहों को
उद्घाटित करता है !

उसने तोड़ दिये हैं सारे
जाति-भेद औ वर्ण-भेद,
नस्ल भेद औ’ धर्म-भेद।

सच्चे अर्थों में
मेरा देश
मनुज-गौरव को
सर्वोपरि स्थापित करता है !
मृतवत्
मानव-गरिमा को
जन-जन में
जीवित करता है !

मेरा देश
प्रथमतः
भिन्न-भिन्न
शासन-पद्धित वाले राष्ट्रों को
अपनाता है !
शांति-प्रेम का
अप्रतिम मंत्र
जगत में गुँजित कर
भीषण युद्धों की
ज्वाला से आहत
मानवता को
आस्थावान बनाता है !
संदेहों के
गहरे कुहरे को चीर
गगन में
निष्ठा-श्रद्धा के
सूर्य उगाता है !

उन्नति के
सोपानों पर चढ़ता
मेरा देश,
निरन्तर
बहुविध
बढ़ता मेरा देश !

प्रतिश्रुत है —
नष्ट विषमता करने,
निर्धनता हरने !
जन-मंगलकारी
गंगा घर-घर पहुँचाने !
होठों पर
मुसकानों के फूल खिलाने,
जीवन को
जीने योग्य बनाने !

-----------------------------------------
(9) नहीं तो
-----------------------------------------

यदि मेरे देश में
गाँधी और नेहरू जैसों ने
जन्म नहीं लिया होता
तो —
हैवानियत के शिकंजे
हमारे हाथों-पाँवों में
कसे होते !
यहाँ
वहाँ
सभी जगह
मौत के सौदागर बसे होते !
हम
जो आज
तेज़ी से बढ़ते जाते हैं,
नये, मज़बूत और सुन्दर भारत को
फ़ौलादी दृढ़ता से
गढ़ते जाते हैं,
नयी रोशनी की किरणें
फैलाते
अज्ञान की अँधेरियों से
लड़ते जाते हैं;
घुटनों-घुटनों
फ़िरक़ापरस्ती की दलदल में
धँसे होते,

हम सब
बदरंग हो गये होते,
दिलों से
बेहद तंग हो गये होते !
हमारे एकता के स्वप्न सारे
टूटते,
पशुबल समर्थक
समृद्धि सारी
लूटते !

-----------------------------------------
(10) हमारे इर्द-गिर्द
-----------------------------------------

मेरे देश में
ओ करोड़ों मज़लूमो !
तुम्हें
अभी फुटपाथों से
छुटकारा नहीं मिला,
खौलते ख़ून के समुन्दर में
तैरते-तैरते
किनारा नहीं मिला !
बीसवीं शताब्दी के
इस आँठवें दशक में भी
सिर पर
खुला आसमान है,
नीचे
नंगी धरती।
सूनी निगाहें
ठण्डी आहें
विकलांग निरीहता
सर्दी, बरसात, आँधी !

मोटे-मोटे
खादीपोश
बदकिरदार
व्यापारियों-पूँजीपतियों,
मकान-मालिकों,
कॉलोनी-धारियों,
वकील-नेताओं के
मुँह में
यथा-पूर्व
विराजमान है — ‘गाँधी’!
बँगलों और कोठियों में
दीवारों पर
टँगे हैं गाँधी !
(या सलीब पर लटके हैं गाँधी!)
तिकड़मी मस्तिष्क के
बद-मिज़ाज
नये भारत के ये ‘भाग्य-विधाता’
‘एम्बेसेडर’ में
धूल उड़ाते
मज़लूमों पर थूकते
मानवता के रौंदते
अलमस्त घूमते हैं,
किंचित सुविधाओं के इच्छुक
उनके चरण चूमते हैं !

मेरी पूरी पीढ़ी हैरान है !
नेतृत्व कितना बेईमान है !

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(11) एक नगर और रात की चीखें
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मन्दिरों की घण्टियाँ बज रही हैं !
सैकड़ों श्रद्धालु
हाथ जोड़े खड़े होंगे
नत-मस्तक हो रहे होंगे।

वृक्षों, गुम्बदों, भवनों,
खपरैलों, टिनों पर
कुहर-कण पहने
अँधेरा उतरता चला आ रहा है,
जाड़े की शाम
सात बजे से ही गहरा गयी !
घरों के द्वार-वातायन
बंद हो गये !
सड़कों पर
हलकी पीली रोशनी फेंकते हैं
बिजली के खम्भे,
दो-एक स्कूटर
या मोटर साइकिलें
भड़भड़ाती हुई निकल जाती हैं,
कभी-कभी कहीं ढोल बज उठते हैं।
बस-स्टैण्ड पर
लाउड-स्पीकर अभी बोल रहा है
अमुक-अमुक जगह पर जाने वाले
यात्रियों को आगाह करता हुआ।

रात का ठण्डापन बढ़ता जाता है !
रात का सूनापन बढ़ता जाता है !

‘यह आकाशवाणी है,
रात के पौने-नौ बजे हैं।’
और
फिर सर्कस के शेर
दहाड़ने लगे
(ज़रूर दस बजने वाले होंगे।)
सोने से पहले
नींद की गफ़लत में
डूबने से पहले
एक भिखारी
चीखता है —
‘दो-रोटी और दाल,
पेट का सवाल !
है कोई देने वाला
इतने बड़े-बड़े घरों में ?
बस, दो-रोटी और दाल,
मैं भूखा हूँ।’

किसी घर के द्वार नहीं खुलते,
कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती।
भिखारी अड़ जाता है :
‘इस गली से
मैं
रोटी लिये बिना
नहीं जाऊँगा !’
और वह चीखता जाता है —
‘दो-रोटी और दाल,
पेट का सवाल !’
उसकी चीख
सबको दहला देती है,
सुख-सुविधाओं को चैंका देती है !

(भिखारी यदि ख़ूनी बन जाये,
दरवाज़ा तोड़ कर अन्दर घुस आये!)

आतंक की परतें
चेहरों पर बिछने लगती हैं,
घरों की रोशनियाँ
बुझने लगती हैं,
दरवाज़ों पर ताले
झूलने लगते हैं !

भिखारी
चीखता रहता है,
अपनी शक्ति के बाहर
चीखता रहता है।

और जब
किसी दयालु के दरवाज़े ने
उसे कुछ शान्त किया,
उसके बुनियादी सवाल को
एक रात के लिए
हल किया,
सन्नाटा और मुखरित हो चुका था,
वृक्षों, गुम्बदों, भवनों,
खपरैलों, टिनों पर
कुहरा और संघनित हो चुका था !
रात
और ठण्डी और काली
हो चुकी थी,
रात
निहायत बेशर्म और नंगी
हो चुकी थी !

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(12) आकस्मिक
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स्थूल निर्जीव पदार्थों की
प्रत्येक गति
नियति
कार्य-कारण-बद्ध है,
सृष्टि का प्रत्येक कम्पन
धीमा
अथवा विराट
प्राकृतिक नियमों से सिद्ध है।

पर,
संवेदनशील प्राणियों की
पारस्परिक
संगति
निकटता
आत्मीयता
मात्र एक संयोग है !

तभी तो —
इतनी बड़ी दुनिया में
अरबों मनुष्यों की दुनिया में
करोड़ों लोग अकेले हैं,
किसी का साथ पाने के लिए
किसी को
हमसफ़र बनाने के लिए
आकुल हैं,
व्याकुल हैं !

आवश्यकताएँ हैं :
पर,
पूर्तियाँ नहीं !
अर्चनाएँ हैं :
पर,
मूर्तियाँ नहीं !

भटकनें हैं :
बाट नहीं !
नदियाँ हैं :
घाट नहीं !

सर्वत्र
तलाश-ही-तलाश है !
ज़िन्दगी:
डोलती
बोलती
लाश है !

हाथ आया स्वर्ण
जब
मिट्टी में बदल जाता है,
बड़ी कोशिशों से पाया
अपनाया
जब
पराया निकल जाता है !
तब
लगता है:
जीवन कारण-हीन है !
मनुष्य
सचमुच, दीन है !
प्रतीक्षा करो !
अनाचक की
प्रतीक्षा करो !

जीवित सम्पर्क
बनाये नहीं जाते,
बन जाते हैं !
मनचाहे स्वप्न
बुलाये नहीं जाते,
स्वतः आते हैं !

ओ विश्व भर के
अभिशप्त मानवो !
प्रतीक्षा करो !

अचानक की
प्रतीक्षा करो !

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(13) बस, एक बार!
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स्नेह-तरलित दो नयन
मुझको देख लें —
बस,
एक बार !

दो
प्रणय-कम्पित हाथ
मुझको थाम लें —
बस,
एक बार !

सर्पिल भुजाएँ दो
मुझको बाँध लें —
बस,
एक बार,

दो
अग्निवाही होंठ
मुझको चूम लें —
बस,
एक बार !

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(14) निकष
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किसी मधु-गन्धिका के
प्यार की ऊष्मा-किरण
मुझको
छुए तो —
मोम हूँ !
किसी मुग्धा
चकोरी के
अबोध
अधीर
भटके
दो नयन
मुझ पर
पड़ें तो —
सोम हूँ !


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(15) नियति
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मझधार में बहते हुए
बस, देखते जाओ
किनारे-ही-किनारे,
पर नहीं,
वे बन सकेंगे
एक दिन भी
तुम थके-हारे
अकेले के
सहारे !

क्योंकि वे अधिकृत,
तुम अवांछित !
सतत बहते रहो,
प्रतिकूलता
सहते रहो !

-----------------------------------------
(16) अन्तःशल्य
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रह गये
कितने अदेखे फूल,
अन्तस में अजाने
हूलते हैं शूल !

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(17) आत्म-कथा
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क्या जीता हूँ !
अनुदिन कड़वाहट पीता हूँ,
मधु का सागर लहराता हैµ
पर,
कितना रीता हूँ !
सचमुच,
क्या जीता हूँ ?

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(18) अनचहा
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मैंने नहीं चाहा —
दृष्टि-पथ पर दूर तक
रंगीन सपनों के चरण
न घूमें!

मैंने नहीं चाहा —
जीवन के गगन में
सावनी के स्वर
न गूँजें!
रस-वर्षिणी
घन बदलियाँ
न झूमें!

मैंने नहीं चाहा —
मधु कल्पनाओं के
विफलता की थकन से
पंख जाएँ टूट,
यौवन
उमड़ती ज्वार की लहरें
न चूमे !
पर,
सब अनचहा होता गया,
स्वप्न सारे
हो गये विकलांग,
सावन की सरसता
खो गयी,
अनुरक्त अन्तस की
मधुरता जब
विषैली हो गयी !

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(19) समाधि-लेख
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कोई नहीं है तुम्हारे लिए
कोई नहीं है किसी के लिए,
दुनिया निरी ख़ुदग़रज़ है !

मरण पर हमारे —
कोई विकल बन
करुण गीत गाये
व आँसू बहाये,
मधुर याद में
(ज़िन्दगी भर !)
सजल प्राण-दीपक जलाये,
यह सोचना —
एक खाली मरज़ है !
दुनिया बड़ी ख़ुदग़रज़ है !

स्वयं को न दें
व्यर्थ
इतनी महत्ता,
समझ लें
उचित
भ्रम-रहित हो
स्व-अस्तित्व की
अर्थवत्ता,
इसमें नहीं कुछ हरज़ है !
जब कि
दुनिया निपट ख़ुदग़रज़ है !

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(20) ग़लतफ़हमियों का बोझ
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हमारे पारस्परिक संबंधों को
बरसों के पनपते-बढ़ते रिश्तों को
निकटता और आत्मीयता को
ग़लतफ़हमी
अक्सर पुरज़ोर झकझोर देती है
तोड़ देती है,
हमें एक दूसरे के विपरीत
मोड़ देती है !

हमारे सौमनस्य का अतीत
झूठा बेमानी हो लेता है,
हमारे सद्भाव का इतिहास
महज़ एक स्वाँग साबित हो
सारे व्यतीत घटना-चक्रों को
अकल्पित अद्भुत सन्दर्भों की पीठिका में
प्रस्थापित कर देता है !

हम
अन्यथा के प्रति आश्वस्त हो
सचाई की व्याख्या
बदलने के लिए
विवश हो जाते हैं,
अँधेरे में
और अँधेरे में
और-और अँधेरे में
खो जाते हैं !

ग़लतफ़हमी
मानव-आस्था के मर्म को
निरन्तर विदलित करती है,
जीवन-रस को
एक और अनेक ग़लतफ़हमियाँ
निरन्तर खोखला कर
अवशोषित करती हैं !

ग़तलफ़हमियों का शिकार बनना
सचमुच
एक शाप है,
ग़लतफ़हमियों को बार-बार भोगना
सचमुच
एक विषम शाप-ज्वर संताप है !

न जाने
किन शापों के फलस्वरूप
मुझे
ग़लतफ़हमियों के तोहफ़े,
मिथ्या आरोपों
और लांछनों के तोहफ़े
खूब मिले हैं,
जिन्हें
जीवन की पीठ पर लादे
मैं घूम रहा हूँ !
ग़लतफ़हमियों का यह गट्ठर
अपने आकार में
और कितना फैलेगा-बढ़ेगा ?
यह मेरी जिजीविषा के वेग को
और कितना रोकेगा ?

क्या सारे रिश्तों को तोड़ दूँ ?
ग़लतफ़हमियों के इस बोझ को
एक-बारगी फेंक दूँ ?
व्यक्ति और समाज की
चिन्ता से मुक्त
जीवन को
निर्जीव पदार्थ सत्ता से जोड़ दूँ ?
संवेदन का गला घोंट दूँ ?

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(21) प्रक्रिया
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मैंने
जीवन का व्याकरण
नहीं पढ़ा,
शायद,
इसीलिए —
सही अर्थों में
जीना नहीं आया !

आत्म-प्रकाशन में
असफल अभिव्यक्ति-सा
प्रभाव-शून्य बना रहा,
इसीलिए —
रात-दिन
घर-बाहर
अनमना रहा !

मैंने
जीवन-जगत व्यवहार के
विशिष्ट शब्दों
शब्द-रूपों
और उनके प्रयोगों का
ज्ञान हासिल नहीं किया,
इसीलिएµ
तथाकथित समाज ने
मुझे अपने में
शामिल नहीं किया !
मैंने नहीं सीखा
व्यक्ति-व्यक्ति में
भेद करना,
स्थूल और सूक्ष्म
अन्तर-प्रणाली की
वैज्ञानिकता
मेरी समझ में नहीं आयी,
जो कुछ कहा
वह
व्याख्या की परिधि में
नहीं समाया,
शायद,
इसीलिए मेरा कथन
किसी को नहीं भाया !

मैंने
जीवन का व्याकरण
नहीं पढ़ा,
शायद,
इसीलिए —
अन्यों की तरह
सुख-चैन का
जीना नहीं आया !

निरन्तर
जीवन की अभिधा में
पलता रहा,
लाक्षणिकता के
गूढ़ व्यंजना के
आडम्बर नहीं फैलाये,
बहु-प्रचलित कडवे तेल के दिये-सा
आले में
चुपचुप जलता रहा,

मुहावरेदानी के
रुपहले ट्यूब
तैल-लेपित दीवारों पर
नहीं रोशनाये,
शायद,
इसीलिए —
समाज का मन-रंजन नहीं हुआ
वांछित आवर्जन नहीं हुआ !

दुनिया की चमक-दमक में
डूबा-इठलाया नहीं,
वक्र ताल पर
ध्वनि-सिद्ध कोई गीत
गाया नहीं,
अलंकार-सज्जित पात्र में
रीति-बद्ध ढंग से
जीवन का रस
पीना नहीं आया !

मैंने
जीवन का व्याकरण
नहीं पढ़ा,
शायद,
इसीलिए —
निपुण विदग्धों के समकक्ष
जीना नहीं आया !


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(22) पुनर्वार
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मैं
एक वीरान बीहड़
जंगल में रहता हूँ,
अहर्निश
निपट एकाकीपन की
असह्य पीड़ा
सहता हूँ !

मैंने
यह यंत्राणा-गृह
कोई
स्वेच्छा से नहीं वरा,
मैंने
कभी नहीं चाहा
निर्लिप्त
निस्संग
जीवन का यह
जँगलेदार कठघरा !

जिसमें
शंकाओं से भरा
सन्नाटा जगता है,
जीना
अर्थ-हीन अकारण-सा
लगता है !

समय-असमय
जब दहक उठते हैं
मुझमें
हिंस्र पशुता के
अग्नि-पर्वत,
प्रतिशोध-प्रतिहिंसा के
लावा नद
जब लहक उठते हैं
आहत
क्षत-विक्षत
चेतना पर,
तब यह
वीरान बीहड़ जंगल ही
निरापद प्रतीत होता है !

(सचमुच
कितना बेबस
मानव के लिए
अतीत होता है !)

यह गुंजान वन
यह अकेलापन
मेरी विवशता है !
मुझे
विवशता की पीड़ा
सहने दो,

दहने दो,
दहने दो !

जंगल जल जाएंगे,
लौह-कठघरे गल जाएंगे !

मैं आऊंगा
फिर आऊंगा,
निज को विसर्जित कर
सामूहिक चेतना का अंग बन
अन्तहीन भीड़ में
मिल जाऊंगा !

स्व के दंश जहाँ
तिरोहित हो जाएंगे,
या अवचेतना की
अथाह गहराइयों में
सो जाएंगे !

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(23) प्रतिज्ञा-पत्र
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टूट
गिरने दो
पीड़ाओं के पहाड़
बार-बार
अमत्र्य व्यक्तित्व मैं
अविदलित रहूंगा !
आसमान पर
घिरने दो
वेगवाही
स्याह बदलियाँ,
गरजने दो
सर्वग्रही प्रचण्ड आँधियाँ
लौह का अस्तित्व मैं
अपराजित रहूंगा !

लक्ष-लक्ष
वृश्चिकों के
डंक-प्रहार,
उठने दो
अंग-अंग में
विष-दग्ध लहरें ज्वार
व्रतधर सहिष्णु मैं
अविचलित रहूंगा !

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(24) भले ही
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भले ही —
काटती हों
चेतना को,
दंश जैसी
ये तुम्हारी
डाह-संकेतक
उपेक्षा-बोधनी
दृग-भंगिमाएँ !

भले ही —
सालती हों
मर्म को
उपहास-प्रेरित
ये तुम्हारी
अग्नि-शर-व्यंग्योक्तियों की
क्रूर-धर्मी यातनाएँ !
सामने प्रस्तुत
विकर्षण-युक्त प्रतिमाएँ !
इन्हें पहचानता हूँ,
आदि से इतिहास इनका
जानता हूँ।
है सही उपचार इनका
पास मेरे,
कुछ नहीं बनता-बिगड़ता
आज यदि
ठहरी रहें ये
क्षितिज घेरे !

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(25) स्व-रुचि
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फोटो में मुझे
अपनी शक़्ल नहीं भायी !
मैंने पुनः
बड़े उत्साह से
अपने चित्र खिँचवाये —
भिन्न-भिन्न पोज़ दिये,
फोटोग्राफ़र के संकेतों पर
गम्भीरता कम कर मुसकराया भी,
चेहरे पर भावावेश लाया भी,
पर पुनः मुझे उन फोटुओं में भी
अपनी शक़्ल नहीं भायी,
तनिक भी स्व-रुचि को
रास नहीं आयी !

पर, क्या वे शक्लें
मेरी नहीं ?
क्या वे बहुरंगी पोज़
मेरे नहीं ?

वस्तुतः
हम फोटो में यथार्थ आकृति नहीं,
अपने सौन्दर्य-बोध के अनुरूप
अपने को चित्रित देखना चाहते हैं,
अपने ऐबों को
गोपित या सीमित देखना चाहते हैं !


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(26) टूटा व्यक्तित्व
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बचपन में
किसी ने यदि —
न देखा
स्नेह-संचित दृष्टि से
अति चाव से,
और पुचकारा नहीं
भर अंक
वत्सल-भाव से,
तो व्यक्ति का व्यक्तित्व
निश्चित
टूटता है।

यौवन में
नहीं यदि —
पा सका कोई
प्रणयिनी
संगिनी का
प्रेम :
निश्छल
एकनिष्ठ
अनन्य !
जीवन —
शुष्क
बोझिल
मरुस्थल मात्र
तृष्णा-जन्य !
तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व
अन्दर और बाहर से
बराबर
टूटता है।
वृद्ध होने पर
नहीं देती सुनायी
यदि —
प्रतिष्ठा-मान की वाणी,
न सुनना चाहता कोई
स्व-अनुभव की कहानी,
मूक
इस अन्तिम चरण पर
व्यक्ति का व्यक्तित्व
सचमुच,
चरमराता है
सदा को
टूट जाता है !

-----------------------------------------
(27) जीवनी
-----------------------------------------

चित्र जो
अतीत धुन्ध में
समा गया —
उसे
पुनः-पुनः उरेहना।

जो बिखर गया
जगह-जगह
व्यतीत राह पर —
उसे
विचार कर समेटना।

जो समाप्त-प्राय —
बार-बार
चाह कर
उसे सहेजना।
रीति-नीति
काव्य की नहीं !

जीवनी :
विगत प्रवाह,
जी चुके।
काव्य :
वर्तमान
वेगवान
जी रहे।

-----------------------------------------
(28) अंध-काल
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सावधान पहरुओ !
सावधान !

छा रहे अनेक दैत्य
छीनने स्वतंत्रता मनुष्य की,
वेगवान अंधकार
लीलने किरण-किरण भविष्य की,
सावधान सैनिको !
सावधान !

आज घिर रहीं प्रगाढ़
रक्त-वर्षिणी भयान बदलियाँ,
व्योम में कड़क रहीं
विनाशिनी अधीर क्रूर बिजलियाँ,

विश्व-शान्ति रक्षको !
सावधान !

-----------------------------------------
(29) आओ जलाएँ
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आओ जलाएँ
कलुष-कारनी कामनाएँ !

नये पूर्ण मानव बनें हम,
सकल-हीनता-मुक्त, अनुपम
आओ जगाएँ
भुवन-भाविनी भावनाएँ !

नहीं हो परस्पर विषमता,
फले व्यक्ति-स्वातंत्र्य-प्रियता
आओ मिटाएँ
दलन-दानवी-दासताएँ !

कठिन प्रति चरण हो न जीवन,
सदा हों न नभ पर प्रभंजन
आओ बहाएँ
अधम आसुरी आपदाएँ !

-----------------------------------------
(30) समता का गान
-----------------------------------------

मानव-समता के रंगों में
आज नहा लो !

सबके तन पर, मन पर है जिन
चमकीले रंगों की आभा,
उन रंगों से आज मिला दो
अपनी मंद प्रकाशित द्वाभा,
युग-युग संचित गोपन कल्मष
आज बहा लो !

भूलो जग के भेद-भाव सब
वर्ण-जाति के, धन-पद-वय के,
गूँजे दिशि-दिशि में स्वर केवल
मानव महिमा गरिमा जय के,
मिथ्या मर्यादा का मद-गढ़
आज ढहा दो !

-----------------------------------------
(31) होली
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नाना नव रंगों को फिर ले आयी होली,
उन्मत्त उमंगों को फिर भर लायी होली !

आयी दिन में सोना बरसाती फिर होली,
छायी, निशि भर चाँदी सरसाती फिर होली !

रुनझुन-रुनझुन घुँघरू कब बाँध गयी होली,
अंगों में थिरकन भर, स्वर साध गयी होली !

उर मे बरबस आसव री ढाल गयी होली,
देखो, अब तो अपनी यह चाल नयी हो ली !

स्वागत में ढम-ढम ढोल बजाते हैं होली,
होकर मदहोश गुलाल उड़ाते हैं होली !

-----------------------------------------
(32) विश्व-श्री
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देश-देश की स्वतंत्रता अमर रहे !

प्राण से अधिक
अपार प्रिय हमें स्वतंत्रता,
देश-प्रेम के लिए
कहीं नियत न अर्हता,
लोक-तंत्र-भावना सदा प्रखर रहे !

विश्व के असंख्य जन
अभेद्य हैं, समान हैं,
भाव एक हैं, यदपि
अनेक राष्ट्र-गान हैं,
साम्य-कामना ज्वलंत प्रति प्रहर रहे !

त्याज्य : जो मनुष्य की
मनुष्यता दहन करे,
ग्राह्य : जो उदार
मानवीयता वहन करे,
सर्व-धर्म-प्रेम की प्रवह लहर रहे !

-----------------------------------------
(33) जनतंत्र-आस्था
-----------------------------------------

जनतंत्र के उद्घोष से गुंजित दिशाएँ !

आज जन-जन अंग शासन का,
बढ़ गया है मोल जीवन का,
स्वाधीनता के प्रति समर्पित भावनाएँ !

अब नहीं तम सर उठाएगा,
ज्याति से नभ जगमगाएगा,
उद्देश्य-प्रेरित दृढ़ हमारी धारणाएँ ।

मूक होगी रागिनी दुख की,
मूर्त होगी कामना सुख की,
अब दूर होंगी हर तरह की विषमताएँ !



-----------------------------------------
(34) गणतंत्र-स्मारक
-----------------------------------------

गणतंत्र-दिवस की स्वर्णिम
किरणों को मन में भर लो !

आलोकित हो अन्तरतम,
गूँजे कलरव-सम सरगम,
गणतंत्र-दिवस के उज्ज्वल
भावों को मधुमय स्वर दो !

आँखों में समता झलके,
स्नेह भरा सागर छलके,
गणतंत्र-दिवस की आस्था
कण-कण में मुखरित कर दो !

पशुता सारी ढह जाये,
जन-जन में गरिमा आये,
गणतंत्र-दिवस की करुणा-
गंगा में कल्मष हर लो !

-----------------------------------------
(35) प्रण
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मानवी गरिमा सदा रक्षित-प्रतिष्ठित हो
प्रण हमारा !

भाग्य-निर्माता स्वयं हों हम,
शक्ति जनता की नहीं हो कम,
व्यक्ति की स्वाधीनता अपहृत न किंचित हो
प्रण हमारा !

एकता के सूत्र में बँधकर,
अग्रसर हों सब प्रगति-पथ पर,
धर्म-भाषा-वर्ण पर कोई न लांछित हो
प्रण हमारा !

दूर हो अज्ञान-निर्धनता
वर्ग-अन्तर-मुक्त मानवता,
अर्थ-अर्जित कुछ जनों तक ही न सीमित हो
प्रण हमारा !

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रचना-काल : सन् 1967-1971
प्रकाशन-वर्ष : सन् 1977
प्रकाशक : प्रबुद्ध भारती प्रकाशन, ग्वालियर, . प्र.
सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 3],
महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 3] में