शनिवार, 24 अप्रैल 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ---- "जूझते हुए"

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य-संग्रह ---- "जूझते हुए"
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कविताएँ
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1 कश-म-कश
2 कचनार
3 प्रियकर
4 संसर्ग
5 संस्पर्श
6 आमने-सामने
7 जन्म-दिन
8 सहपंथा
9 विफल
10 निस्संग
11 इन्तज़ार
12 निष्कर्ष
13 विक्षेप
14 गन्तव्य-बोध
15 विराम
16 सामर्थ्य-भर
17 स्थिति
18 आदमी
19 उत्तर
20 प्रतिरोध
21 पतन
22 विचित्र
23 त्रासदी
24 कुफ्र
25 आह्नान
26 विश्वस्त
27 अनाहत
28 जनवादी
29 एकजुट
30 संक्रमण
31 मज़दूरों का गीत
32 श्रमजित्
33 वर्षान्त पर
34 विसंगति
35 प्रजातंत्र
36 लालसा
37 भोर
38 अ-तटस्थ
39 एबसर्ड कविता
40 श्रद्धांजलि
41 सर्वहारा का वक्तव्य
42 अभूतपूर्व
43 आश्वास
44 मुक्त-कंठ
45 संधान

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(1) कश-म-कश
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बरसों से नहीं देखा —
सूर्योदय
सूर्यास्त
चाँद-तारों से भरा आकाश,
नहीं देखा
बरसों से नहीं देखा !

कलियों को चटकते,
फूलों को महकते
डालियों पर झूमते,
तितलियों-मधुमक्खियों को
चूमते !
बरसों से नहीं देखा !

मेह में न्हाया न बरसों से
पुर-जोश कोई गीत भी गाया
न बरसों से!

न देखे
एक क्षण भी
मेहँदी से महमहाते हाथ गदराए,
महावर से रँगे
झनकारते
दो - पैर
भरमाए !
न देखे
आह, बरसों से !
कुछ इस क़दर
उलझा रहा
ज़िन्दगी की कश-म-कश में —
देखना
महसूसना
जैसे तनिक भी
था न वश में !

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(2) कचनार
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पहली बार
मेरे द्वार
रह-रह
गह-गह
कुछ ऐसा फूला कचनार
गदराई हर डार !

इतना लहका
इतना दहका
अन्तर की गहराई तक
पैठ गया कचनार !

जामुन रंग नहाया
मेरे गैरिक मन पर छाया
छज्जों और मुँडेरों पर
जम कर बैठ गया कचनार !

पहली बार
मेरे द्वार
कुछ ऐसा झूमा कचनार
रोम-रोम से
जैसे उमड़ा प्यार !
अनगिन इच्छाओं का संसार !
पहली बार
ऐसा अद्भुत उपहार !

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(3) प्रियकर
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इस बहार में
गुलाब !
क्यों उदास ?
बार-बार ले रहे उसाँस।
है विकीर्ण
क्यों नहीं
विलास की सुवास ?

ओ गुलाब !
आज मत रहो उदास
इर क़दर उदास !
दो मिठास प्राण को
हुलास मन / उदार बन !

पुनीत प्यार से
सुधा विहार से
रहो प्रमोद-सिक्त
पास-पास !
पूर्ण जब विकास
मत रहो उदास !

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(4) संसर्ग
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जब से
हुई पहचान
मूक अधरों पर
अयास बिछल रहे
कल गान !

देखा
एकाग्र पहली बार —
बढ़ गया विश्वास,
मन पंख पसार
छूना चाहता आकाश !

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(5) संस्पर्श
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ओ पवित्रा !
मृदुल शीतल उँगलियों से
छू दिया तुमने
माथ मेरा —
मुश्किलें
उस क्षण
गया सब भूल !

खिल गये उर में
हज़ार-हज़ार टटके फूल !

खो गये पथ के
अनेकानेक शूल-बबूल !

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(6) आमने-सामने
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जी भर
आज बोलेंगे,
परस्पर अंक में आबद्ध
सारी रात बोलेंगे,
जी भर
बात बालेंगे !

विश्वास की
सम-भूमि पर हम
एक-धर्मा
हीनता की ग्रंथियाँ
संदेह के निर्मोक खोलेंगे,
सहज निर्व्याज खोलेंगे !

जी भर
आज जी लेंगे,
सुधा के पात्र पी लेंगे !

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(7) जन्म-दिन
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जीवन-पुस्तिका का
एक पृष्ठ और
पूरा हुआ।
एक बरस
और जिया !

शुक्र है
मौत ने नहीं छुआ !
आँधियों के
बीच भी
जलता रहा दिया !

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(8) सहपंथा
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पार कर आये
बीहड़
ज़िन्दगी की राह
लम्बी राह,
साथ-साथ।

पगडंडियाँ
या राज-मार्ग प्रशस्त,
खाइयाँ
या पर्वतों की घूमती ऊँचाइयाँ,
पार कर आये
साथ-साथ!
ज़िन्दगी की राह !

एक पल भी
की न आह-कराह !
दीनता से दूर,
हीनता से दूर,
कितने ही रहे मजबूर!
नहीं कोई
शिकन आयी माथ !
पार कर आये
भयानक राह,
ज़िन्दगी की राह
साथ-साथ!

आँधियों की धूल से
या
चरण चुभते शूल से —
रुके नहीं !
तपती धूप से,
गहरे उतरते
घन अँधेरे कूप से
थके नहीं !

तर-बतर
करते रहे
तय सफ़र,
थामे हाथ
बाँधे हाथ
साथ-साथ।
पार कर आये
अजन-बी
ज़िन्दगी की राह
लम्बी राह !

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(9) विफल
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लहरों-सी उफ़नती
उर-उमंगें सो गयीं,
चहचहाती डाल सन्ध्या की
अचानक
मूक-बहरी हो गयी !
प्रतीक्षा-रत
सजग आँखें
विवश चुप-चुप
रो गयीं !
निशि
हिम-कणों से सृष्टि
सारी धो गयी !

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(10) निस्संग
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ठंडी रात,
सन्नाटा !
जब-तब कहीं कोई
थरथरा उठता पेड़,
रह-रह
सनसना उठती
हवा ।
अथवा
चीख पड़ता
दर्द में
चकवा।

न कोई बात ।
गहरी
बहुत गहरी
एक ख़ामोशी,
अपूर अटूट बेहोशी
शिथिल
आविद्ध।
कुंठित मन
सिहरता तन
विकल
दयनीय पक्षाघात।
सन्नाटा !
न कोई बात,
ठंडी रात !

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(11) इन्तज़ार
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रात
ठंडी और लम्बी —
जागते
कब तक रहेंगे ?

रात
गीली ओस-भीगी,
शीत का अभिशाप
कितना और...
चुप-चुप सहेंगे ?

थरथराता गात,
कुहरे में
झुके हैं पात,
अपनी
वेदना को और....
कब तक कहेंगे ?

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(12) निष्कर्ष
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ज़िन्दगी — वीरान मरघट-सी,
ज़िन्दगी — अभिशप्त बोझिल और एकाकी महावट-सी !
ज़िन्दगी — मनहूसियत का दूसरा है नाम,
ज़िन्दगी — जन्मान्तरों के अशुभ पापों का दुखद परिणाम !
ज़िन्दगी — दोपहर की चिलचिलाती धूप का अहसास,
ज़िन्दगी — कंठ-चुभती सूचियों का बोध तीखी प्यास !
ज़िन्दगी — ठहराव, साधन-हीन, रिसता घाव
ज़िन्दगी — अनचहा संन्यास, मात्र तनाव !

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(13) विक्षेप
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मन के राज्य में
देखे स्वप्न जो रंगीन,
मांसल कल्पनाओं में रहे जो लीन,
मिथ्या वासना अतिचार —
समझा किये
सुख-स्वर्ग का संसार।
पृथ्वी का महत् वरदान,
सम्भव कामनाओं का
चरम सोपान।

जन्म सार्थकता —
सतत उपभोग-मादकता।
अमित रस-सृष्टि —
जीवन-दृष्टि।

किन्तु
जगत् यथार्थ
कितना भिन्न !
सपनों में रचाया लोक
रेशम-सी नरम चिकनी
बुनावट कल्पनाओं की
तनिक में छिन्न !

कोई
भाग्यशाली
शक्तिशाली
कुछ क्षणों को
कर सका साकार
औचट
या कि कर अपहार !
औरों के लिए
केवल
विसंगति
आत्म-रति।

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(14) गन्तव्य-बोध
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हमने
उस दिन
ब्राह्म-मुहूर्त में
बड़े उत्साह से
अपनी यात्रा .....अविच्छिन्न यात्रा
शुरू की थी,
यह सोच कर
कि मंज़िल पर पहुँचेंगे
निश्चित पहुँचेंगे।

हमने
उस दिन
रात के धुँधियारे में
बड़े विश्वास से
अपनी यात्रा ..... निरन्तर यात्रा
शुरू की थी,
यह सोच कर
कि साहिल पर पहुँचेंगे
संशयहीन...पहुँचेंगे।

ऊबड़-खाबड़ राह से
गुज़रते हुए,
गहरे-गहरे गड्ढ़ों की
थाह लेते हुए
हम अपनी यात्रा पर
निश्चल मन से —
चल पड़े थे।

माना कि
जगह-जगह
अनेक व्यवधान अड़े थे
खड़े थे,
टूटन थी
फिसलन थी।

हमारी गति को
आँधियों ने रोका,
बार-बार
वज्रवाही बादलों ने टोका !
पर, हम रुके नहीं,
वैपरीत्य के सम्मुख
झुके नहीं।

क्रमशः
हमारा पथ प्रशस्त हुआ;
और हम
एक दिन
धड़कते दिल से
पड़ाव पर पहुँचे !

थक कर चूर
शिथिल
मजबूर
जड़ता-बद्ध।

क्रमशः
अहसास जगता है:
मंज़िल अंत नहीं,
आधार है
प्रवेश-द्वार है
जीवन की रंगभूमि है —
कर्मभूमि है !

उसे स्वप्न-भूमि समझने की
भूल क्यों की ?

इससे तो बेहतर था
उसी बिन्दु पर बने रहना
जहाँ से यात्रा शुरू की थी।

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(15) विराम
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कर चुकी ज़िन्दगी
दूरियाँ तय !

चीखती / हाँफ़ती
ज़िन्दगी कर चुकी
अनगिनत
ऊध्र्व ऊँचाइयाँ
ग़ार गहराइयाँ तय !

थम गया
भोर का / शाम का
गूँजता शोर,
गत उम्र की राह पर
थम गया !
आह बन
शून्य में हो गया लय !
कर चुकी ज़िन्दगी
मंज़िलें तय !

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(16) सामर्थ्य-भर
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जीवन —
मात्रा एक यात्रा है,
अनन्त राह पर
अन्तहीन यात्रा है !

विश्रांति-हेतु
क्षण-भर रुकना
आगे बढ़ने का
केवल उपक्रम है।
मंज़िल दूर,
बहुत दूर,
समय कम,
बेहद कम है !

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(17) स्थिति
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समेटे सिमटता नहीं
बिखराव !
नहीं है दिशा का पता
भटकाव !
जटिल से जटिलतर हुआ
उलझाव !
हुआ कम न, बढ़ता गया
अलगाव !

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(18) आदमी
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आज
जंगल के
भयावह हिंस्र आदमखोर पशुओं से
सुरक्षित
आदमी।

ऋतुओं के
विनाशक तेवरों से
है न किंचित्
भीत, आशंकित व चिन्तित
आदमी।

प्रकृति के
नाना प्रकोपों से
स्वयं को,
अन्य जीवों को
बचाना जानता है
आदमी।

शून्य की
ऊँचाइयों पर
जा पहुँचना
है सरल उसको।
सिन्धु की
गहराइयों की
थाह लेना
है सहल उसको।

किन्तु अचरज !
आदमी है
आदमी से आज
सर्वाधिक अरक्षित,
आदमी के ही
मनोविज्ञान से
बिल्कुल अपरिचित।

भयभीत
घातों से
परस्पर।
रक्ताक्ष
आहत
क्रुद्ध
ज़हरी व्यंग्य बातों से
परस्पर।

टूट जाता आदमी —
आदमी के
क्रूर
मर्मान्तक प्रहारों से,
लूट लेता आदमी —
आदमी को
छल-भरे
भावों-विचारों से।

आदमी —
आदमी से आज
कोसों दूर है,
आत्मीयता से हीन
बजता खोखला
हर क़दम
सिर्फ़ ग़रूर है।

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(19) उत्तर
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नहीं किंचित् बनूंगा
दीन,
या
ग़मगीन।
क्षति स्वीकारता हूँ !

धूर्त —
गुप-चुप
रच रहे षड्यंत्र,
बैठे हैं लगाए घात,
कैसे कर लिया
तुमने
अनोखा फ़ैसला
सुन
एकतरफ़ा बात ?

तुमसे
है नहीं अनुनय-विनय
धिक्कारता हूँ !
यों कभी भी
हो न सकता हीन !
क्षति स्वीकारता हूँ !

अपने
चाटुकारों की
विगर्हित क्षुद्र
इच्छा-पूर्ति के हित,
कर दिया तुमने
क्षणिक अधिकार से वंचित ?
तुम्हारे
मसख़रे निर्लज्ज
गंदे खल घिनौने
रूप को
दुत्कारता हूँ !

जान लो
अच्छी तरह पहचान लो —
होता नहीं इससे
तनिक भी क्षीण !
क्षति स्वीकारता हूँ !

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(20) प्रतिरोध
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विकास-राह रुद्ध ;
जाति-युद्ध।

वंश-दर्प
बन गया कराल काल-सर्प।
दंश
तीव्र दंश,
सृष्टि के महान् जीव का
अथाह भ्रंश।

क्षुद्र संकुचित हृदय
उगल रहा ज़हर
कि ढा रहा क़हर !

मनुष्यता लहू-लुहान,
जातुधान गा रहा —
असार द्वेष-युक्त
जाति-गान।
क्रूर
गर्व-चूर,
सभ्यता-विहीन
आत्म-लीन ।

बढ़ो, बढ़ो !
पशुत्व के अधीन
इस मनुष्य के
उगे विषाण
और धारदार दाँत
तोड़ने !
अमानवीय
जात-पाँत तोड़ने,
समाज और व्यक्ति को
सशक्त एक सूत्रा में
अटूट जोड़ने।

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(21) पतन
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देश में
विशाल रूप में
उमड़ रहा
उफ़न रहा —
जाति-द्वेष : धर्म-द्वेष
वर्ण-भेद : जन्म-भेद
मैल ! मैल ! मैल !
गर्द ! गर्द ! गर्द !

तीव्र मानसिक तनाव
शत्राु-भाव।

है विषाक्त हर दिशा,
निगल रही विवेक को
अशुभ गहन घृणा-निशा।

सतर्क और भीत
व्यक्ति-व्यक्ति से।
हो रहा प्रतीत —
लौट आ रहा
अतीत !

हिंस्र जंगली,
ब-ख़ूब
चल रही
समाज में
तथाकथित कुलीन
जाति-दर्प धाँधली।

मनुष्य :
जाति-धर्म-वर्ण-जन्म से विभक्त
दब रहा निरीह
मिट रहा अशक्त।
शर्म ! शर्म ! शर्म !
निंद्य ! निंद्य ! निंद्य !

मन-मुटाव
छल-कपट
दुराव।

सावधान !
धैर्यवान नौजवान !
जाति-द्वेष-भावना-प्रवाह से,
क्रूर जातिगत गुनाह से
सावधान !
वर्ण-जन्म धारणा
प्रभाव से,
एकता-विनाशिनी
विलग-विचारणा
प्रभाव से,
सावधान,
नौजवान !

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(22) विचित्र
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यह कितना अजीब है !
आज़ादी के
तीन-तीन दशक
बीत जाने के बाद भी
पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के
रीत जाने के बाद भी
मेरे देश का
आम आदमी ग़रीब है !
बेहद ग़रीब है !
यह कितना अजीब है !

सर्वत्र
धन का, पद का, पशु का
साम्राज्य है,
यह कैसा स्वराज्य है ?

धन, पद, पशु
भारत-भाग्य-विधाता हैं,
चारों दिशाओं में
उन्हीं का जय-जयकार,
उन्हीं का अहंकार
व्याप्त है,
परिव्याप्त है,
और सब-कुछ समाप्त है !

शासन
अंधा है, बहरा है,
जन-जन का संकट गहरा है !
(खोटा नसीब है !)
लगता है —
परिवर्तन दूर नहीं,
क़रीब है !
किन्तु आज
यह सब
कितना अजीब है !

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(23) त्रासदी
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ग़रीब था
अछूत था
डर गया !

भूख से
मार से
मर गया !

शोक से
लोक से
तर गया !

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(24) कुफ्र
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लाश
जल रही
मसान में
किसी ग़रीब की,
बद-नसीब की !

कुटुम्ब
स्तब्ध...सन्न,
विप्र अति प्रसन्न !
मृत्यु-भोज
ऐश-मौज !

किन्तु
नौजवान आज
ढोंग सब बहा
धता बता रहा,
पुरोहिती
मिटा रहा,
बदल रहा गरुड़-पुराण,
प्रेत-कर्म का विधान।

विप्र खिन्न,
चीखता
कलियुगी... कलियुगी !

वस्तुतः
यही
नये समाज की
विराट सुगबुगी !

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(25) आह्नान
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रहो मत मूक,
की नहीं तुमने
कहीं,
कोई चूक।
बोलो बात —
बेलाग
खरी
दो-टूक।

सत्य को
तुमने सदा
सत्य कहकर ही
पुकारा।
इसमें —
है नहीं अपराध
कोई भी
तुम्हारा।

किन्तु
जिसने सत्य को
हठधर्मिता से
झूठ ठहराया,
वास्तविकता की
उपेक्षा की,
वंचना का धर्म
अपनाया —

उस धूर्त के सम्मुख
मत रहो खामोश !
अभिव्यक्त कर आक्रोश
गरजो,
पुरज़ोर गरजो !
अनीति-विरुद्ध
प्रज्ञा-प्रबुद्ध !

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(26) विश्वस्त
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सतत संघर्ष-रत
सर्वहारा,
ज़िन्दगी
बदली नहीं।
अडिग अनथक अकेला
सर्वहारा,
स्थिति
यथावत्
सुधरी नहीं, सँभली नहीं।

व्यवस्था को
निरन्तर
और अंतिम साँस तक
दलित देगा चुनौती,
याद रक्खो
तड़पती घायल
लहू-मुख चीखती
जनता नहीं सोती !

विद्रोह का संकल्प
मर्मान्तक प्रहारों से
कम नहीं होता,
प्रतिबद्ध को
क्षति का, पराजय का
ग़म नहीं होता !

आवेश का सैलाब
आएगा !
पाशव अमानुष वर्ग के
मज़बूत दुर्गों को
ढहाएगा !

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(27) अनाहत
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चक्रवातों के
थपेड़ों से घिरा
इंसान,
बन गया चट्टान !

जूझता है
बार-बार,
बुलन्द हिम्मत से
सुदृढ़
आयत्त आस्थावान !

कर रहा पहचान
घातों से
प्रहारों से
गरजती
अग्नि-धारों से,
नहीं हैरान।

बढ़ता गया
अन्तिम विजय
विश्वास,
गढ़ने
नया इतिहास।

अपराजेय
जीवन का —
अदम्य
प्रबल
मनोबल,
फूँकता जंगल,
बनाता
ज़िन्दगी का
नव धरातल।

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(28) जनवादी
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अनुचित करेंगे नहीं,
अनुचित सहेंगे नहीं!

अधिकार-मद-मत्त
सत्ता-विशिष्टो !
तुम्हारी सफल धूर्तता
और चलने न देंगे।

परलोक
या
लोक-कल्याण के नाम पर
व्यक्ति को
और छलने न देंगे।

मानव
अनाचार-नरकाग्नि में
अब दहेंगे नहीं।
स्वैरवर्ती
निरंकुश
नये विश्व में
शेष
निश्चित रहेंगे नहीं।

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(29) एकजुट
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मिलेगी
हमें जीत हरदम,
मिला कर
चलेंगे
क़दम से क़दम !
समता समर्थक
जनवाद साधक
अंतिम चरण तक
रहेंगे समर-रत,
न होंगे कभी नत !
बढ़ेंगे
मिला कर
क़दम से क़दम,
एकजुट शक्ति
विश्वास
होगा न कम !

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(30) संक्रमण
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यह नहीं होगा —
बंदूक की नोक
सचाई को दबाये रखे,
आदमी को
आततायी के पैरों पर
झुकाये रखे,
यह नहीं होगा !

पशुता की गुलामी
अनेकों शताब्दियाँ
ढो चुकी हैं,
लेकिन अब
ऐसा नहीं होगा !

यातनाओं की किरचें
भोथरी हो चुकी हैं,
क्या तुम नहीं देखते —
क्रूर जल्लादों की
वहशी योजनाओं की
बुनियादें हिल रही हैं ?
मौत की
काल-कोठरी बने
हर देश को
ज़िन्दगी की
हवा और रोशनी
मिल रही है !

घिनौनी साज़िशों का
पर्दा उठ गया है,
सारा माहौल ही
अब तो नया है !

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(31) मज़दूरों का गीत
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मिल कर क़दम बढ़ाएँ हम
जय, फिर होगी वाम की !

शोषित जनता जागी है
पीड़ित जनता बाग़ी है
आएँ, सड़कों पर आएँ,
क्या अब चिंता धाम की !

ना यह अवसर छोड़ेंगे
काल-चक्र को मोडेंगे
शक्लें बदलेंगे, साथी
मूक सुबह की, शाम की !

नारा अब यह घर-घर है
हर इंसान बराबर है
रोटी जन-जन खाएगा
अपने-अपने काम की !

झेलें गोली सीने से
लथपथ ख़ून-पसीने से
इज़्ज़त कभी घटेगी ना
‘मेहनतकश’ के नाम की !

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(32) श्रमजित्
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घर-घर नया सबेरा लाने वाले हम
दुनिया को रंगीन बनाने वाले हम !

कलियों को मधु-गंध दिलाने वाले हम
कंठों में नव-गान बसाने वाले हम !

पैरों में झनकार भरी हमने-हमने
जीवन में रस-धार भरी हमने-हमने !

आँखों में सुन्दर स्वप्न सजाये हमने
भोर बसन्त-बहार भरी हमने-हमने !

हम जीवन जीने योग्य बनाने में रत
‘श्रम ही है पुरुषार्थ’ हमारा ऐसा मत !

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(33) वर्षान्त पर
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"प्रिय भाई,
बधाई !

नव-वर्ष
सत्फल भाग्यशाली हो,
अत्यधिक सुख दे
अमित सम्पन्नता दे
विपुल यश दे
रस-कलश दे !"

मित्रों की
सहज
या
औपचारिक
ये अनेकानेक
मंगल कामनाएँ
और सुन्दर भावनाएँ
वर्ष-भर
छलती रहीं,
सौभाग्य को
दलती कुचलती रहीं !

सुख को —
तरसता ही रहा,
सम्पन्नता पाने —
कलपता ही रहा,
यश के लिए —
उत्सुक तड़पता ही रहा,
रस की
छलकती मधुर
कनक-कटोरियों को
मन ललकता ही रहा !

नव-वर्ष का
जैसा
किया था आगमन-उत्सव,
नहीं
वैसी बिदाई !
क्या कहें कुछ और
प्रिय भाई !

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(34) विसंगति
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हम
आधुनिक नहीं,
किन्तु युग ‘आधुनिक’ है !
(कथन अलौकिक है !)

यद्यपि
तन अत्याधुनिक लिबास धारे,
किन्तु
मन जकड़े हैं हमारे
रूढ़ियों
अंध-विश्वासों से,
गतानुगत परम्पराओं
असंगत अर्थहीन प्रथाओं
आदिम संस्कारों से,
हस्त-रेखाओं
सितारों से !

मानसिकता हमारी
प्रागैतिहासिक है,
किन्तु युग ‘आधुनिक’ है !

आधुनिकता: मात्रा मुखौटा है
हमारे
दक़ियानूसी चेहरों पर,
आधुनिकता:
जगर-मगर करता
खोटा गोटा है
कोठियों पर
घरों पर।

हमारा पुराणपंथी चिन्तन
हमारा भाग्यवादी दर्शन
धकेलता है हमें
पीछे... पीछे... पीछे
अतीत में
सुदूर अतीत में
असामयिक मृत व्यतीत में।

वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं
हमारे पास;
किन्तु
वैज्ञानिक दृष्टि नहीं,
दृष्टिकोण नहीं —

(स्थिति यह
कोई उपेक्षणीय
गौण नहीं।
अद्भुत है,
अश्रुत है।)

लकीर के फ़कीर हम
आँख मूँद कर चलते हैं,
अपने को आधुनिक कह
अपने को ही छलते हैं !

कहाँ है
नये ज़माने का
नया इंसान ?
मूर्ख महन्तों को
पुजते देख
अक्ल है हैरान !

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(35) प्रजातंत्र
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जिसका
उपद्रव-मूल्य है
वह पूज्य है !
जिसका
जितना अधिक उपद्रव-मूल्य है
वह उतना ही अधिक पूज्य है !
अनुकरणीय है !
अधिकांग है,
और सब विकलांग हैं !

वंदनीय है !
जो मदान्ध है
जो कामान्ध है
क्रूर कामान्ध है
आदरणीय है,
उच्च आसन पर
सुशोभित
श्रेष्ठ समादरणीय है !

जो जितना मुखर
और लट्ठ है
जो जितना कड़ुआ मुखर
और जितना निपट लट्ठ है
उसके
पीछे-आगे
दाएँ-बाएँ
ठट्ठ हैं !
उतने ही
भारी भड़कीले ठट्ठ हैं !

उसका गौरव
अनिर्वचनीय है,
उसके बारे में
और
क्या कथनीय है !

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(36) लालसा
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हम खाते नहीं,
केवल पेट भरते हैं,
चरते हैं।
(नियति है यह,
हमारी।)
खाते
तुम हो।

सृष्टि के
सर्वोत्तम पदार्थ
(हमारे लिए गतार्थ !)

विधाता के
सकल वरदान
संचित कर लिए
तुमने अपने लिए,
वंचित कर हमें।
(प्रकृति है यह,
तुम्हारी।)

न होगा बाँस
न बजेगी बाँसुरी
न होगा दाम
न परसेगी
माँ, सुस्वादु री !
मात्रा देखेंगे
या
कथाओं में सुनेंगे,
मूक मजबूर —

(बादाम-काजू-पिश्ते,
अंगूर,
खीर-मोहन, रस-गुल्ले-रबड़ी।
हम से दूर !)

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(37) भोर
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सृष्टि का कम्बल
हटाता
आ रहा है भोर !

करता अनावृत
सुप्त नग्न पहाड़ियों को,

सकपकाता —
युगनद्ध
झबरीली
झपकती झाड़ियों को।
वे अरे, जाएँ कहाँ
किस ओर !

नटखट भोर की
इस बाल-क्रीड़ा पर
कर रहे
पशु और पक्षी शोर !

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(38) अ-तटस्थ
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पत्तों के घूँघट में
अपने को
भरसक ढाके
गोरी गोभी !
बेरहमी से
काट गया रे
कल्लू लोभी !

जो पालक
वह भक्षक
कितना छल ?
कहता —
सब्ज़ीमंडी में
बेचूंगा कल !
चल चल
मेरी हँसिया चल !

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(39) एब्सर्ड कविता
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(1)
बिल्ली रस्ता काट गयी
हँडिया कुतिया चाट गयी
औरत घर से घाट गयी
कविता, हाय ! सपाट गयी !
(2)
बिल्ली रोयी ज़ार-ज़ार
कुतिया कूदी बार-बार
औरत भटकी द्वार-द्वार
सारी-सारी तार-तार
कविता लिक्खी धार-दार !
(3)
बिल्ली-चुहिया ठाना वैर
कुतिया आयी जल में तैर
औरत निकली करने सैर
अपनी आज मनाओ ख़ैर
कविता ऐसी — सिर ना पैर !

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(40) श्रद्धांजलि
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बेघरबार रहकर भी दिया आश्रय, फ़कीरों की तरह
फ़ाक़ामस्त रहकर भी जिये आला अमीरों की तरह
अंकित हो गये तुम मानवी इतिहास में कुछ इस क़दर
आएगा तुम्हारा नाम होंठों पर नज़ीरों की तरह !

चमके तम भरे विस्तृत फ़लक पर चाँद-तारों की तरह,
रेगिस्तान में उमड़े अचानक तेज़ धारों की तरह,
पतझर-शोर, गर्द-गुबार, ठंडी और बहकी आँधियाँ
महके थे तुम्हीं, वीरान दुनिया में, बहारों की तरह !

(महाप्राण निराला की स्मृति में।)

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(41) सर्वहारा का वक्तव्य
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लोग
हमारी भाषा में
बोल रहे हैं,
यह सच है।

सारे वे ख़ौफ़नाक शब्द
आज गूँज रहे हैं
संसद में
नेताओं के वक्तव्यों में
यह सच है !

अरे, हमारे नारे
लगा रहे तुम भी ?
अचरज
पर, सच है।

हलचल / तत्परता
आज अचानक
लोग
हमारे अर्गल
खोल रहे हैं,
यह सच है।

आला-आला अफ़सर
आज
अँधेरी झोपड़ियों में
जा-जा
दुख दर्द हमारे
पहली बार
टटोल रहे हैं,
यह सच है।

लगता है —
‘क्रांति’ उभर आयी है !
गाँवों में
नगरों में
‘जनवादी’ फ़ौज़
उतर आयी है !
कैसा अद्भुत
जन-आन्दोलन है !
सत्ता-लोलुप नेताओं में
रातों-रात
हुआ परिवर्तन है !

अथवा
यह स्व-रक्षा हित
केवल आडम्बर है,
छल-छद्म भरा
मिथ्या संवेदन-स्वर है।

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(42) अभूतपूर्व
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ऐसा
कभी हुआ नहीं —
पंगु हो गये हों शब्द,
पैरों वाले शब्द
चलने-दौड़ने वाले शब्द,
एक नहीं
अनेक-अनेक शब्द !

ऐसा
कभी हुआ नहीं —
निरर्थक हो गये हों
शब्द,
विविध भंगिमाओं वाले
विविध अर्थ-गर्भी शब्द,
ऐसे खोखले हो गये हों,
बेअसर
मात्र चिन्ह-धर !

शब्द
बैसाखी लगाकर नहीं चलते,
उनके पदों में
पंख होते हैं,
सुदूर असीम आकाश में
सौ-सौ गज़ उछलते हैं !
गहनतम खाइयों को
लाँघ जाते हैं,
बार-बार
अनमोल माणिक
बाँध लाते हैं !

ऐसे शब्द
ऐसे तीव्रगामी शब्द
ऐसे तिमिर-भेदी शब्द
कभी हुआ नहींµ
लँगड़ा गये हों,
चकरा गये हों
ठंडा गये हों !

समूची ज़िन्दगी की
घनीभूत पीड़ा भरे
शब्द,
इस क़दर
छूँछे हो गये हों !
बे-तरह
हवा में खो गये हों !

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(43) आश्वास
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घने कुहरे ने
ढक लिया आकाश,
घने कुहरे ने
भर लिया आकाश !

रास्ते सब बन्द हैं,
जीवन निस्पन्द है !
कितना
सिकुड़ गया है क्षितिज —
चारों ओर का विस्तृत क्षितिज !
धुँधले पर्यावरण में
क़ैद हैं हम,
कितना विषम है
समय की सातत्यता का क्रम !

ध्वनि-तरंगें रुद्ध हैं,
समूची चेतना
भयावह वातावरण में बद्ध है,
सब तरफ़
मात्रा एक
स्थिर अलस मूकता का राज है,
स्तम्भित
सहमा हुआ
समस्त समाज है।

सुनोµ
मैं आता हूँ,
सूरज की तरह आता हूँ !
दृष्टि का आलोक
मेरे पास है,
आत्म-शक्ति का
अक्षय विश्वास है !

अँधेरे के
कुहरे के
पर्वतों को ढहा दूंगा !
मार्ग-रोधक
सब बहा दूंगा !

आकाश
फिर गूँजेगा,
नाना ध्वनियों से गूँजेगा !
प्रकाश
फिर फैलेगा,
उमड़ता
लहरता
धारा-प्रवाह
प्रकाश फैलेगा।

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(44) मुक्त-कण्ठ
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कौन है
जो तुम्हें सच
बोलने नहीं देता ?
कौन है
जो तुम्हें
ज़िन्दगी की असलियत
खोलने नहीं देता ?
कौन है हावी
तुम्हारी चेतना पर ?
किसने
बाँध दी हैं शृंखलाएँ
अन्तःप्रेरणा पर ?

किसने
दबोच रखा है, भला
तुम्हारा गला ?

चेहरे पर अंकित
रेखाएँ घुटन की,
डबडबायी आँखें
चीखती —
निरीहता मन की !

कब तलक
रहेगा सूखा हलक़ ?

आवाज़ —
भर्रायी हुई आवाज़
बोलती है,
कितना स्पष्ट
सब बोलती है !

नहीं,
यह बंध शिथिल हो,
हर धड़कन पर शिथिल हो !
कंठ मुक्त हो,
उन्मुक्त हो !
बोलो —
जकड़न टूटेगी !
शब्द-शब्द से
रोशनी फूटेगी !

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(45) संधान
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इस बीच:
जीये किस तरह —
हम ही जानते हैं !
कितना भयावह था
लहरता-उफ़नता-टूटता
सैलाब —
हम ही जानते हैं !

अर्थ:
जीवन का: जगत् का
गूढ़ था जो आज तक
अब हम
उसे अच्छी तरह से
हाँ,
बहुत अच्छी तरह से
जानते हैं !

असंख्य परतों को लपेटे
आदमी
अब पारदर्शी है,
भीतर और बाहर से
उसे हम
सही,
बिलकुल सही
पहचानते हैं !

आओ, तुम्हें —
हाँफ़ते,
दम तोड़ते
तूफ़ान की गाथा सुनाएँ !
जलती ज़िन्दगी से जूझते
इंसान की गाथा सुनाएँ !

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रचना-काल : सन्1972-1976
प्रकाशन-वर्ष : सन्1984
प्रकाशक : किताब महल, इलाहाबाद, उ.प्र.

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