मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015
मंगलवार, 22 सितंबर 2015
काव्ययुग: पुस्तक चर्चा: कवि महेंद्रभटनागर का चाँद-खगेंद्र ठा...
काव्ययुग: पुस्तक चर्चा: कवि महेंद्रभटनागर का चाँद-खगेंद्र ठा...: कुछ और जीना चाहता हूँ.. ‘चाँद, मेरे प्यार!’ नाम से महेंद्रभटनागर के मात्र प्रेम-गीतों का एक विशिष्ट संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें...
शनिवार, 15 अगस्त 2015
गुरुवार, 30 जुलाई 2015
सुबोध सृजन: पुस्तक चर्चा: कवि महेंद्रभटनागर का चाँद-खगेंद्र ठा...
सुबोध सृजन: पुस्तक चर्चा: कवि महेंद्रभटनागर का चाँद-खगेंद्र ठा...: कुछ और जीना चाहता हूँ.. ‘चाँद, मेरे प्यार!’ नाम से महेंद्रभटनागर के मात्र प्रेम-गीतों का एक विशिष्ट संकलन प्रकाशित हुआ है। इसमें स...
गुरुवार, 4 जून 2015
परिवर्तनकामी गीतकार
महेन्द्रभटनागर
— डॉ॰ बुद्धिनाथ
मिश्र
आधुनिक हिन्दी गीत-कविता के भीष्म पितामह श्री महेन्द्रभटनागर वस्तुतः युग-पुरुष हैं। उनका हमारे समय में होना और निर्बाध रूप से लिखते रहना हमारे लिए गौरव की बात है । वे हिन्दी गीत को एक विशेष आयाम देनेवाले श्रेष्ठ कवियों में हैं और हम सबके लिए एक छायादार वृक्ष की तरह प्रेरणा-पुरुष हैं।
उन्होंने जब गीत लिखना शुरू किया था, तब छायावाद अपने चरमोत्कर्ष पर था। उसकी रेखाओं के बीच गाढ़ा रंग भरनेवाले बहुत-से कवि थे, जो आधारशिला की भाँति अचर्चित ही रहे, जबकि उनमें मन्दिर के कलश की तरह
शीर्ष
पर स्थापित होने की पूरी क्षमता थी। महेन्द्रभटनागर जी उनमें से ही एक हैं, जिनका तमाम मूल्यांकनों के बावजूद आजतक सम्पूर्ण मूल्यांकन नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं तो भरपूर लिखा ही, कनिष्ठ कवियों को भी गीत लिखने के लिए अपने व्यक्तिगत प्रभाव से सम्मोहित किया। उनके गीत जहाँ एक ओर छायावाद के तारों को झनकारते हैं, वहीं दूसरी ओर नवगीत के मुख्य यथार्थवादी स्वर से टकराते हैं। ऐसा विराट फलक शायद ही किसी गीतकार के पास है।
इसे हम उनकी जीवन्तता कहें या समय के साथ चलने की प्रवृत्ति कि इतने वयोवृद्ध होते हुए भी वे आज भी नवयुवकों की तरह दौड़ रहे हैं और अपनी रचनाओं को मुद्रित पुस्तकों से निकालकर डिजिटल दुनिया तक लाने की जद्दोजहद में पूरी तरह सक्रिय हैं, जिससे देश और भाषा की सीमाओं के पार का हिन्दी जगत भी उनके गीत गुनगुना सके।
महेन्द्रभटनागर जी के गीत सहज और सरल हैं। कोई दाँव-पेंच नहीं, कोई कलाबाजी नहीं। उनके भाव और विचार अनुभव-जन्य हैं, आयातित नहीं। वे गीतों में अपने आसपास के जीवन को शब्द देते हैं। जो दिखा, सो लिखा। इसीलिए उनके गीतों में प्रकृति पूरी व्यापकता और वत्सलता के साथ हर जगह मौजूद है। जो बात उन्होंने तारों के लिए कही, वही उनके गीतों की परिभाषा भी है:
जब जग में आग धधकती है, लपटों से दुनिया जलती है,
अत्याचारों से पीडि़त जब भू-माता आज मचलती है,
ये दुःख मिटाने वाले हैं; जग को शीतल कर जाएंगे !
ये हिम बरसाने वाले हैं, ये अग्नि नहीं बरसाएंगे !
महेन्द्रभटनागर जी का, सन् 1941-42 में रचित, पहला गीत-संग्रह ‘तारों के गीत’
सन्
1949में प्रकाशित हुआ था। सरकारी अभिलेख कहते हैं कि मेरा जन्म भी उसी साल हुआ था। उनका नवीनतम अठारहवाँ कविता-संग्रह ‘राग-संवेदन’ सन् 2005 में प्रकाशित हुआ।
इस दीर्घ अवधि में उनके अनेक काव्य-ग्रन्थ, आलोचना-ग्रन्थ, लघुकथा संग्रह, एकांकी संग्रह और
बाल-किशोर साहित्य प्रकाशित हो चुका है।
महेन्द्रभटनागर
जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को सृजनशीलता से जोड़ा और बिना फलप्राप्ति की आकांक्षा के भारती के भंडार को दोनो हाथों से उलीचकर भरा। ऐसे विराट व्यक्तित्व पर कुछ लिखना मेरे जैसे अल्पज्ञों के लिए ख़तरे से खाली नहीं है, क्योंकि कोई कितना भी लिखेगा,अधूरा ही रहेगा।
उनका काव्य-जगत छन्दोबद्ध और छन्दरहित दोनों है। यों कहें कि ‘बुद्ध भी है, युद्ध भी है’, जिसे चाहो उसे चुन लो। मैने उनके गीतों को समग्र रूप में पढ़ा है, यह कहना असत्य होगा, मगर यह सोलहो आने सत्य है कि मैने जितने गीत पढ़े, वे सभी प्रीतिकर और सकारात्मक लगे । जीवन के उत्थान-पतन के, सपनों और अरमानों के गीत। गीत जिनमें संकल्प है। गीत जिनमें समय से आगे निकल जाने की ललक है।
नवगीत ने मुक्तछन्द कविता की डाँड़ामेड़ी में
तमाम
ऐसे बिम्बों-प्रतीकों को भी अपना लिया, जो सामान्यजन की कल्पनाशीलता की परिधि से परे थे। इससे गीत का स्वाभाविक प्रसाद गुण तिरोहित होने लगा और लोग नवगीत में मगज़मारी करने लगे। महेन्द्रभटनागर जी निरन्तर लिखते रहने और प्रचुर लिखने के बाद भी यदि व्यापक चर्चा में नहीं आये, तो उसका एक कारण उनका काव्यमंच से दूर रहना भी है। दूसरा कारण यह भी है कि उन्होंने दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगर का दामन पकड़ने के बजाय ग्वालियर की उन गलियों में रमना स्वीकार किया, जिसके रेशे-रेशे में शास्त्रीय राग-रागिनियों के सुर बजते हैं और मर्मस्थल को बीधनेवाले शब्द मन्दिर के घंटे की तरह गूँजते हैं। मगर इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि इससे महेन्द्रभटनागर जी के कर्तृत्व का मूल्य कम हो जायेगा। भवभूति आश्वस्ति देते हैं कि ‘कालो ह्ययं निरवधिः विपुला च पृथ्वी’ । समय अनन्त है और पृथ्वी विशाल है। कब अनुकूल समय पाकर कौन बीज धरती के गर्भ से फूट निकलेगा, कहा नहीं जा सकता।
केदारनाथ घाटी के महाप्रलय के सन्दर्भ में महेन्द्रभटनागर जी का यह
वर्षों
पुराना गीत कितना प्रासंगिक है:
हो जाते पल में नष्ट सभी भू, तरु, तृण, घर जिस क्षण गिरता,
ध्वंस, मरण हाहाकारों का स्वर, आ विप्लव बादल घिरता,
दृश्य — प्रलय
से
भीषणतर
कर,
स्वर — जैसा विस्फोट भयंकर,
गति — विद्युत-सी ले मुक्त प्रखर,
सब मिट जाता बेबस उस क्षण, जग का उपवन प्यारा-प्यारा !
जब गिरता है भू पर तारा !
महेन्द्रभटनागर जी ने सन् 1948 में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) किया था और प्रेमचन्द के समस्यामूलक उपन्यासों पर शोध कर सन् 1957 में पीएच.डी. की डिग्री हासिल की थी। जुलाई 1945 से लेकर जुलाई 1984 तक एक कुशल अधीती प्राध्यापक की भूमिका निभाते हुए उन्होंने म.प्र. के उज्जैन, देवास, दतिया, इन्दौर, महू, मंदसौर और ग्वालियर जैसे सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध नगरों में आवास किया। उनका जन्म 1926 में झाँसी में हुआ था। राष्ट्रीय महत्व के इस नगर की मिट्टी का भी असर उनके लेखन पर पड़ा। उनका अधिकांश जीवन बुन्देलखंड, चम्बल और मालवा अंचल में बीता। इन अंचलों की मिट्टी-हवा-पानी का प्रभाव भी उनकी रचनाओं पर पड़ा। ये ही विशेषताएँ उनके काव्य-वैभव को अलग पहचान भी देती हैं।
उन्हे नादान बच्चों की हँसी प्यारी लगती है और किसानों के गले के गीत की कड़ियाँ भी। वे इन्हें कभी युद्ध के हवाले नहीं होने देंगे, क्योंकि वे इन्सानियत और शान्ति में विश्वास रखते हैं और ‘नई चेतना’ (1956) में छाती ठोककर कहते हैं:
हँसी पर ख़ून के छींटे
कभी पड़ने नहीं देंगे !
नये इंसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे ।
यह संकल्प उसीके मन में उठ सकता है, जो अग्निकुंड से तपकर निकला हो। महेन्द्रभटनागर जी ने निरभ्र आकाश के तारे देखे हैं तो यथार्थ की धरती पर गुलाब के संग उगे काँटों की बींध को भी सहा है। तभी वे कहते हैं:
रौरव नरक-कुंड में
मर-मर जीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
सोचे-समझे, मूक विवश बन
विष के पैमाने पीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
एक सक्षम नायक की तरह वे नरक-कुंड की पीड़ा में
लिप्त
नहीं होते, बल्कि उससे ऊपर उठने की कोशिश करते हैं। वे अन्य प्रगतिवादियों की भाँति जीवन के नाकारेपन को नहीं गाते, बल्कि उसमें परिवर्तन लाने का आह्वान करते हैं। यहीं वे मुक्तछन्द कवियों के विधवा-विलाप से अलग हो जाते हैं, क्योंकि वे परिवर्तनकामी गीतकार हैं, क्योंकि वे सकरात्मक सोच की कविता के प्रवर्तक हैं।
उनकी मुक्तछन्द की कविताएँ भी मात्रिक अनुशासन में निबद्ध हैं। उनकी प्रतिष्ठा सामान्यतः प्रगतिशील मानवतावादी कवि के रूप में है और उनकी कविताओं पर कलम चलानेवालों में रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, विद्यानिवास मिश्र, शिवकुमार मिश्र जैसे दिग्ग्ज साहित्यकार हैं। जब वे तरुण कवि थे, तभी डा. रामविलास शर्मा ने उनपर बहुत सही टिप्पणी की थी कि ‘इस तरुण कवि ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी जि़न्दगी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करे।’ इसी मूलमन्त्र ने महेन्द्रभटनागर जी के आक्रोश को कभी उच्च स्वर में अभिव्यक्त नहीं होने दिया । उन्होंने जो भी लिखा, अनुभवों को पचाकर लिखा।
एक नवोन्मेषी गीतकार के रूप में उनका स्वतन्त्र मूल्यांकन होना बाकी है। हम जैसे दो-चार गीतकारों ने मिलकर जितना नहीं लिखा होगा, उससे कहीं ज्यादा गीत उन्होंने अकेले लिखे हैं और अपने समय की लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रिकाओं में ससम्मान छपे हैं। उनकी कविताएँ स्फटिक शिला की भाँति पारदर्शी भी हैं और टिकाऊ भी। वे समय के साथ जितनी पुरानी होंगी, उतनी सुहानी होती जाएँगी, विद्यापति के पदों की तरह, कबीर के दोहों की तरह, तुलसी की चैपाइयों की तरह।
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