शुक्रवार, 21 मई 2010

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य संग्रह === आहत युग

डॉ0 महेंद्रभटनागर का काव्य संग्रह === आहत युग
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संकलित कवितायेँ

1. संग्राम : और
2. अमानुषिक
3. फ़तहनामा
4. त्रासदी
5. होगा कोई
6. हॉकर
7. आत्मघात
8. लोग
9. आपात्काल
10. जागते रहना
11. ज़रूरी
12. इतिहास का एक पृष्ठ
13। वसुधैवकुटुम्बकम्
14. भ्रष्टाचार
15. अंत
16. रक्षा
17. तमाशा
18. वोटों की दुष्ट-नीति
19. घटनाचक्र
20. निष्कर्ष
21. आत्म-संवेदन
22. दिशा-बोध
23. स्वीकार
24. अवधान
25. सामना
26. अकारथ
27. असह
28. मूरत अधूरी
29. मजबूर
30. एक रात
31. सहसा
32. स्वागत
33. वर्षा-पूर्व
34. कामना-सूर्य
35. एक सत्य
36. उपलब्धि
37. विचार-विशेष
38. सार्थकता
39. अलम्
40. चाह
41. सम्भव [एक]
42. सम्भव [दो]
43. विपत्
44. स्वतंत्र



(1) संग्राम; और
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जिस स्वप्न को
साकार करने के लिए —
सम्पूर्ण पीढ़ी ने किया
संघर्ष
अनवरत संघर्ष,
सर्वस्व जीवन-त्याग;
वह
हुआ आगत !
*
कर गया अंकित
हर अधर पर हर्ष,
चमके शिखर-उत्कर्ष !
प्रोज्ज्वल हुई
हर व्यक्ति के अंतःकरण में
आग,
अभिनव स्फूर्ति भरती आग !
संज्ञा-शून्य आहत देश
नूतन चेतना से भर
हुआ जाग्रत,
सघन नैराश्य-तिमिराच्छन्न कलुषित वेश
बदला दिशाओं ने,
हुआ गतिमान जन-जन
स्पन्दन-युक्त कण-कण !
*
आततायी निर्दयी
साम्राज्यवादी शक्ति को
लाचार करने के लिए —
नव-विश्वास से ज्योतित
उतारा था समय-पट पर
जिस स्वप्न का आकार
वह,
हाँ, वह हुआ साकार!
*
लेकिन तभी....
अप्रत्याशित-अचानक
तीव्रगामी / धड़धड़ाते / सर्वग्राही,
स्वार्थ-लिप्सा से भरे
भूकम्प ने
कर दिए खंडित —
श्रम-विनिर्मित
गगन-चुम्बी भवन,
युग-युग सताये आदमी के
शान्ति के, सुख के सपन !
*
इसलिए; फिर
दृढ़ संकल्प करना है,
वचन को पूर्ण करना है,
विकृत और धुँधले स्वप्न में
नव रंग भरना है,
कमर कस कर
फिर कठिन संघर्ष करना है !


(2) अमानुषिक
--------------------

आज फिर
खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर
धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !
*
ढह गये
साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये
अतितीव्र अतिक्रामक
उफनते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !
*
आज छाये; फिर
प्रलय-घन,
सूर्य- संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा
यह देश मेरा
आज फिर
मर्माहत हुआ !
*
फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से
पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर
क्षत-विक्षत हुई !
*
जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्र दानव वेश !
घुट रही साँसें
प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल
छटपटाती आयु !


(3) फतहनामा
-------------------

आतंक सियापा !
छलनी / खून-सनी
बेगुनाह लाशें,
खेतों-खलियानों में
छितरी लाशें,
सड़कों पर
बिखरी लाशें !
*
निरीह
माँ, पत्नी, बहनें, पुत्रियाँ,
पिता, बन्धु, मित्र, पड़ोसी —
रोके आवेग
थामे आवेश
नत मस्तक
मूक विवश !
*
जश्न मनाता
पूजा-घर में
सतगुरु-ईश्वर-भक्त
खु़दा-परस्त !


(4) त्रासदी
----------------

दहशत : सन्नाटा
दूर-दूर तक सन्नाटा !
*
सहमे-सहमे कुत्ते
सहमे-सहमे पक्षी
चुप हैं।
*
लगता है-
क्रूर दरिन्दों ने
निर्दोष मनुष्यों को फिर मारा है,
निर्ममता से मारा है !
रातों-रात
मौत के घाट उतारा है !
सन्नाटे को गहराता
गूँजा फिर मज़हब का नारा है !
ख़तरा,
बेहद ख़तरा है !
*
रात गुज़रते ही
घबराए कुत्ते रोएंगे,
भय-विह्वल पक्षी चीखेंगे !
*
हम
आहत युग की पीड़ा सह कर
इतिहासों का मलबा ढोएंगे !


(5) होगा कोई
-----------------

एक आदमी / झुका-झुका / निराश
दर्द से कराहता हुआ
तबाह ज़िन्दगी लिए
गुज़र गया।
*
एक आदमी / झुका-झुका / हताश
चोट से लहूलुहान
चीखता हुआ / पनाह माँगता / अभी-अभी
गुज़र गया।


(6) हॉकर से
------------------

यह क्या
रोज़-रोज़
तरबतर खून से
अख़बार फेंक जाते हो तुम
घर में मेरे ?
*
तमाम हादसों से रँगा हुआ
अंधाधुंध गोलियों के निशान
पृष्ठ-पृष्ठ पर स्पष्ट उभरते !
*
छूने में.....पढ़ने में इसको
लगता है डर,
लपटें लहराता
जहर उगलता
डसने आता है अख़बार !
*
यद्यपि
यही ख़बर सुन कर
सोता हूँ हर रात
कि कोई कहीं
अप्रिय घटना नहीं घटी,
तनाव है
किन्तु नियंत्रण में है सब !

(7) आत्मघात
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हम खुद
तोड़ रहे हैं अपने को !
ताज़्जुब कि
नहीं करते महसूस दर्द !
इसलिए कि
मज़हब का आदिम बर्बर उन्माद
नशा बन कर
हावी है
दिल पर सोच-समझ पर।
हम ख़ुद
हथगोले फोड़ रहे हैं अपने ही ऊपर !
पागलपन में
अपने ही घर में
बारूद बिछा कर सुलगा आग रहे हैं
अपने ही लोगों पर करने वार-प्रहार !
*
हम ख़ुद
छोड़ रहे हैं रूप आदमी का
और पहन आये हैं खालें जानवरों की
गुर्राते हैं
छीनने-झपटने जानें
अपने ही वंशधरों की !

(8) लोग
--------------

चल रहे हैं लोग
सिर्फ़ पीछे भीड़ के !
*
जाना कहाँ
नहीं मालूम,
हैं बेख़बर
निपट महरूम,
*
घूमते या इर्द -
गिर्द अपने नीड़ के !
*
छाया इधर-
उधर जो शोर,
आया कहीं
न आदमखोर ?
*
सरसराहट आज
जंगलों में चीड़ के !

(9) आपात्काल
--------------------

तूफ़ान
अभी गुज़रा नहीं है !
बहुत कुछ टूट चुका है
टूट रहा है,
मनहूस रात
शेष है अभी !
*
जागते रहो
हर आहट के प्रति सजग
जागते रहो !
न जाने
कब.....कौन
दस्तक दे बैठे —
शरणागत।
*
ज़हर उगलता
फुफकारता
आहत साँप-सा तूफ़ान
आख़िर गुज़रेगा !
सब कुछ लीलती
घनी स्याह रात भी
हो जाएगी ओझल !
*
हर पल
अलस्सुबः का इंतज़ार
अस्तित्व के लिए !

(10) जागते रहना
---------------------

जागते रहना, जगत में भोर होने तक !
*
छा रही चारों तरफ़ दहशत
रो रही इंसानियत आहत
वार सहना, संगठित जन-शोर होने तक !
*
मुक्त हो हर व्यक्ति कारा से
जूझना विपरीत धारा से
जन-विजय संग्राम के घनघोर होने तक !
*
मौत से लड़ना, नहीं थकना
अंत तक बढ़ना नहीं रुकना
हिंसकों के टूटने - कमज़ोर होने तक !

(11) ज़रूरी
-----------------

इस स्थिति को बदलो
कि आदमी आदमी से डरे,
इन हालात को हटाओ
कि आदमी आदमी से नफ़रत करे !
*
हमारे बुज़ुर्ग
हमें नसीहत दें कि
बेटे, साँप से भयभीत न होओ
हर साँप ज़हरीला नहीं होता,
उसकी फूत्कार सुन
अपने को सहज बचा सकते हो तुम।
हिंस्र शेर से भी भयभीत न होओ
हर शेर आदमखोर नहीं होता,
उसकी दहाड़ सुन
अपने को सहज बचा सकते हो तुम !

पशुओं से, पक्षियों से
निश्छल प्रेम करो,
उन्हें अपने इर्द-गिर्द सिमटने दो
अपने तन से उन्हें लिपटने दो,
कोशिश करो कि
वे तुमसे न डरें
तुम्हें देख न भगें,
पंख फड़फड़ा कर उड़ान न भरें,
चाहे वह
चिड़िया हो, गिलहरी हो, नेवला हो !
*
तुम्हारे छू लेने भर से बीरबहूटी
स्व-रक्षा हेतु
जड़ बनने का अभिनय न करे !
तुम्हारी आहट सुन
खरगोश कुलाचें भर-भर न छलाँगे
सरपट न भागे !
*
लेकिन
दूर-दूर रहना
सजग-सतर्क
इस आदमजाद से !
जो-
न फुफकारता है, न दहाड़ता है,
अपने मतलब के लिए
सीधा डसता है,
छिप कर हमला करता है !
कभी-कभी यों ही
इसके-उसके परखचे उड़ा देता है !
फिर चाहे वह
आदमी हो, पशु हो, पक्षी हो,
फूल हो, पत्ती हो, तितली हो, जुगनू हो !
*
अपना, बस अपना
उल्लू सीधा करने
यह आदमी
बड़ा मीठा बोलता है,
सुनने वाले कानों से मधुरस घोलता है !
*
लेकिन
दबाए रखता है विषैला फन,
दरवाजे पर सादर दस्तक देता है,
'जयराम जी‘ की करता है !
तुम्हारे गुण गाता है !
और फिर
सब कुछ तबाह कर
हर तरफ से तुम्हें तोड़ कर
तडपने-कलपने छोड़ जाता है !
*
आदमी के सामने ढाल बन कर जाओ,
भूखे-नंगे रह लो
पर, उसकी चाल में न आओ !
ऐसा करोगे तो
सौ बरस जिओगे, हँसोगे, गाओगे !
*
इस स्थिति को बदलना है
कि आदमी आदमी को लूटे,
उसे लहूलुहान करे,
हर कमज़ोर से बलात्कार करे,
निर्द्वन्द्व नृशंस प्रहार करे,
अत्याचार करे !
और फिर
मंदिर, मसज़िद, गिरजाघर, गुरुद्वारा जाकर
भजन करे,
ईश्वर के सम्मुख नमन करे !
*
(12) इतिहास का एक पृष्ठ
----------------------------

सच है —
घिर गये हैं हम
चारों ओर से
हर क़दम पर
नर-भक्षियों के चक्रव्यूहों में,
भौंचक-से खड़े हैं
लाशों-हड्डियों के
ढूहों में !
*
सच है —
फँस गये हैं हम
चारों ओर से
हर क़दम पर
नर-भक्षियों के दूर तक
फैलाए-बिछाए जाल में,
छल-छद्म की
उनकी घिनौनी चाल में !
*
बारूदी सुरंगों से जकड़ कर
कर दिया निष्क्रिय
हमारे लौह-पैरों को
हमारी शक्तिशाली दृढ़ भुजाओं को !
भर दिया घातक विषैली गंध से
दुर्गन्ध से
चारों दिशाओं की हवाओं को !
*
सच है -
उनके क्रूर पंजों ने
है दबा रखा गला,
भींच डाले हैं
हर अन्याय को करते उजागर
दहकते रक्तिम अधर !
मस्तिष्क की नस-नस
विवश है फूट पड़ने को,
ठिठक कर रह गये हैं हम !
खंडित पराक्रम
अस्तित्व / सत्ता का अहम् !
*
सच है कि
आक्रामक-प्रहारक सबल हाथों की
जैसे छीन ली क्षमता त्वरा —
अब न हम ललकार पाते हैं
न चीख पाते हैं,
स्वर अवरुद्ध
मानवता-विजय-विश्वास का,
सूर्यास्त जैसे
गति-प्रगति की आस का !
अब न मेधा में हमारी
क्रांतिकारी धारणाओं-भावनाओं की
कड़कती तीव्र विद्युत कौंधती है,
चेतना जैसे
हो गयी है सुन्न जड़वत् !
*
चेष्टाहीन हैं / मजबूर हैं,
हैरान हैं,
भारी थकन से चूर हैं !
*
लेकिन
नहीं अब और
स्थिर रह सकेगा
आदमी का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता का दौर !
*
दृढ़ संकल्प करते हैं
कठिन संघर्ष करने के लिए,
इस स्थिति से उबरने के लिए !
*
(13) वसुधैवकुटुम्बकम्
-------------------------

जाति, वंश, धर्म, अर्थ के नामाधार पर
आदमी आदमी में करना
भेद-विभेद,
किसी को निम्न
किसी को ठहराना श्रेष्ठ,
किसी को कहना अपना
किसी को कहना पराया —
आज के उभरते-सँवरते नये विश्व में
गंभीर अपराध है,
अक्षम्य अपराध है।
*
करना होगा नष्ट-भ्रष्ट
ऐसे व्यक्ति को / ऐसे समाज को
जो आदमी-आदमी के मध्य
विभाजन में रखता हो विश्वास
अथवा
निर्धनता चाहता हो रखना क़ायम।
*
सदियों के अनवरत संघर्ष का
सह-चिन्तन का
निष्कर्ष है कि
हमारी-सबकी
जाति एक है — मानव,
हमारा-सबका
वंश एक है — मनु-श्रद्धा,
हमारा-सबका
धर्म एक है — मानवीय,
हमारा-सबका
वर्ग एक है — श्रमिक।
*
रंग रूप की विभिन्नता
सुन्दर विविधरूपा प्रकृति है,
इस पर विस्मय है हमें
इस पर गर्व है हमें,
सुदूर आदिम युग में
लम्बी सम्पर्क दूरियों ने
हमें भिन्न-भिन्न भाषा-बोल दिए,
भिन्न-भिन्न लिपि-चिह्न दिए।
*
किन्तु आज
इन दूरियों को
ज्ञान-विज्ञान के आलोक में
हमने बदल दिया है नज़सदीकियों में,
और लिपि-भाषा भेद का अँधेरा
जगमगा दिया है
पारस्परिक मेल-मिलाप के प्रकाश में,
मैत्री-चाह के अदम्य आवेग ने
तोड़ दी हैं दीवारें / रेखाएँ
जो बाँटती हैं हमें
विभिन्न जातियों, वंशों, धर्मों, वर्गों में।

(14) भ्रष्टाचार
------------------

गाजर घास-सा
चारों तरफ़
क्या खूब फैला है !
देश को हर क्षण
पतन के गर्त में
गहरे ढकेला है,
करोड़ों के
बहुमूल्य जीवन से
क्रूर वहशी
खेल खेला है !
*
वर्जित गलित
व्यवहार है,
दूषित भ्रष्ट
आचार है।

(15) अंत
--------------

जमघट ठगों का
कर रहा जम कर
परस्पर मुक्त जय-जयकार !
*
शीतक-गृहों में बस
फलो-फूलो,
विजय के गान गा
निश्चिन्त चक्कर खा,
हिँडोले पर चढ़ो झूलो !
जीवन सफल हो,
हर समस्या शीघ्र हल हो !
*
धन सर्वस्व है, वर्चस्व है,
धन-तेज को पहचानते हैं ठग,
उसकी असीमित और अपरम्पार महिमा
जानते हैं ठग !
*
किन्तु;
सब पकड़े गये
कानून में जकड़े गये
सिद्ध स्वामी; राज नेता सब !
धूर्त मंत्री; धर्मचेता सब !
*
अचम्भा ही अचम्भा !
हिडिंबा है; नहीं रम्भा !
*
मुखौटे गिर पड़े नक़ली
मुखाकृति दिख रही असली !
*
(16) रक्षा
--------------

देश की नव देह पर
चिपकी हुई
जो अनगिनत जोंके-जलौकें,
रक्त-लोलुप
लोभ-मोहित
बुभुक्षित
जोंके-जलौकें —
आओ
उन्हें नोचें-उखाड़ें,
धधकती आग में झोंकें !
उनकी
आतुर उफ़नती वासना को
फैलने से
सब-कुछ लील लेने से
अविलम्ब रोकें !
देश की नव देह
यों टूटे नहीं,
ख़ुदगरज़ कुछ लोग
विकसित देश की सम्पन्नता
लूटे नहीं !
*
(17) तमाशा
----------------

तुम भी घिसे-पिटे सिक्के
फेंक कर चले गये?
अफसोस
कि हम इस बार भी छले गये!
*
देखो-
खोटा सिक्का है न
'धर्म-निरपेक्षता‘ का ?
और दूसरा यह
'सामाजिक न्याय-व्यवस्था‘ का ?
मात्र ये नहीं
और हैं सपाट घिसे काले सिक्के —
'राष्ट्रीय एकता‘ के / 'संविधान-सुरक्षा‘ के
जो तुम इस बार भी
विदूषक के कार्य-कलापों-सम
फेंक कर चले गये!
*
तुम तो भारत-भाग्य-विधाता थे !
तुमसे तो
चाँदी-सोने के सिक्कों की
की थी उम्मीद,
किन्तु की कैसी मिट्टी पलीद !
*
अद्भुत अंधेरे तमाशा है
घनघोर निराशा है,
यह किस जनतंत्र-प्रणाली का ढाँचा है ?
जनता के मुँह पर
तड़-तड़ पड़ता तीव्र तमाचा है !
*
(18) वोटों की दुष्टनीति
-------------------------

दलितों की गलियों से
कूचों और मुहल्लों से,
उनकी झोपड़पट्टी के
बीचों-बीच बने-निकले
ऊबड़-खाबड़, ऊँचे-नीचे
पथरीले-कँकरीले सँकरे पथ से
निकल रहा है
दलितों का
आकाश गुँजाता, नभ थर्राता
भव्य जुलूस !
*
नहीं किराये के
गलफोडू नारेबाज़ नक़लची
असली है, सब असली हैं जी —
मोटे-ताजे, हट्टे-कट्टे
मुश्टंडे-पट्ठे,
कुछ तोंद निकाले गोल-मटोल
ओढे महँगे-महँगे खोल !
*
सब देख रहे हैं कौतुक —
दलितों के
नंग-धड़ंग घुटमुंडे
काले-काले बच्चे,
मैली और फटी
चड्डी-बनियानों वाले
लड़के-फड़के,
झोंपडयों के बाहर
घूँघट काढ़े दलितों की माँ-बहनें
क्या कहने !
चित्र-लिखी-सी देख रही हैं,
पग-पग बढ़ता भव्य जुलूस,
दलितों का रक्षक, दलितों के हित में
भरता हुँकारें, देता ललकारें
चित्र खिँचाता / पीता जूस !
निकला अति भव्य जुलूस !

कल नाना टीवी-पर्दों पर
दुनिया देखेगी
यह ही, हाँ यह ही —
दलितों का भव्य जुलूस !
*
अफ़सोस !
नहीं है शामिल इसमें
दलितों की टोली,
अफ़सोस !
नहीं है शामिल इसमें
दलितों की बोली !

(19) घटनाचक्र
------------------

हमने नहीं चाहा
कि इस घर के
सुनहरे-रुपहले नीले
गगन पर
घन आग बरसे !
*
हमने नहीं चाहा
कि इस घर का
अबोध-अजान बचपन
और अल्हड़ सरल यौवन
प्यार को तरसे !
*
हमने नहीं चाहा
कि इस घर की
मधुर स्वर-लहरियाँ
खामोश हो जाएँ,
यहाँ की भूमि पर
कोई
घृणा प्रतिशोध हिंसा के
विषैले बीज बो जाए !
*
हमने नहीं चाहा
प्रलय के मेघ छाएँ
और सब-कुछ दें बहा,
गरजती आँधियाँ आएँ
चमकते इंद्रधनुषी
स्वप्न-महलों को
हिला कर
एक पल में दें ढहा !
*
पर,
अनचाहा सब
सामने घटता गया,
हम
देखते केवल रहे,
सब सामने
क्रमशः
उजड़ता टूटता हटता गया !

(20) निष्कर्ष
----------------

उसी ने छला
अंध जिस पर भरोसा किया,
उसी ने सताया
किया सहज निःस्वार्थ जिसका भला !
*
उसी ने डसा
दूध जिसको पिलाया,
अनजान बन कर रहा दूर
क्या खूब रिश्ता निभाया !
*
अपरिचित गया बन
वही आज
जिसको गले से लगाया कभी,
अजनबी बन गया
प्यार,
भर-भर जिसे गोद-झूले झुलाया कभी !
*
हमसफ़र
मुफलिसी में कर गया किनारा,
ज़िन्दगी में अकेला रहा
और हर बार हारा !

(21) आत्म-संवेदन
---------------------

हर आदमी
अपनी मुसीबत में
अकेला है !
यातना की राशि-सारी
मात्र उसकी है !
साँसत के क्षणों में
आदमी बिल्कुल अकेला है !
*
संकटों की रात
एकाकी बितानी है उसे,
घुप अँधेरे में
किरण उम्मीद की जगानी है उसे !
हर चोट
सहलाना उसी को है,
हर सत्य
बहलाना उसी को है !
*
उसे ही
झेलने हैं हर क़दम पर
आँधियों के वार,
ओढ़ने हैं वक्ष पर चुपचाप
चारों ओर से बढ़ते-उमड़ते ज्वार !
सहनी उसे ही ठोकरें —
दुर्भाग्य की,
अभिशप्त जीवन की,
कठिन चढ़ती-उतरती राह पर
कटु व्यंग्य करतीं
क्रूर-क्रीड़ाएँ
अशुभ प्रारब्ध की !
उसे ही
जानना है स्वाद कड़वी घूँट का,
अनुभूत करना है
असर विष-कूट का !
अकेले
हाँ, अकेले ही !
*
क्योंकि सच है यह —
कि अपनी हर मुसीबत में
अकेला ही जिया है आदमी !
*
(22) दिशा-बोध
-------------------

निरीहों को
हृदय में स्थान दो
सूनापन-अकेलापन मिटेगा !
*
जिनको ज़रूरत है तुम्हारी —
जाओ वहाँ,
मुसकान दो उनको
अकेलापन बँटेगा !
*
अनजान प्राणी
जोकि
चुप गुमसुम उदास-हताश बैठे हैं
उन्हें बस, थपथपाओ प्यार से
मनहूस सन्नाटा छँटेगा !
*
ज़िन्दगी में यदि
अँधेरा-ही अँधेरा है,
न राहें हैं, न डेरा है,
रह-रह गुनगुनाओ
गीत को साथी बनाओ
यह क्षणिक वातावरण ग़म का
हटेगा !
ऊब से बोझिल
अकेलापन कटेगा
*
(23) स्वीकार
----------------

अकेलापन नियति है,
हर्ष से
झेलो इसे !
*
अकेलापन प्रकृति है,
कामना-अनुभूति से
ले लो इसे !
*
इससे भागना-बचना —
विकृति है !
मात्र अंगीकार करना —
एक गति है !
इसलिए स्वेच्छा वरण,
मन से नमन !
*

(24) अवधान
-----------------

कश-म-कश की ज़िन्दगी में
आदमी को चाहिए
कुछ क्षण अकेलापन !
कर सके
गुज़रे दिनों का आकलन !
किसका सही था आचरण,
कौन कितना था जरूरी
या कि किसने की तुम्हारी चाह पूरी,
प्यार किसका पा सके,
किसने किया वंचित कपट से
की उपेक्षा
और झुलसाया
घृणा-भरती लपट से !
*
जानना यदि सत्य जीवन का
तथ्य जीवन का
अकेलापन बताएगा तुम्हें,
सार्थक जिलाएगा तुम्हें !
*
वरदान —
सूनापन अकेलापन !
किसी को मत पुकारो,
पा इसे
मन में न हारो !
रे अकेलापन महत् वरदान है,
अवधान है !
*
(25) सामना
------------------

पत्थर-पत्थर
जितना पटका
उतना उभरा !
*
पत्थर-पत्थर
जितना कुचला
उतना उछला !
*
कीचड़ - कीचड़
जितना धोया
उतना सुथरा !
*
कालिख - कालिख
जितना साना
जितना पोता
उतना निखरा !
असली सोना
बन कर निखरा !
*
ज़ंजीरों से
तन को जब - जब
कस कर बाँधा
खुल कर बिखरा
उत्तर - दक्षिण
पूरब - पश्चिम
बह - बह बिखरा !
*
भारी भरकम
चंचल पारा
बन कर लहरा !
*
हर खतरे से
जम कर खेला,
वार तुम्हारा
बढ़ कर झेला !
*

(26) अकारथ
-----------------

दिन रात भटका हर जगह
सुख-स्वर्ग का संसार पाने के लिए !
*
कलिका खिली या अधखिली
झूमी मधुप को जब रिझाने के लिए !
*
सुनसान में तरसा किया
तन-गंध रस-उपहार पाने के लिए !
*
क्या-क्या न जीवन में किया
कुछ पल तुम्हारा प्यार पाने के लिए !
*
डूबा व उतराया सतत
विश्वास का आधार पाने के लिए !
*
रख ज़िन्दगी को दाँव पर
खेला किया, बस हार जाने के लिए !
*
(२७) असह
---------------

बहुत उदास मन
थका-थका बदन !
बहुत उदास मन !
*
उमस भरा गगन
थमा हुआ पवन
घुटन घुटन घुटन !
*
घिरा तिमिर सघन
नहीं कहीं किरन
भटक रहे नयन !
*
बहुत निराश मन
बहुत हताश मन
सुलग रहा बदन
जलन जलन जलन !
*
(28) मूरत अधूरी
--------------------

तय है कि अब यह ज़िन्दगी
मुहलत नहीं देगी
अब और तुमको ज़िन्दगी
फुरसत नहीं देगी !
*
गुज़रे दिनों की याद कर, कब-तक दहोगे तुम ?
विपरीत धारों से उलझ, कितना बहोगे तुम ?
रे कब-तलक तूफ़ान के धक्के सहोगे तुम ?
*
यों खेलने की, ज़िन्दगी
नौबत नहीं देगी,
अब और तुमको ज़िन्दगी
क़ूवत नहीं देगी !
*
साकार हो जाएँ असम्भव कल्पनाएँ सब,
आकार पा जाएँ चहचहाती चाहनाएँ सब,
अनुभूत हों मधुमय उफनती वासनाएँ सब,
*
यह ज़िन्दगी ऐसा कभी
जन्नत नहीं देगी,
यह ज़िन्दगी ऐसी कभी
किस्मत नहीं देगी !
*

(29) मजबूर
---------------

जिन्दगी जब दर्द है तो
हर दर्द सहने के लिए
मजबूर हैं हम !
*
राज है यह जिन्दगी जब
खामोश रहने के लिए
मजबूर हैं हम !
*
है न जब कोई किनारा
तो सिर्फ़ बहने के लिए
मजबूर हैं हम !
*
ज़िन्दगी यदि जलजला है
तो टूट ढहने के लिए
मजबूर हैं हम !
*
आग में जब घिर गये हैं
अविराम दहने के लिए
मजबूर हैं हम !
*
सत्य कितना है भयावह !
हर झूठ कहने के लिए
मजबूर हैं हम !
*

(30) एक रात
-----------------

अँधियारे जीवन-नभ में
बिजुरी-सी चमक गयीं तुम !
*
सावन झूला झूला जब
बाँहों में रमक गयीं तुम !
*
कजली बाहर गूँजी जब
श्रुति-स्वर-सी गमक गयीं तुम !
*
महकी गंध त्रियामा जब
पायल-सी झमक गयीं तुम !
*
तुलसी-चौरे पर आ कर
अलबेली छमक गयीं तुम !
*
सूने घर-आँगन में आ
दीपक-सी दमक गयीं तुम !
*
(31) सहसा
-----------------

आज तुम्हारी आयी याद,
मन में गूँजा अनहद नाद !
बरसों बाद
बरसों बाद !
*
साथ तुम्हारा केवल सच था,
हाथ तुम्हारा सहज कवच था,
सब-कुछ पीछे छूट गया, पर
जीवित पल-पल का उन्माद !
आज तुम्हारी आयी याद !
*
बीत गये युग होते-होते,
रातों-रातों सपने बोते,
लेकिन उन मधु चल-चित्रों से
जीवन रहा सदा आबाद !
आज तुम्हारी आयी याद !

(32) स्वागत
--------------

जूही मेरे आँगन में महकी,
रंग-बिरंगी आभा से लहकी !
*
चमकीले झबरीले कितने
इसके कोमल-कोमल किसलय,
है इसकी बाँहों में मृदुता
है इसकी आँखों में परिचय,
*
भोली-भोली गौरैया चहकी
लटपट मीठे बोलों में बहकी !
*
लम्बी लचकीली हरिआई
डालों डगमग-डगमग झूली,
पाया हो जैसे धन स्वर्गिक
कुछ-कुछ ऐसी हूली-फूली,
*
लगती है कितनी छकी-छकी
गह-गह गहनों-गहनों गहकी !
*
महकी, मेरे आँगन में महकी
जूही मेरे आँगन में महकी !
(पौत्री इरा के प्रति।)
*
(33) वर्षा-पूर्व
----------------

आज छायी है घटा
काली घटा !
*
महीनों की
तपन के बाद
अहर्निश
तन-जलन के बाद
*
हवाओं से लिपट
लहरा उठा
ऊमस भरा वातावरण-आँचर !
*
किसी ने
डाल दी तन पर
सलेटी बादलों की
रेशमी चादर !
*
मोह लेती है छटा,
मोद देती है घटा,
काली घटा !
*
(34) कामना-सूर्य
-------------------

(1)
हर व्यक्ति सूरज हो
ऊर्जा-भरा,
तप-सा खरा,
हर व्यक्ति सूरज-सा धधकता
आग हो,
बेलौस हो, बेलाग हो !

(2)
हर व्यक्ति सूरज-सा
प्रखर,
पाबन्द हो,
रोशनी का छन्द हो !
जाए जहाँ —
कण-कण उजागर हो,
असमंजस अँधेरा
कक्ष-बाहर हो !

(3)
हर व्यक्ति सूरज-सा
दमकता दिखे,
ऊष्मा भरा
किरणें धरे,
हर व्यक्ति सूरज-सा
चमकता दिखे !

(35) एक सत्य
-----------------

बन्धन
उभरता है - चुनौती बन
अस्वीकृति बन,
जगाता है सतत
विद्रोह / बल / प्रतिरोध /
ज्वाला / क्रोध।
*
बन्धन
उभरता - स्नेह की उपलब्धि बन,
स्वीकार बन,
जगाता -
मोह / अक्षय सन्धि / अर्पण चाह /
जीवन - दाह।
*
(36) उपलब्धि
-----------------

सपनों के सहारे
एक लम्बी उम्र
हमने
सहज ही काट ली —
बडे सुख से
सहन से
सब्र से !
मन के गगन पर
मुक्त मँडराती व घहराती
गहन बदली अभावों की
उड़ा दी, छाँट दी
हमने
अटल विश्वास के
दृढ़ वेगवाही वातचक्रों से,
दिन के, रैन के
अनगिनत सपनों के भरोसे !
*
मौन रह अविराम जी ली
यह कठिनतम ज़िन्दगी
हमने
अमन से, चैन से !

सपनो !
महत् आभार,
वृहत् आभार !
*
(37) विचार-विशेष
----------------------

सपने आनन-फानन साकार नहीं होते
पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्रम-क्रम से सच होते हैं,
सपने माणव-मंत्रों से सिद्ध नहीं होते
पीढ़ी-दर-पीढ़ी धृति-श्रम से सच होते हैं !
*
(38) सार्थकता
-------------------

जिस दिन
मानव-मानव से प्यार करेगा,
हर भेद-भाव से
ऊपर उठ कर,
भूल
अपरिचित-परिचित का अन्तर
सबका स्वागत-सत्कार करेगा,
पूरा होगा
उस दिन सपना !
विश्व लगेगा
उस दिन अपना !
*
(39) अलम
---------------

आहों और कराहों से
नहीं मिटेगी
आहत तन की, आहत मन की पीर !
*
दृढ़ आक्रोश उगलने से
नहीं कटेगी
हाथों-पैरों से लिपटी ज़ंजीर !
*
जीवन-रक्त बहाने से
नहीं घटेगी
लहराती लपटों की तासीर !

आओ —
पीड़ा सह लें,
बाधित रह लें,
पल-पल दह लें !
*
करवट लेगा इतिहास,
इतना रखना विश्वास !
*
(40) चाह
--------------

जीवन अबाधित बहे,
जय की कहानी कहे !
*
आशीष-तरु-छाँह में
जन-जन सतत सुख लहे !
*
दिन-रात मन-बीन पर
प्रिय गीत गाता रहे !
*
मधु-स्वप्न देखे सदा,
झूमे हँसे गहगहे !
*
मायूस कोई न हो,
लगते रहे कहकहे !
*
हर व्यक्ति कुन्दन बने,
अन्तर-अगन में दहे !
*
अज्ञात प्रारब्ध का
हर वार हँस कर सहे !
*
(41) सम्भव — 1
------------------

आओ
चोट करें,
घन चोट करें —
परिवर्तन होगा,
धरती की गहराई में
कम्पन होगा,
चट्टानों की परतें
चटखेंगी,
अवरोधक टूटेंगे,
फूटेगी जल-धार !
*
आओ
चोट करें,
मिल कर चोट करें —
स्थितियाँ बदलेंगी,
पत्थर अँकुराएंगे,
लह-लह
पौधों से ढक जाएंगे !

(42) सम्भव — 2
------------------

आओ
टकराएँ,
पूरी ताक़त से टकराएँ,
आखर
लोहे का आकार
हिलेगा,
बंद सिंह-द्वार
खुलेगा !
मुक्ति मशालें थामे
जन-जन गुज़रेंगे,
कोने-कोने में
अपना जीवन-धन खोजेंगे !
नवयुग का तूर्य बजेगा,
प्राची में सूर्य उगेगा !
आओ
टकराएँ,
मिल कर टकराएँ,
जीवन सँवरेगा,
हर वंचित-पीड़ित सँभलेगा !

(43) विपत्
--------------

आख़िर,
गया थम !
उठा-
चीखता
तोड़ता - फोड़ता
लीलता
क्रुद्ध अंधड़ !
*
तबाही.... तबाही.... तबाही !
*
इधर भी; उधर भी
यहाँ भी; वहाँ भी !
दीखते
खण्डहर.... खण्डहर.... खण्डहर,
अनगिनत शव !
सर्वत्र निस्तब्धता,
थम गया रव !
*
दबे,
चोट खाये,
रुधिर - सिक्त
मानव... मवेशी... परिन्दे
विवश तोड़ते दम !
*
भयाक्रांत सुनसान में
सनसनाती हवा,
खा गया
अंग-प्रति-अंग
लकवा !
अपाहिज
थका शक्ति-गतिहीन जीवन,
विगत-राग धड़कन !
*
भयानक क़हर
अब गया थम,
बचे कुछ
उदासी-सने चेहरे नम !
*
सदा के लिए
खो
घरों-परिजनों को,
बिलखते
बेसहारा !
असह
कारुणिक
दृश्य सारा !
*
चलो,
तेज अंधड़
गया थम !
गहर गमज़दा हम !
*
(44) स्व-तंत्र
----------------

आकाश है सबके लिए,
अवकाश है सबके लिए !
*
विहगो !
उड़ो,
उन्मुक्त पंखों से उड़ो !
*
ऊँची उड़ानें
शक्ति-भर ऊँची उड़ानें
दूर तक
विहगो भरो !
विश्वास से ऊपर उठो;
गन्तव्य तक पहुँचो,
अभीप्सित लक्ष्य तक पहुँचो !
*
ऊँचे और ऊँचे और ऊँचे
तीव्र ध्वनि-गति से उड़ो,
निडर होकर उड़ो !
आकाश यह
सबके लिए है —
असीमित
शून्याकाश में
जहाँ चाहो मुड़ो,
जहाँ चाहो उड़ो,
*
ऐसे मुड़ो; वैसे मुड़ो,
ऐसे उड़ो; वैसे उड़ो,
सुविधा व सुभीते से उड़ो !

अपने प्राप्य को
हासिल करो !
स्वच्छंद हो, निर्द्वन्द्व हो,
ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वमुख;
गगनचुम्बी उड़ानें
दूर तक
विहगो भरो !
*
न हो
कोई किसी की राह में,
बाधक न हो
कोई किसी की
पूर्ण होती चाह में !
*
स्वाधीन हों सब
स्वानुशासन में बँधे,
हम-राह हों
सँभले सधे !
*
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रचना-काल : सन् 1987-1997
प्रकाशन-वर्ष : सन् 1997
प्रकाशक : सर्जना प्रकाशन, ग्वालियर — 474 002 [म.प्र.]
सम्प्रति उपलब्ध : 'महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा' [खंड : 3]
‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ [खंड : 3] में।
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संपर्क :
डा0 महेंद्र भटनागर
110 बलवंतनगर, गांधी रोड,
ग्वालियर - 474 002 (म. प्र.)
फोन : 0751-4092908
ई-मेल :
drmahendra02@gmail.com
drmahendra02@gmail.com

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