शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

डॉ0 महेन्द्रभटनागर का काव्य-संग्रह ---- "नयी चेतना"

महेंद्रभटनागर का काव्य संग्रह --- नयी चेतना

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1 बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
2 ललकार
3 आज़ादी का त्योहार
4 अपराजित
5 चेतना
6 काटो धान
7 रोक न पाओगे
8 जागते रहेंगे
9 नया इंसान
10 आँधी
11 झंझावात
12 नव-निर्माण
13 ज़िन्दगी का कारवाँ
14 बढ़ते चलो
15 नये इंसान से तटस्थ-वर्ग
16 नयी दिशा
17 परम्परा
18 गन्तव्य
19 क्या हुआ
20 दूर खेतों पार
21 युग और कवि
22 विश्वास
23 आश्वस्त
24 दीपक जलाओ
25 आभास होता है
26 आज देखा है
27 मुझे भरोसा है
28 मुख को छिपाती रही
29 नया समाज
30 युगान्तर
31 छलना
32 मत कहो
33 नया युग
34 पदचाप
35 भोर का आह्नान
36 निरापद
37 सुर्खियाँ निहार लो
38 युग-परिवर्तन
39 नयी संस्कृति
40 गंगा बहाओ
41 नयी रेखाएँ
42 भविष्य के निर्माताओ!
43 मेघ-गीत
44 बरगद
45 कवि

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(1) बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
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कुछ लोग
चाहे ज़ोर से कितना
बजाएँ युद्ध का डंका
पर, हम कभी भी
शांति का झंडा
ज़रा झुकने नहीं देंगे !
हम कभी भी
शांति की आवाज़ को
दबने नहीं देंगे !

क्योंकि हम
इतिहास के आरम्भ से
इंसानियत में,
शांति में
विश्वास रखते हैं,
गौतम और गांधी को
हृदय के पास रखते हैं !

किसी को भी सताना
पाप सचमुच में समझते हैं,
नहीं हम व्यर्थ में पथ में
किसी से जा उलझते हैं !

हमारे पास केवल
विश्व-मैत्री का
परस्पर प्यार का संदेश है,

हमारा स्नेह -
पीड़ित ध्वस्त दुनिया के लिए
अवशेष है !
हमारे हाथ -
गिरतों को उठाएंगे,
हज़ारों
मूक, बंदी, त्रस्त, नत,
भयभीत, घायल औरतों को
दानवों के क्रूर पंजों से बचाएंगे !

हमें नादान बच्चों की हँसी
लगती बड़ी प्यारी ;
हमें लगती
किसानों के
गड़रियों के
गलों से गीत की कड़ियाँ
मनोहारी !

खुशी के गीत गाते इन गलों में
हम
कराहों और आहों को
कभी जाने नहीं देंगे !
हँसी पर ख़ून के छींटे
कभी पड़ने नहीं देंगे !

नये इंसान के मासूम सपनों पर
कभी भी बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे !
1950

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(2) ललकार
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शैतान के साम्राज्य में तूफ़ान आया है,
जो ज़िन्दगी को मुक्ति का पैग़ाम लाया है !
इंसान की तक़दीर को बदलो,
भयभीत हर तस्वीर को बदलो,
हमारे संगठित बल की यही ललकार है !
.

मासूम लाशों पर खड़ा साम्राज्य हिलता है,
तम चीर कर जन-शक्ति का सूरज निकलता है,
चट्टान जैसे माथ उठते हैं,
फ़ौलाद से दृढ़ हाथ उठते हैं
अमन के शत्रु से जो छीनते हथियार हैं !
हमारे संगठित बल की यही ललकार है !
.

लो रुक गया रक्तिम प्रखर सैलाब का पानी,
अब दूर होगी आदमी की हर परेशानी !
सूखी लताएँ लहलहाती हैं,
नव-ज्योति सागर में नहाती हैं,
खुशी के मेघ छाये हैं, बरसता प्यार है !
हमारे संगठित बल की यही ललकार है !
.
1951

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(3) आज़ादी का त्योहार
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लज्जा ढकने को
मेरी खरगोश सरीखी भोली पत्नी के पास
नहीं हैं वस्त्र,
कि जिसका रोना सुनता हूँ सर्वत्र !
घर में, बाहर,
सोते-जगते
मेरी आँखों के आगे
फिर-फिर जाते हैं
वे दो गंगाजल जैसे निर्मल आँसू
जो उस दिन तुमने
मैले आँचल से पौंछ लिए थे !

मेरे दोनों छोटे
मूक खिलौनों-से दुर्बल बच्चे
जिनके तन पर गोश्त नहीं है,
जिनके मुख पर रक्त नहीं है,
अभी-अभी लड़कर सोये हैं,
रोटी के टुकड़े पर,
यदि विश्वास नहीं हो तो
अब भी
तुम उनकी लम्बी सिसकी सुन सकते हो
जो वे सोते में
रह-रह कर भर लेते हैं !
जिनको वर्षा की ठंडी रातों में
मैं उर से चिपका लेता हूँ,
तूफ़ानों के अंधड़ में
बाहों में दुबका लेता हूँ !

क्योंकि, नये युग के सपनों की ये तस्वीरें हैं !
बंजर धरती पर
अंकुर उगते धीरे-धीरे हैं !

इनकी रक्षा को
आज़ादी का त्योहार मनाता हूँ !
अपने गिरते घर के टूटे छज्जे पर
कर्ज़ा लेकर
आज़ादी के दीप जलाता हूँ !
अपने सूखे अधरों से
आज़ादी के गाने गाता हूँ !
क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है!
मैंने अपने हाथों से
इसकी सींची फुलवारी है !

पर, सावधान ! लोभी गिद्धो !
यदि तुमने इसके फल-फूलों पर
अपनी दृष्टि गड़ाई,
तो फिर
करनी होगी आज़ादी की
फिर से और लड़ाई !
1951

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(4) अपराजित
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हो नहीं सकती पराजित युग-जवानी !

संगठित जन-चेतना को,
नव-सृजन की कामना को,
सर्वहारा-वर्ग की युग -
युग पुरानी साधना को,
आदमी के सुख-सपन को,
शंति के आशा-भवन को,
और ऊषा की ललाई
से भरे जीवन-गगन को,
मेटने वाली सुनी है क्या कहानी ?

पैर इस्पाती कड़े जो
आँधियों से जा लड़े जो,
हिल न पाये एक पग भी
पर्वतों से दृढ़ खड़े जो,
शत्रु को ललकारते हैं,
जूझते हैं, मारते हैं,
विश्व के कर्तव्य पर जो
ज़िन्दगी को वारते हैं,
कब शिथिल होती, प्रखर उनकी रवानी !

शक्ति का आह्वान करती,
प्राण में उत्साह भरती,
सुन जिसे दुर्बल मनुज की
शान से छाती उभरती,
जो तिमिर में पथ बताती,
हर दिशा में गूँज जाती,
क्रांति का संदेश नूतन
जा सितारों को सुनाती,
बंद हो सकती नहीं जन-त्राण-वाणी !
1951

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(5) चेतना
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हर दिशा में जल उठी ज्वाला नयी,
लालिमा जीवन-जगत पर छा गयी !

है नयी पदचाप से गुंजित मही,
ज्योति अभिनव हर किरण बिखरा रही !

छिन्न सदियों का अँधेरा हो गया,
राह पर जगमग सबेरा है नया !

यह विगत युग का न कोई साज़ है,
रूप ही बदला धरा ने आज है !

वर्ग-भेदों को मिटाने चेतना
कर रही सामान्य की आराधना !

काल बदला और बदली सभ्यता,
दे रही नव फूल संस्कृति की लता !

फूल वे जिनमें मधुर सौरभ भरा,
मुसकराती पा जिन्हें भू-उर्वरा !

स्वार्थ, शोषण की इमारत ढह रही,
भग्न ढूहों पर सृजन-सरि बह रही !

शीत के लघु-ताप से सिकुड़े हुओ,
पास आता जा रहा ‘क्यूरो सिवो’ !

धूप से झुलसे हुए ‘होरी’ कृषक
आ रही ‘जल की हवा’ जीवन-जनक !

उर लगाले जीर्ण ‘धनिया’-देह को
(रोक ले रे ! छलछलाते स्नेह को !)

आज तो आकाश अपना हो गया,
आदमी का, सत्य सपना हो गया !
1948

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(6) काटो धान
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काटो धान, काटो धान,
काटो धान !

सारे खेत
देखो दूर तक कितने भरे,
कितने भरे / पूरे भरे !
घिर लहलहाते हैं
न फूले रे समाते हैं!
हवा में मिल
कुसुम-से खिल

उठो, आओ,
चलो, इन जीर्ण कुटियों से
बुलाता है तुम्हें, साथी !
खुला मैदान !

जब हिम-नदी का चू पड़ा था जल
अनेकों धार में चंचल,
हिमालय से
बहायी जो गयी थी धूल
उसमें आज खिलते रे श्रमिक !
तेरे पसीने से सिँचे
प्रति पेड़ की हर डाल में
सित, लाल, पीले, फूल !
जीन के लिए देती तुम्हें
ओे ! आज भू माता
सहज वरदान !

आकाश में जब घिर गये थे
मॉनसूनी घन सघन काले,
हृदय सूखे हुए
तब आश-रस से भर गये थे
झूम मतवाले !

किसी
सुन्दर, सलोनी, स्वस्थ, कोमल, मधु
किशोरी के नयन
कुछ मूक भाषा में
नयी आभा सजाए जगमगाए श्वेत-कजरारे !
हुए साकार
भावों से भरे
अभिनव सरल जीवन लिए,
नूतन जगत के गान !

जो सृष्टि के निर्माण हित बोए
तुम्हारी साधना ने बीज थे
वे पल्लवित !
सपने पलक की छाँह में
पा चाह
शीतल ज्योत्स्ना की गोद में खेले !
(अरी इन डालियों को बाँह में ले ले !)
उठो !
कन्या-कुमारी से अखिल कैलाश के वासी
सुनो, गूँजी नयी झंकार !
हर्षित हो उठो!
परिवार सारे गाँव के
देखो कि चित्रित हो रहे अरमान !

टूटे दाँत / सूखे केश,
मुख पर
झुर्रियों की वह सहज मुसकान,
प्रमुदित मुग्ध
फैला विश्व में सौरभ
महकता नभ,
सजग हो आज
मेर देश का अभिमान !
1948

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(7) रोक न पाओगे
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जग में आज सुनायी देती आवाज़ नयी,
जिसकी प्रतिध्वनि भू के कण-कण में गूँज गयी !

समझ गये शोषित-पीड़ित जिसका अर्थ सभी,
अब तो जन-शक्ति-विपथ के साधन व्यर्थ सभी !

मूक जनों को आज गिरा का वरदान मिला,
श्रमजीवी-जन को अपना प्यारा गान मिला,

युग-युग की अवरुद्ध उपेक्षित नव-राह खुली,
जन-पथ के सब द्वार खुले, जग-जनता निकली !

विजयी घोषों से फट-फट पड़ती है तुरही,
काँप रहा है आज गगन, काँपी आज मही !

विशृंखल; वर्गों की निर्मित सारी कड़ियाँ,
देश-काल की अब सीमा मिटने की घड़ियाँ !

नक़ली दीवारो ! नहीं रुकगी नयी हवा ,
बस, कर दो राह कि बचने की है यही दवा !

जर्जर संस्कृति के रक्षक भागो ! आग लगी !
इन अँगारों से तो लपटों की धार जगी !

इसको और हृदय से चिपटाना घातक है,
आसक्ति, तुम्हारी ही काया की भक्षक है !
1948

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(8) जागते रहेंगे
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आग बन गया
उपेक्षितों का वर्ग ;
कि ढह रहा प्रवंचना का दुर्ग !
पत्थरों के कोयले धधक उठे,
लपट मशाल बन
हवा के संग
अंधकार पर प्रहार कर रही !

जगमगा उठी
दमित युगों की रात;
पर्व है ‘नुशूर’ का —
मृतक शरीर कब्र फोड़
जागता है नींद छोड़ !

जंगलों के पेड़
खड़खड़ा उठे !
ये आँधियाँ हैं
जो कभी उड़ी नहीं,
ये बिजलियाँ हैं
जो कभी गिरी नहीं,
कि बदलियाँ गभीर
जो कभी घिरी नहीं !
गरज से कड़कड़ा रहा
दंत पीस क्रुद्ध दिग-दिगन्त !

संगठित समूह की दहाड़ से
नये समाज में
तमाम शोषकों के कागज़ी पहाड़
राख हो रहे !
कि जड़ समेत सब उखड़
हवा के तामसी महल
सहज में ख़ाक हो रहे !

यह आग है कि
बर्फ़ की तहों से दब न पायगी,
कि क्षिप्र जल की धार से
कभी भी बुझ न पायगी !
जब तलक है
अंधकार शेष इस ज़मीन पर
तब तलक
अमीर खटमलों-सा
चूसता रहेगा निर्धनों का रक्त !
हर गली में
भूत की डरावनी हँसी
निराट गूँजती रहेगी
तब तलक !

प्रसुप्त
प्रस्तरों की चादरों को छोड़,
प्रांशु भाल,
प्राज्य शक्ति,
ध्रुव प्रतीति ले
उठा रहा प्रहारना का अस्त्रा !
है असाँच-गर्व मृत,
असार —
अस्तमन, विधुर, विपन्न ;
अब विभीषिका-विभावरी
विभास से विभीत पिंगला !

नवीन ज्योति का
सशक्त कारवाँ चला,
कि गिर रहा है टूट-टूट कर
क़दम-क़दम पर अंधकार !
जागते रहेंगे हम,
कि जब तलक
यह रुद्ध-राह-द्वार
खुल न जायगा,
यह वर्ग-भेद, जाति-द्वेष
मिट न जायगा,
हमारी धमनियों में
ख़ून खौलता रहेगा
तब तलक !
1949

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(9) नया इंसान
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आज नया इंसान, पड़ी चरणों की, तोड़ रहा ज़ंजीर !

उबल उठा है स्वस्थ युगों की ताक़त का उन्माद,
जन-जन के बंदी जीवन को करने को आज़ाद,
उजड़े ध्वस्त घरों को फिर से करना है आबाद,
आगे बढ़ना है सदियों का छाया सघन अँधेरा चीर !

हिलते महलों की दीवारों से आती आवाज़,
भय से ग्रस्त कि मानों हो ही गिरने वाली गाज,
मिटनेेवाला है अब जग का शोषक-जीर्ण-समाज,
निश्चय, अब रह न सकेंगे दुनिया में आदमख़ोर अमीर !

जन-बल के क़दमों की आहट से गूँजा संसार,
दुर्बल बन दुश्मन का वक्ष दहलता है हर बार,
खुलते जाते अवरुद्ध-पंथ के लो सारे द्वार,
अब धार नहीं बाक़ी, खा ज़ंग गयी सामंती-शमशीर !

सत्य प्रखर अब सम्मुख आया, जीत गया विश्वास,
वांछित नवयुग पास कि लुप्त हुआ पिछला आभास,
अब रखनी न सुरक्षित मन में कोई खोयी आस,
दुनिया के परदे पर, हर मानव की आज नयी तसवीर !
आज नया इंसान, पड़ी चरणों की, तोड़ रहा ज़ंजीर !
1950

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(10) आँधी
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बड़ा शोर करती उठी आज आँधी,
क्षितिज-से-क्षितिज तक घिरी आज आँधी !

समुन्दर जिसे देखकर खिलखिलाया,
निखिल सृष्टि काँपी प्रलय-भय समाया !

पुराने भवन सब गिरे लड़खड़ाकर,
बड़ी तेज़ आयीं हवाएँ हहर कर !

दिवाकर किसी का छिपा थाम दामन,
दहलता भयावह बना विश्व-आँगन !

उमड़ता नये जोश में वन्य-दरिया,
लहरता नवल होश में वन्य-दरिया !

रुकेगी न आँधी सरीखी जवानी,
बना कर रहेगी नयी ही कहानी !

असम्भव कि ठहरे रुकावट पुरानी,
शिथिल हो न पायी कभी भी रवानी !

न रोके रुकेगी बड़ी शक्तिशाली,
न फीकी पड़ेगी कभी द्रोह लाली !

कि चीलें उतरती चली आ रही हैं,
अँधेरी घटाएँ घुमड़ छा रही हैं !

मगर खोल सीना अकेला डगर पर
बढ़ा जा रहा जूझता जो निरन्तर,

वही व्यक्ति दृढ़ शक्ति-युग का तरुण है,
बदलना धरा को कि जिसकी लगन है !

विरोधी रुकावट मिटाता चला जो,
नदी शांति की नव बहाता चला जो,

वही क्रांति आभास-दृष्टा सदा से,
वही विश्व-इतिहास-स्रष्टा सदा से,

उसी की सबल मुक्त लंबी भुजाएँ
नये ख़ून से मोड़ देंगी हवाएँ !
1951

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(11) झंझावात
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पूरब में
नयी जन-चेतना का
आज झंझावात आया है !
अमिट विश्वास ने
इंसान के उर में,
बड़ा मज़बूत
अपना घर बनाया है!

तभी तो —
दुश्मनों के शक्तिशाली दुर्ग पर
क्रोधित हवाएँ
दौड़तीं ललकारतीं
जा जूझ टकरायीं,
कि जिससे दुर्ग के
प्राचीर, गुम्बज, कोट
होते हैं धराशायी !

उभरती शक्ति जनता की
दबाये अब नहीं दबती,
धधकती द्रोह की ज्वाला
बुझाये अब नहीं बुझती !
अथक संघर्ष चारों ओर
नूतन ज़िन्दगी का है,
कि नूतन ज़िन्दगी वह जो
मिटाये मिट नहीं सकती !

गगन को घेर कर
चिनगारियाँ जिसकी
चमकती और उड़ती हैं,
उसी के ताप से
फ़ौलाद की दृढ़ शृंखलाएँ दृप्त
मुड़ती हैं !
बड़ी गहरी घटाएँ
आसमानों पर घुमड़ती हैं !

न सरकेगी कभी चटृन
जिस पर उठ रही
दुर्भेद्य नव दीवार !
हिंसक भेड़ियों
नंगे लुटेरों की
कहीं नीचे दबी है लाश !
होगी सर्वहारा-वर्ग की
निश्चय सुरक्षा;
क्योंकि आया आज पूरब में
नयी जन-चेतना का
तीव्र झंझावात !
1950

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(12) नव-निर्माण
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मैं निंरतर राह नव-निर्माण करता चल रहा हूँ
और चलता ही रहूँगा !

राह — जिस पर कंटकों का
जाल, तम का आवरण है,
राह — जिस पर पत्थरों की
राशि, अति दुर्गम विजन है,
राह — जिस पर बह रहा है
टायफ़ूनी-स्वर-प्रभंजन,
राह — जिस पर गिर रहा हिम
मौत का जिस पर निमंत्रण,

मैं उसी पर तो अकेला दीप बनकर जल रहा हूँ,
और जलता ही रहूँगा !

आज जड़ता-पाश, जीवन
बद्ध, घायल युग-विहंगम,
फड़फड़ाता पर, स्वयं
प्राचीर में फँस, जानकर भ्रम,
मौन मरघट स्तब्धता है
स्वर हुआ है आज कुंठित,
सामने बीहड़ भयातंकित
दिशाएँ कुहर गुंठित,

विश्व के उजड़े चमन में फूल बनकर खिल रहा हूँ
और खिलता ही रहूँगा !
1948

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(13) ज़िन्दगी का कारवाँ
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ज़िन्दगी का कारवाँ रुकता नहीं, रुकता नहीं !

ये क्षणिक तूफ़ान तो आते गुज़र जाते,
केश केवल कुछ हवा में उड़ बिखर जाते !
पर, सतत गतिमय क़दम इंसान के कब डगमगाये ?
और ताक़त से इसी क्षण पैर जनबल ने उठाये !
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
आफ़तों के सामने झुकता नहीं, झुकता नहीं !

रह नहीं सकती हमेशा यामिनी काली,
रोज़ फूटेगी नयी आकाश से लाली
देख कर जिसको, मनुज हर, दौड़ कर स्वागत करेगा,
पर, तिमिर से डर भयावह रुग्ण क्या साँसें भरेगा ?
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
भाग्य के निर्मित सितारों को कभी तकता नहीं !

मेघ के टुकड़े सरीखा यह अकेलापन,
है बड़ा इससे कहीं चलता हुआ जीवन !
राह चाहे जल-विहीना, वृक्ष-हीना, रेतमय हो,
राह चाहे व्यक्तिहीना, घर-विहीना, ज्योति लय हो,
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
हार कर संघर्ष-पथ पर भूल कर थकता नहीं !

जिस हृदय ने साफ़ अपना लक्ष्य देख लिया
वह तो बहाएगा सदा ही आश का दरिया !
लड़खड़ाता चल रहा जो, मौत की तसवीर है वह,
जो रुका है मध्य पथ में, रोग-वाहक नीर है वह,
ज़िन्दगी का कारवाँ यह
मिट निराशा की नदी में डूब बह सकता नहीं !
1952

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(14) बढ़ते चलो
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राह पर बढ़ते चलो !

दूर मंज़िल है तुम्हारी,
पर, क़दम होंगे न भारी,
आज तक युग की जवानी ने कभी हिम्मत न हारी !
आँधियों से जूझनेवालो !
निडर हँस-हँस प्रखर बढ़ते चलो !

बल अमिट विश्वास का है,
बल अतुल इतिहास का है,
बल अथक भावी जगत में फिर नये मधुमास का है,
ओ युवक ! निज रक्त से नव-दृढ़
इमारत विश्व में गढ़ते चलो !

तम बिखरता जा रहा है,
नव सबेरा आ रहा है,
सृष्टि का कण-कण सृजन का गीत अभिनव गा रहा है,
इसलिए तुम भी
नये युग की प्रतिष्ठा के लिए लड़ते चलो !
1952


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(15) नये इंसान से तटस्थ-वर्ग
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ओ नये इंसान !
तुमसे एक मुझको बात करनी है;
बात वह ऐसी कि जिसको
वर्ग के मेरे अनेकों
मर्द, औरत,
वृद्ध, बच्चे, नवयुवक
सब चाहते हैं आज तुमसे पूछना।

और वह है ज़िन्दगी की
आज से बेहतर, नयी, खुशहाल
प्यारी ज़िन्दगी की बात !

जो कि उस दिन,
याद है मुझको
अधर में रुक गयी थी,
क्योंकि तुम संघर्ष में रत थे !
विराधी चोट से सारे
तुम्हारे अंग आहत थे !

तुम्हारे पास, पर,
उज्ज्वल भविष्यत् का बड़ा विश्वास था,
आदमी की शक्ति का इतिहास था;
उसकी विजय का चित्र
आँखों में उभरता था,
युगों का स्नेह
इस घायल धरित्री पर बिखरता था,

तभी तो तुम
दमन के बादलो को चीर कर
काली मुसीबत की
भयानक रात का उर भेद कर,
अभिनव किरण बनकर
नये इंसान की संज्ञा
जगत से पा रहे हो !
और उसको तुम
प्रगति पथ पर
सतत ले जा रहे हो !

पास मंज़िल है,
उछलता भोर का दिल है,
बड़ा नज़दीक साहिल है !

भरोसा है मुझे निश्चय
तुम्हारे हर इरादे पर,
अकेली बात इतनी है
कि तुम कैसी नयी दुनिया बनाओगे ?
हृदय में आज मेरे भी
नयी रंगीन दुनिया की
नयी तसवीर है,
दुनिया को बदलने की
प्रसविनी पीर है !
क्या तुम उसे भी देख
मुझको साथ लेकर चल सकोगे ?

क्योंकि मैं अबतक
विलग, निर्लिप्त तुमसे
मध्यवर्ती,
दूर,
और तटस्थ था !

1951


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(16) नयी दिशा
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चारों ओर है गतिरोध !
पथ अवरुद्ध,
खंडित मान्यताएँ हीन,
जर्जर रूढ़ियों की सामने प्राचीन
फैली ‘चीन की दीवार’ !
कैसे चढ़ सकोगे
और कैसे कर सकोगे पार ?

बोलो !
ये पुरातन नीतियाँ, विश्वास,
मृत औ’ संकुचित दर्शन पुराना ले,
पुरानी धारणाओं से,
पुरानी कल्पनाओं से
कभी क्या जीत पाओगे ?
कभी अपने बनाये लक्ष्य को
साकार कर क्या देख पाओगे ?

बदलते विश्व के सम्मुख,
कि अनुसंधान
जब विज्ञान के बढ़ते चले जाते,
नये साधन, कलें नूतन
व आविष्कार बढ़ प्रतिपल
चुनौती आज
गर्वोन्नत ‘जगत की छत’ खड़े पामीर को देते,
उठे एवरेस्ट,
गहन प्रशान्त-सागर को,
अनेकों ग्रह-सितारों को,
चमकते दूर चंदा को,
नये उन्नत विचारों के सहारे
जो सतत अधिकार में अपने
सदा करते बढ़े जाते !
हुए पूरे
न होनी आज चाहों के सभी सपने !

ज़रा उठ खोल तो आँखें
नयी फैली दमकती रोशनी के सामने !
लो फिर करो उपयोग,
तुम हर वस्तु का उपभोग !
मनुज हो तुम
लिए बल-बुद्धि का भंडार,
मनुजता के सभी अधिकार,
प्रगति का है तुम्हें वरदान,
दुर्दम शक्ति का अभिमान,
तुम्हारा ध्येय है
तोड़ो पुरानी ज़िन्दगी के तार,
जिनमें बज न सकती अब मधुर झंकार !
कहाँ तक कर सकोगे शोध ?
है सब व्यर्थ सारा क्रोध !

जब सब डगमगायी हैं दिवारें
नींव से -
गिर कर रहेंगी ही,
कि जब ये आँधियाँ चल दीं क्षितिज से
शीघ्र आ घिर कर रहेंगी ही !

तुम्हें तो छोड़ना है
आज यह अपनत्व की
हर वासना का रूप,
कर दो बन्द
तम से ग्रस्त अवनति कूप !
असफल मोह से कर द्रोह,
मिथ्या स्वप्न की माया,
खड़ी बन शून्य की
निस्सार धुँधली क्षीण-सी छाया
कि जिसमें है न कोई आज आकर्षण !
निरर्थक क्या ?
अरे घातक !

सजग हो जा
नहीं तो नाश निश्चित है,
खड़ा हो जा
सुदृढ़ चट्टान-सा बनकर
नहीं तो धर्म तेरा रे कलंकित है,
कि बढ़कर रोक ले तूफ़ान
वरना आज
पौरुष धैर्य विगलित है !
न हो भयभीत
तेरे सामने हुंकारता है बढ़
ज़माना नव्य,
भावी विश्व की ले कल्पना दृढ़ भव्य !

जनता की प्रखर आवाज़
गूँजी आज,
जो किंचित नहीं अब चाहती है
‘ताजवालों’ का कहीं भी राज !

पीड़ित, त्रास्त, शोषित, सर्वहारा की
उमड़ती बाढ़-सी धारा,
लगाकर यह गगन-भेदी सबल नारा —
नयी दुनिया बनानी है !
न होगा चिन्ह जिसमें एक भी
मृत घृणित पूँजीवाद का,
बरबाद होगा विश्व से
हर रूप तानाशाह का,
केवल जगत् नव-साम्य-पथ पर
ले सकेगा साँस,
सुख की साँस !
जिसमें आश
नूतन ज़िन्दगी की ही भरी होगी,
कि जिसकी राह पर चलकर
धरा सूखी हरी होगी !
मिटा देगा उसी पथ का बटोही
दुःख के पर्वत,
विषमता की गहनतम खाइयाँ
सब पाट देगा
कर्म का उत्साह,
नूतन चेतना की प्रेरणा से
ये पुराने सब
क़िले, दीवार, दर्रे टूट जाएँगे !
1949

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(17) परम्परा
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परम्परा, परम्परा, परम्परा !

जकड़ लिया
मिटा दिया
निशान धूल झोंक कर
युगों चला लिया,
गुलाम हो गये
बना स्वयं अनेक रीतियाँ
प्रथा बनाम रूढियाँ !

नवीन स्वर नहीं सुना ?
नया स्वरूप भी नहीं दिखा ?
बदल गया जहान
सत्य आ गया खरा !
कहाँ गयी
परम्परा, परम्परा, परम्परा ?

अंध मान्यता,
कठोर मान्यता,
असार मान्यता !
अरे बता -
कि धर्म ... धर्म ... धर्म ... की पुकार
मच रही,
यहाँ वहाँ सभी जगह
कि मार-धाड़,
हो गया मनुज गवाँर,

कौन-सा अमूल्य धर्म वह सुना रहा ?

क़ुरान ?
वेद ? उपनिषद ? पुराण ?
बाइबिल ?
सभी बदल चुके !
नवीन ग्रन्थ और एक ‘ईश’ चाहिए,
कि जो युगीन जोड़ दे
नया, नया, नया !
व लहलहा उठे
मनुज-महान-धर्म की
सड़ी-गली लता !

सुधार मान्यता,
नवीन मान्यता,
सशक्त मान्यता !

न व्यर्थ मोह में पड़ो
न कुछ यहाँ धरा !
बदल परम्परा, परम्परा, परम्परा !
1948

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(18) गन्तव्य
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यह जीवन का गन्तव्य नहीं !

निष्फल क्षय-ग्रस्त कराहों का,
इन सूनी-सूनी राहों का,
असफल जीवन की आहों का,
स्वप्न-निमीलित, मोह-ग्रसित यह
जाग्रत-उर का मन्तव्य नहीं !

वैयक्तिक स्वार्थों पर निर्मित ,
आत्म-तुष्टि के साधन सीमित,
पथ पार्थिव सुख पर कर लक्षित,
जन-मन-रागों से दूर कहीं
मानवता का भवितव्य नहीं !

बीते युग पर पछताने का,
या याद पुरानी गाने का,
है ध्येय न आज ज़माने का,
युग की वाणी से रही विमुख
एकांत-कला क्या भव्य कहीं ?
1952

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(19) क्या हुआ?
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वही शिथिल, अस्वस्थ, रुग्ण है शरीर,
क्या हुआ पहन लिया नवीन चीर ?
वही थके चरण,
वही दबे नयन,
कि क्या हुआ क्षणिक सुरा
उतर गयी गले ?
निमिष नज़र के सामने
अगर यह छा गया चमन !
सपन बहार आ गयी !

समीर है वही गरम-गरम,
मरण-वरण बुख़ार
वही गिर रही
उसी प्रकार
शीश से मनुष्य के
अशेष रक्त-धार !
झनझना रहे
हृदय के तार-तार !
1951

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(20) दूर खेतों पार
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शीत की काली भयावह रात !

दूर खेतों पार जर्जर ढूह
जीवन स्तब्ध,
धुंध भीषण, काँपती प्रति रूह ;
जन-मन दग्ध,
मूक प्राणों के दमन की बात !

मर्म पर अंतिम विनाशक चोट
घायल त्रास्त,
ले तिरस्कृत प्राण, रज में लोट
पीड़ा ग्रस्त
बद्ध, शोषित, रक्त से तन स्नात !

एक रोदन का करुणतम शोर
गौरव नष्ट,
छा रहा वैषम्य-विष चहुँ ओर
संस्कृति भ्रष्ट,
साँस प्रति कंपन सिहरता गात !

नाशकारी गाज सिर पर टूट
मानव दीन,
सभ्यता का अर्थ हिंसा लूट
ममता हीन,
खो गया तम के विजन में प्रात !
1951

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(21) युग और कवि
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नाश का क्रन्दन भरा,
यह हार का
दारिद्र्य का
दुर्भिक्ष का
अवरुद्ध पथ का
युद्ध का
मिटता हुआ,
बंधुत्व से हटता हुआ
इतिहास है, इतिहास है !
संस्कृति, कला औ’ सभ्यता का
सामने मानों खड़ा उपहास है !

जब आज दानव कर रहा
शोषण भयंकर
रूप मानव का बनाये,
और उठती जा रही है
स्नेह, ममता की
मनुज-उर-भावनाएँ,
बढ़ रही हैं तीव्र गति से
श्वास पर हर
चिर बुभुक्षित मानवों के
दग्ध-जीवन की
विषैली गैस-सी घातक कराहें !

ध्वंस का
निर्मम मरण का,
घोर काला
यातना का
चित्रा यह म्रियमाण है !
उजड़ा हुआ है अन्दमन-सा !
सिहरता तीखा मरण का गान है !

आदर्श सारे गिर रहे;
मानव बुझा कर
ज्ञान का दीपक
निविड़तम-बद्ध दुनिया
देखना बस चाहता है;
क्योंकि उसके पाप अगणित
कौन है जो देख पाएगा ?

धरा पर
‘शांति, सुख, नवयुग-व्यवस्था’ के लिए
वह लूट लेगा
विश्व का सर्वस्व !
लोभी ! लड़ रहा है,
कर रहा है ध्वस्त
कितने लहलहाते खेत,
मधु जीवन !
रही है मिट मनुजता ही स्वयं
मानो कि की
‘हाराकिरी’ भगवान ने !

है मंद जीवन-दीप की
आभा सुनहली।
युग हुआ शापित कलंकित ;
किन्तु तुम होना न किंचित
धैर्य विगलित, चरण विजड़ित !

कवि उठो !
रचना करो,
तुम एक ऐसे विश्व की
जिसमें कि सुख-दुख बँट सकें,
निर्बन्ध जीवन की
लहरियाँ बह चलें,
निद्र्वन्द्व वासर
स्नेह से परिपूर्ण रातें कट सकें,
सब की,
श्रमात्मा की, गरीबों की
न हो व्यवधान कोई भी !

नये युग का नया संदेश दो!
हर आदमी को आदमी का वेश दो !
1947

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(22) विश्वास
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बढ़ो विश्वास ले, अवरोध पथ का दूर होएगा !

तुम्हारी ज़िन्दगी की आग बन अंगार चमकेगी,
अँधेरी सब दिशाएँ रोशनी में डूब दमकेंगी,
तुम्हारे दुश्मनों का गर्व चकनाचूर होएगा !

सतत गाते रहो वह गीत जिसमें हो भरी आशा,
बताए लक्ष्य की दृढ़ता तुम्हारी आँख की भाषा,
विरोधी हार कर फिर तो, तुम्हारे पैर धोएगा !

मुसीबत की शिलाएँ सब चटककर टूट जाएँगी,
गरजती आँधियाँ दुख की विनत हो धूल खाएँगी,
तुम्हारे प्रेरणा-जल से मनुज सुख-बीज बोएगा !
1951

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(23) आश्वस्त
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ज़िन्दगी के दीप जिसने हैं बुझाये,
और भू के गर्भ से
उगते हुए पौधे मिटाये,
शस्य-श्यामल भूमि को बंजर किया जिसने,
नवल युग के हृदय पर मार
पैना गर्म यह खंजर दिया जिसनेµ
उसी से कर रही है लेखनी मेरी बग़ावत !
रुक नहीं सकती
कि जब तक गिर न जाएगा धरा पर
आततायी मत्त गर्वोन्नत,
रुक नहीं सकता कभी स्वर
जब मुखर होकर
गले से हो गया बाहर,
रुक नहीं सकता कभी तूफ़ान
जिसने व्योम में हैं फड़फड़ाए पर,
रुक नहीं सकता कभी दरिया
कि जिसने खोल आँखें
ख़ूब ली पहचान बहने की डगर !
वह तो फैल उमड़ेगा,
कि चढ़कर पर्वतों की छातियों पर
कूद उछलेगा !
सभी पथ में अड़ी भीतें
गरज उन्मुक्त तोड़ेगा !

मुझे विश्वास है साथी —
तुम्हारे हाथ
इतने शक्तिशाली हैं
कि प्रतिद्वन्द्वी पराजित हो
अवनि पर लोट जाएगा,
तुम्हारी आँख में
उतरी बड़ी गहरी चमकती तीव्र
लाली है
कि जिससे आज मैं आश्वस्त हूँ !
युग का अँधेरा छिन्न होएगा,
सभी फिर से बुझे दीपक
नयी युग-चेतना के स्नेह को पाकर
लहर कर जल उठेंगे !
सृष्टि नूतन कोपलों से भर
सुखी हो लहलहाएगी !
कि मेरी मोरनी-सी विश्व की जनता
नये स्वर-गीत गाएगी !
व खेतों में निडर हो
नाचकर पायल बजाएगी !
1952

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(24) दीपक जलाओ
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आज मेरे स्नेह से दीपक जलाओ !

विश्व कुहराच्छन्न, धूमिल सब दिशाएँ,
चल रही हैं घोर प्रतिद्वन्द्वी हवाएँ,
त्राण मेरे अंक में, आकर समाओ !

आज नूतन फूटती आओ जवानी,
मुक्त स्वर में गूँज लो अवरुद्ध वाणी,
यह नवल संदेश युग का, कवि, सुनाओ !

गिर रही हैं जीर्ण दीवारें सहज में,
टूटती हैं शीर्ण मीनारें सहज में,
हो नया निर्माण, जर्जरता हटाओ !

आज मेरी बाहुओं का बल तुम्हारा,
आज मेरा शीश - प्रण अविचल तुम्हारा,
त्रास्त, घायल, सुप्त दुनिया को जगाओ !
1950

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(25) आभास होता है
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आभास होता है —
कि सदियों बद्ध बंधन
आज खुलकर ही रहेंगे !
इन धुएँ के बादलों से
आग की लपटें लरज कर
व्योम को
निज बाहुओं में घेर लेंगी !
शक्तिमत्ता-मद
विषैला-नद जलेगा,
हर उपेक्षित भीम गरजेगा
तुमुल संगर धरा पर !

गढ़ दमन के
राह के फैले हुए आटे सदृश
संघर्ष की भीषण हहरती
आँधियों के बीच
उड़ मिट जाएँगे !

विश्वास होता है —
कि दौड़ा आ रहा
उन्मुक्त युग-खग,
सब पुरातन जाल जर्जर तोड़कर !

अब तो जलेगा
सत्य का अंगार !
जिसके ही लिए
यह आज तक अविश्रांत
लालायित रहा है
पीड़ितों भूले हुओं का
जागता संसार !
मोचन शोक,
दुख हततेज,
गिर रही है भंगिमा
माया विभेदन,
दीखती अभिनव-किरण
1950

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(26) आज देखा है
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आज देखा है —
मनुज को ज़िन्दगी से जूझते,
संघर्ष करते !
वंचना की टूटती चट्टान की आवाज़
कानों ने सुनी है,
और पैरों को हुआ महसूस
धरती हिल रही है !
आज मन भी
दे रहा निश्चय गवाही —
दुःख-पूर्णा-रात काली
अब क्षितिज पर गिर रही है !
भूमि जननी को हुआ कुछ भास
उसकी आस का संसार
नूतन अंकुरों का
उग रहा अंबार !
सूखे वृक्ष के आ पास
बहती वायु कुछ रुक
कह रही संदेश ऐसा
जो नया,
बिलकुल नया है !
सुन जिसे खग डाल का
अब चोंच अपनी खोलने को
हो रहा आतुर,
प्रफुल्लित,
फड़फड़ाकर कर पर थकित !
छतनार यह काला धुआँ
अब दीखता हलका
नहीं गाढ़ा अँधेरा है
वही कल का !
1951

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(27) मुझे भरोसा है
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मैं क़ैद पड़ा हूँ आज
अँधेरी दीवारों में;
दीवारें —
जिनमें कहते हैं
रहती क़ैद हवा है,
रहता क़ैद प्रकाश !
जहाँ कि केवल फैला
सन्नाटे का राज !
पर, मैं तो अनुभव करता हूँ
बेरोक हवा का,
आँखों से देखा करता हूँ
लक्ष-लक्ष ज्योतिर्मय-पिण्डों को,
मुझको तो
खूब सुनायी देती हैं
मेरे साथी मनुजों के
चलते, बढ़ते, लड़ते
क़दमों की आवाज़ !
मेरे साथी मनुजों के
अभियानों के गानों की
अभियानों के बाजों की
आवाज़ !

मुझे भरोसा है —
मेरे साथी आकर
कारा के ताले तोड़ेंगे,
जन-द्रोही सत्ता का
ऊँचा गर्वीला मस्तक फोड़ेंगे !

इंसान नहीं फिर कुचला जाएगा,
इंसान नहीं फिर
इच्छाओं का खेल बनाया जाएगा !
1951

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(28) मुख को छिपाती रही
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धुआँ ही धुआँ है,
नगर आज सारा नहाता हुआ है !

अँगीठी जली हैं
व चूल्हे जले हैं,
विहग
बाल-बच्चों से मिलने चले हैं !

निकट खाँसती है
छिपी एक नारी
मृदुल भव्य लगती कभी थी,
बनी थी
किसी की विमल प्राण प्यारी !

उसी की शक़ल अब
धुएँ में सराबोर है !
और मुख की ललाई
अँधेरी-अँधेरी निगाहों में खोयी !

जिसे ज़िन्दगी से
न कोई शिकायत रही अब,
व जिसके लिए
है न दुनिया
भरी स्वप्न मधु से
लजाती हुयी नत !

अनेकों बरस से
धुएँ में नहाती रही है !
कि गंगा व यमुना-सा
आँसू का दरिया
बहाती रही है !
फटे जीर्ण दामन में
मुख को छिपाती रही है !

मगर अब चमकता है
पूरब से आशा का सूरज,
कि आती है गाती किरन,
मिटेगी यह निश्चय ही
दुख की शिकन !
1951

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(29) नया समाज
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करवटें बदल रहा समाज,
आज आ रहा है लोकराज !

ध्वस्त सर्व जीर्ण-शीर्ण साज़,
धूल चूमते अनेक ताज !

आ रही मनुष्यता नवीन,
दानवी प्रवृत्तियाँ विलीन !

अंधकार हो रहा है दूर;
खंड-खंड और चूर-चूर !

रश्मियों ने भर दिया प्रकाश,
ज़िन्दगी को मिल गयी है आश।

चल पड़ा है कारवाँ सप्राण
शक्तिवान, संगठित, महान !

रेत-सा यह उड़ रहा विरोध,
मार्ग हो रहा सरल सुबोध;

बढ़ रहा प्रबल प्रगति-प्रसार,
बिजलियों सदृश चमक अपार !

देख काल दब गया विशाल,
आग जल उठी है लाल-लाल !

उठ रहा नया गरज पहाड़,
मध्य जो वह खा गया पछाड़ !

पिस गया गला-सड़ा पुराण,
बन रहा नवीन प्राणवान !

गूँजता विहान-नव्य-गान;
मुक्त औ’ विरामहीन तान !
1949

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(30) युगान्तर
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आँधी उठी है समुन्दर किनारे
बढ़ती सतत कुछ न सोचे-विचारे,
लहरें उमड़तीं बिना शक्ति हारे
रफ़्तार यह तो समय की !

मानव निकलते चले आ रहे हैं,
उन्मत्त हो गीत नव गा रहे हैं,
रंगीन बादल बिखर छा रहे हैं !
झंकार यह तो समय की !

जर्जर इमारत गिरी डगमगाकर,
आमूल विष-वृक्ष गिरता धरा पर,
बहता पिघल पूर्ण प्राचीन पत्थर,
है मार यह तो समय की !

रोड़े बिछे थे हज़ारों डगर में
नौका कभी भी न डोली भँवर में,
बढ़ती गयी व्यक्ति-झंझा समर में
पतवार यह तो समय की !

इंसान लेता नयी आज करवट,
सम्मुख नयन के उठा है नया पट,
गूँजी जगत में युगान्तर की आहट,
ललकार यह तो समय की !
1950


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(31) छलना
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आज सपनों की
नहीं में बात करता हूँ !
चाँद-सी तुमको समझकर
अब न रह-रह कर
विरह में आह भरता हूँ !

नहीं है
रुग्ण मन के
प्यार का उन्माद बाक़ी,
अब न आँखों में सतत
यह झिलमिलाती
तुम्हारे रूप की झाँकी !

कि मैंने आज
जीवित सत्य की
तसवीर देखी है,
जगत की ज़िन्दगी की
एक व्याकुल दर्द की
तसवीर देखी है !
किसी मासूम की उर-वेदना
बन धार आँसू की
धरा पर गिर रही है,
औैर चारों ओेर है जिसके
अँधेरे की घटा,
जा रूठ बैठी है
सबेरे की छटा !

उसको मनाने के लिए अब
मैं हज़ारों गीत गाऊँगा,
अँधेरे को हटाने के लिए
नव ज्योति प्राणों में सजाऊँगा !

न जब तक
सृष्टि के प्रत्येक उपवन में
बसन्ती प्यार छाएगा,
न जब तक
मुसकराहट का नया साम्राज्य
धरती पर उतर कर जगमगाएगा,
कि तब तक
पास आने तक न दूँगा
याद जीवन में तुम्हारी !

क्योंकि तुम
कर्तव्य से संसार का मुख मोड़ देती हो !
हज़ारों के
सरल शुभ-भावनाओं से भरे उर तोड़ देती हो !
1952

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(32) मत कहो
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आज भय की बात मुझसे मत कहो,
आज बहकी बात मुझसे मत कहो !

प्राण में तूफ़ान-से अरमान हैं,
कंठ में नव-मुक्ति के नव-गान है !

ज्वार तन में स्वस्थ यौवन का बहा,
नष्ट हों बंधन, सबल उर ने कहा !

है तरुण की साधना, गतिरोध क्या ?
है तरुण की चेतना, अवरोध क्या ?

द्वंद्व भीषण, है चुनाती सामने,
बीज भावी क्रान्ति बोती सामने !

बद्ध प्रतिपग पर समस्त समाज है;
आग में तपना सभी को आज है !
.
आज जन-जन को शिथिलता छोड़ना,
है नहीं कर्तव्य से मुख मोड़ना !

इस लगन की अग्नि से जर्जर जले
रक्त की प्रति बूँद की सौगन्ध ले —

प्राण का उत्सर्ग करना है तुम्हें,
विश्व भर में प्यार भरना है तुम्हें !

धर्म मानव का बसाना है तुम्हें,
कर्म जीवन का दिखाना है तुम्हें !

मर्म प्राणों का बताना है तुम्हें,
ज्योति से निज, तम मिटाना है तुम्हें !

विश्व नव-संस्कृति प्रगति पर बढ़ चला,
भ्रष्ट जीवन मिट समय के संग गला !

काल की गति, भाग्य का दर्शन मरण,
आज हैं प्रत्येक स्वर के नव-चरण !

जीर्णता पर हँस रही है नव्यता,
खिल रहीं कलियाँ भ्रमर को मधु बता !

ध्वंस के अंतिम विजन-पथ पर लहर,
सृष्टि के आरम्भ के जाग्रत-प्रहर !

जागरण है, जागते ही तुम रहो,
नींद में खोये हुए अब मत बहो !

आज भय की बात मुझसे मत कहो,
आज बहकी बात मुझसे मत कहो !
1950

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(33) नया युग
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ओ ! मनुजता की
करुण, निस्पंद बुझती ज्योति
मेरे स्नेह से भर
प्रज्ज्वलित हो जा !
निविड़-तम-आवरण सब
विश्व-व्यापी जागरण में
आ सहज खो जा !

हिमालय-सी
भुजाओं में भरी है शक्ति
जन-जन रोक देंगे आँधियों को,
फ़ेक देंगे दूर
बढ़ती ज्वार की लहरें !

नयी विकसित
युगों की साधना की फूटती आभा,
नयी पुलकित
युगों की चेतना की जागती आशा !

दलित, नत, भग्न ढूहों से
उठी है आज
नव-निर्माण की दृढ़ प्रेरणा !
ध्रुव सत्य
होगी कल्पना साकार !
अभिनव वेग से
संसार का कण-कण
नया जीवन, नया यौवन, लहू नूतन,
सुदृढ़तम शक्ति का
संचार पाएगा !

नया युग यह
प्रखर दिनकर सरीखा ही नहीं,
पर, है पहुँच आगे बड़ी इसकी —
घने फैले हुए जंगल
भयानक मत्त ‘एवर-ग्रीन’,
भूतल ठोस के नीचे,
अतल जल के
जहाँ बस है नहीं रवि का
वहाँ तक है
नये युग के विचारों का
अथक संग्राम !

कैसे बच सकोगे
ओ पलायन के पुजारी !
आज अपनी बुद्धि की हर गाँठ को
लो खोल,
बढ़कर आँक लो
नूतन सजग युग का समझकर मोल !
1950

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(34) पदचाप
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पड़ रहे नूतन क़दम
फ़ौलाद-से दृढ़,
और छोटी पड़ रही छाया
नये युग आदमी की आज !
धरती सुन रही पदचाप
अभिनव ज़िन्दगी की !
बज रही झंकार,
मुखरित हो रहा संसार,
नव-नव शक्ति का संचार !

परिवर्तन !
बदलती एक के उपरान्त
सुन्दरतर
जगत् की प्रति निमिष तसवीर,
घटती जा रही है पीर,
जागी आदमी की आज तो
सोयी हुई तक़दीर !

रुक गया
मेरे जिगर का दर्द,
बरसों का उमड़ता
नैन का यह नीर !
गीले नेत्र करुणा-पूर्ण
तुझको देखते विश्वास से दृढ़तर,
यही आशा लगाये हैं
कि जब यह उठ रहा परदा पुराना
तब नया ही दृश्य आएगा,
कि पहले से कहीं खुशहाल
दुनिया को दिखाएगा !

1949


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(35) भोर का आह्वान
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खुल रही आँखें
नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !
उठ रहा
उठते दिवाकर संग जन-समुदाय,
भर कर भावना बहुजन हिताय !

अंतर से निकलती आ रही हैं
विश्व के कल्याण की
काली अँधेरी रात के तारों सरीखी,
एक के उपरान्त अगणित शृंखला-सी
नव्य-जीवन की सुनहरी आब-सी
स्वर्गिक दुआएँ !

देख ली है आज
नयनों ने नये युग की धधकती आग,
जिसकी उड़ रहीं चिनगारियाँ
हर ग्राम-वन-सागर-नगर के व्योम में !

उस घास की गंजी सरीखा
जो लपट से ग्रस्त धू-धू जल रही है,
ध्वस्त होता जा रहा
छल, झूठ, आडम्बर !

कि जिसके वक्ष पर यह हो रहा है
रोशनी-सा
दौड़ता अभिनव-किरण-सा आज मन्वंतर !
कि विद्युत वेग भी पीछे
लरज कर रह गया,
लाखों हरीकेनी हवाएँ तक
ठिठक कर रह गयीं;
लाखों उबलते भूमि के ज्वालामुखी तक
जम गये,
बह न पाया एक पग भी देखकर लावा !
गगन के फट गये बादल
व खंडित हो गयी सारी गरज !
भव का भयानकतम भविष्यत् भी
भरे भय भग गया !

विश्वास है —
यह अब न आएगा कभी,
ऐसा ग्रहण फिर
ग्रस न पाएगा कभी
जन-चेतना के सूर्य को !
रे आज सदियों रुद्ध जनता-कंठ
सहसा खुल गया
संसार के इस शोर में !
खुल रही आँखें
नयी इस ज़िन्दगी के भोर में !
1950

=====================================
(36) निरापद
=====================================

नयी रोशनी है,
नयी रोशनी है !
निरापद हुआ आज जीवन,
निराशा पुरावृत विसर्जन !

विषादित-युगों की निशा भी गगन से
अँधेरा उठाकर भगी इस जलन से।

महाबल विपुल अब भुजाएँ उठाकर
विरोधी सभी ताक़तों को
गरजकर बिगड़ क्रुद्ध
ललकारता है !
गुनाहों के पर्वत
पिघल कर धँसे जा रहे हैं !
(सुमन शुष्क उपवन में
खिलते चले जा रहे हैं !)

बदलते जगत पर
पुरातन गलित नीति
हरगिज़
नहीं थोपनी है !
नयी रोशनी है !
1949


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(37) सुर्खियाँ निहार लो!
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नये विचार लो !
समाज की गिरी दशा सुधार लो,
सुधार लो !

रुका प्रवाह फिर बहे,
सप्राण गीति-स्वर कहे,
हृदय अपार स्नेह-धन
भरे उठें असंख्य जन,
प्रभात को धरा जगो पुकार लो,
पुकार लो !

वतन सुसंगठित रहे,
न एक जन दमित रहे,
न भूख-प्यास शेष हो,
बना नवीन वेश हो,
समय बहाल, सुर्खियाँ निहार लो,
निहार लो !

विभोर हर्ष-धार में,
सफ़ेद लाल प्यार में,
बहो, बहो, बहो, बहो !
बनी नयी कुटीर है, विहार लो,
विहार लो !
1950


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(38) युग-परिवर्तन
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नये प्रभात की प्रथम किरण
विलोक मुसकरा रहा गगन !

इधर-उधर सभी जगह
नवीन ज़िन्दगी के फूल खिल गये,
सिहर-सिहर कि झूम-झूम
एक दूसरे को चूम-चूम मिल गये !

धूल बन गया पहाड़ अंधकार का,
अटूट वेग है ज़मीन पर
नयी बयार का !

कि साथ-साथ उठ रहे चरण,
कि साथ-साथ गिर रहे चरण !
नये प्रभात की नयी बहार बीच
जगमगा उठा गगन !
कि झिलमिला उठा गगन !

उर्वरा धरा सुहाग पा गयी,
शरीर में हरी निखार आ गयी !

निहार लो उभार रूप का
पड़ा है सिर्फ़
रेशमी महीन आवरण
अतेज घूप का !

बिजलियों ने कर लिया शयन,
हहरती आँधियाँ पड़ीं शरण,
विकास का सशक्त काफ़िला नवीन
कर रहा सुदृढ़ भवन-सृजन !
बेशरम रुके खड़े हैं राह पर,
कि कापुरुष के कंठ से
निकल रहा कराह-स्वर,
सभीत दुर्बलों के बंद हैं नयन,
व मोच खा गये चरण !
1950

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(39) नयी संस्कृति
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युग-रात्रि
निश्चय
विश्व के प्रत्येक नभ से मिट गयी !
अभिनव प्रखर-स्वर्णिम-किरण बन
झिलमिलाती आ रही
संस्कृति नयी !

सामने जिसके
विरोधी शक्तियाँ तम की बिखरती जा रहीं,
पर, ये विरोधी शक्तियाँ
कोई थकी जर्जर नहीं,
किन्तु;
इनसे जूझने का आ गया अवसर !

यही वह है समय
जब बल नया पाता विजय !

हमला ज़रूरी है,
कि देशों, जातियों, वर्गों सभी की
यह परस्पर की
मिटाना आज दूरी है !

इसी के ही लिए
प्राचीन-नूतन द्वन्द्व की आवाज़ है,
प्राचीन — जो म्रियमाण,
जिसका आज
विशृंखल हुआ सब साज़ है !
जिसकी रोशनी सारी
नये ने छीन ली,
और जिसके हाथ से निकला
समस्त समाज है !
बस, पास केवल एक धुँधली याद है,
जिसका तड़पता शेष यह उन्माद है —
‘बीते युगों में हम सुखी थे;
किंतु अब रथ सभ्यता का
तीव्र गति से बढ़
पतन-पथ पर
जगत का नाश करने हो रहा आतुर !’

हमें अब जान लेना है
विनाशी तत्त्व घातक हैं वही
जो आज यह झूठा तिमिर करते विनिर्मित,
और रक्षक-दीप बनने का
विफल गीदड़ सरीखा स्वाँग भरते हैं !
कि धोखे से उदर अपना
भरा हर रोज़ करते हैं।
भला ऐसे मनुज
क्या लोक के कुछ काम आते हैं ?
नयी हर बात से मुख मोड़ लेते हैं
समय के साथ चलना भूल जाते हैं !

नज़र से
क्रीट, बेबीलोन के खण्डहर गुज़रते हसिं !
बहाना है न उनको देखकर आँसू,
न उनकी अब प्रशंसा के
हज़ारों गीत गाने हैं !
नहीं बीते युगों के दिन बुलाने हैं !
नया युग आ रहा है जो
उसी के मार्ग में हमको
बिछाने फूल हैं कोमल,
उसी के मार्ग को हमको
बनाना है सरल !
जिससे नयी संस्कृति-लता के कुंज में
हम सब खुशी का
गा सकें नूतन तराना !
भूलकर दूख-दर्द
जीवन का पुराना !
1950

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(40) गंगा बहाओ
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आज ऊसर भूमि पर गंगा बहाओ !

उच्च दृढ़ पाषाण गिर-गिर कर चटकते,
रेत के कण नग्न धरती पर चमकते,
अग्नि की लहरें हवा में बह रही हैं;
रूप घन का शांतिमय जग को दिखाओ !

त्रास्त नत मानव प्रकम्पित पात से झर,
झुक गये सब आततायी के चरण पर,
थूक ठोकर नाश दुख निर्मम मरण पर;
आत्म-धन उत्सर्ग की ध्रुव लौ जगाओ !

बह चुकी हैं ख़ून की नदियाँ, बिरानी
भू हुई, सत् की असत् ने कुछ न मानी,
और फूटा भय-ग्रसित-रक्तिम-सबेरा,
सूर्य पर छाये हुए बादल हटाओ !
1950


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(41) नयी रेखाएँ
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इन धुँधली-धुँधली रेखाओं
पर, फिर से चित्र बनाओ मत !

दुनिया पहले से बदल गयी,
आभा फैली है नयी-नयी,
यह रूप पुराना, नहीं-नहीं !
आँखों से ओझल है कल की
संस्कृति की गंगा का पानी,
टूटी-टूटी-सी लगती है
गत वैभव की शेष कहानी,
जिसमें मन से झूठी, कल्पित
बातों को सोच मिलाओ मत !

पहले के बादल बरस चुके,
अब तो खाली सब थके-रुके,
यह गरज बरसने वाली कब ?
नव-अंकुर फूट रहे रज से
भर कर जीवन की हरियाली,
निश्चय है, फूटेगी नभ से
जनयुग के जीवन की लाली,
निस्सार, मिटा, जर्जर, खोया
फिर से आज अतीत बुलाओ मत !
1948

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(42) भविष्य के निर्माताओ!
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जिन सपनों को साकार करोगे तुम
उन पर मुझको विश्वास बड़ा,
मैं देख रहा हूँ
क़दम-क़दम पर आज तुम्हारे
स्वागत को युग का इन्सान खड़ा !
जिसके फ़ौलादी हाथों में
हँसते फूलों की खुशबू वाली माला है,
जिसने जीवन की सारी
जड़ता और निराशा का
वारा-न्यारा कर डाला है !
वह माला वह इन्सान
तुम्हारे उर पर डालेगा;
क्योंकि तुम्हारा वक्षस्थल
जन-जन की पीड़ा से बोझिल है,
क्योंकि तुम्हारे फ़ौलादी तन का
मख़मल जैसा मन
युग-व्यापी क्रन्दन से
हो-हो उठता चंचल है !
तुम ही हो जो
इन फूलों की क़ीमत समझोगे,
फिर सारी दुनिया में
हँसते फूलों का उपवन
नभ के नीचे लहराएगा !
मानव फूलों से प्यार करेगा,
अपनी ‘श्रद्धा’ का शृंगार करेगा,
बच्चों को चूमेगा,
उनके साथ रोज़
हरे लॉन पर ‘घोड़ा-घोड़ा’ खेलेगा !
नयनों में आँसू तो आएँगे
पर, वे बेहद मीठे होंगे !
मरघट की आग जलेगी यों ही
पर, उसमें न किसी के
अरमान अधूरे होंगे !
जैसे अब मिलना दुर्लभ है
‘ईश’ जगत में
वैसे ही तब भी होगा,
पर, हमको-तुमको
(सच मानो !)
उसकी इतनी चिन्ता ना होगी !
उसका और हमारा अन्तर
निश्चय ही मिट जाएगा,
जिस दिन मानव का सपना
सच हो जाएगा !
1953

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(43) मेघ-गीत
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उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन
घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन
अँधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी
घटाएँ सुहानी उड़ीं दे निमन्त्रण !

कि बरसो जलद रे जलन पर निरंतर
तपी और झुलसी विजन-भूमि दिन भर,
करो शान्त प्रत्येक कण आज शीतल
हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर !

झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो,
जगत मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,
गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम,
बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो !

हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी
मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,
नहाती दिवारें नयी औ’पुरानी
डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी !

कृषक ने पसीने बहाये नहीं थे,
नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,
सृजन-पंथ पर हल न आये अभी थे
खिले औ’पके फल न खाये कहीं थे !

दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर
प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर —
हृदय से, श्रवण से, नयन से व तन से,
घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर !

अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ,
अँधेरा सघन, लुप्त हो सब दिशाएँ
भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन
नया प्रेम का मुक्त-संदेश छाये !

विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो,
जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,
चपलता बिछलती, सरलता शरमती,
नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो !
1950

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(44) बरगद
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स्तब्धता सुनसान
पथ वीरान,
सीमाहीन नीला व्योम !
मटमैली धरा पर
वृक्ष बरगद का झुका
मानों कि है प्राचीनता साक्षात् !

निर्बल
वृद्ध-सा जर्जर शिथिल,
उखड़ी हुई साँसें,
जड़ें भू पर बिछी हैं
और गिरने के मरण-क्षण पर
भयंकर स्वप्न ने
कंपित किया झकझोर कर
भय की बना मुद्रा
खड़ा यों कर दिया !

उड़कर धूल कहना चाहती है —
‘ओ गगनचुम्बी !
गिरो
पूरी न आकांक्षा हुई,
आकर मिलो मुझसे
विवश होकर धराशायी !
न जाना मूल्य लघुता का
किया उपहास !’

जड़ के पास
खंडित औ’कुरूपा
जो रँगा सिन्दूर से
हनुमान-सा पाषाण
टिक कर गोद में बैठा
कि जिसकी अर्चना करते
मनुज कितने
नमन हो परिक्रमा करते —
व आधी रात को आ
श्वान जिसको चाटते !
1959


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(43) कवि
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युग बदलेगा कवि के प्राणों के स्वर से,
प्रतिध्वनि आएगी उस स्वर की घर-घर से !

कवि का स्वर सामूहिक जनता का स्वर है,
उसकी वाणी आकर्षक और निडर है !

जिससे दृढ़-राज्य पलट जाया करते हैं,
शोषक अन्यायी भय खाया करते हैं !

उसके आवाहन पर, नत शोषित पीड़ित,
नूतन बल धारण कर होते एकत्रित !

जो आकाश हिला देते हुंकारों से
दुख-दुर्ग ढहा देते तीव्र प्रहारों से !

कवि के पीछे इतिहास सदा चलता है,
ज्वाला में रवि से बढ़कर कवि जलता है !

कवि निर्मम युग-संघर्षों में जीता है,
कवि है जो शिव से बढ़कर विष पीता है !

उर-उर में जो भाव-लहरियों की धड़कन,
मूक प्रतीक्षा-रत प्रिय भटकी गति बन-बन,

स्नेह भरा जो आँखों में माँ की निश्छल,
लहराया करता कवि के दिल में प्रतिपल !

खेतों में जो बिरहा गाया करता है,
या कि मिलन का गीत सुनाया करता है,

उसके भीतर छिपा हुआ है कवि का मन,
कवि है जो पाषाणों में भरता जीवन!
1953

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